अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी,
प्रखर वामपंथी बुद्धिजीवी और ऐक्टिविस्ट विश्वनाथ मिश्र का कल (26 नवंबर) सुबह
लखनऊ में निधन हो गया। ब्रेन हैमरेज होने के बाद उन्हें करीब 15 दिन पहले गोरखपुर
से लाकर लखनऊ के विवेकानंद पालीक्लिनिक में भरती कराया गया था। हालांकि वे अब भी
आईसीयू में ही थे लेकिन उनकी हालत में सुधार होने की आशा लग रही थी। उनके पुराने
साथी और प्रतिबद्ध चित्रकार रामबाबू और संजय ने बताया कि अभी कल ही जब वे उनसे मिलने
गये थे तो उनके बेटे शशि कुमार ने बताया था कि सीने में कफ की दिक्कत बनी हुई है जिसका
इलाज डॉक्टर कर रहे हैं। लेकिन कल सुबह अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा जिससे वे
उबर नहीं सके।
क्रांतिकारी वाम धारा के साथ उनकी
सक्रियता के शुरुआती दिनों से ही उनके साथ सक्रिय रही कवि व ऐक्टिविस्ट कात्यायनी
ने कहा कि उन्हें जैसे ही का. विश्वनाथ मिश्र के लखनऊ में भरती होने के बारे में
पता चला वे और कुछ अन्य साथी उनसे मिलने गए। इस बीच उन्हें किसी काम से बाहर
जाना पड़ा और आज सुबह अचानक यह दुखद समाचार मिला। कात्यायनी ने कहा कि उनके साथ
करीब 22-23 वर्षों तक इतने सारे मोर्चों पर इतनी सघन सक्रियता का साथ रहा है कि उन
सारी स्मृतियों को साझा कर पाना संभव नहीं है। 1982-83 में जब उनसे हम लोगों का
संपर्क हुआ था तब वे अभी एक मार्क्सवादी क्रांतिकारी नहीं थे मगर एक रैडिकल रूढ़िभंजक
बुद्धिजीवी के रूप में अपने इलाके में प्रसिद्ध हो चुके थे। उन्हीं दिनों उनका
लिखा नाटक 'विद्रोही वाल्मीकि' बहुचर्चित हुआ था जिसकी प्रस्तुति पर कालेज
प्रशासन (नेशनल पीजी कालेज, बड़हलगंज जहां वे मृदा संरक्षण के अध्यापक थे) के
रोक लगाने के बावजूद छात्रों-युवाओं ने हाल के फाटक तोड़कर सैकड़ों दर्शकों के समक्ष
उसका मंचन किया था।
वामपंथी क्रांतिकारी राजनीति से
जुड़ने के बाद विश्वनाथ मिश्र एक उदभट वक्ता, प्रखर लेखक, अनुवादक और संस्कृतिकर्मी
के रूप में धुआंधार सक्रियता में जुट गए। नुक्कड़ सभाओं से लेकर
सेमिनारों-संगोष्ठियों तक में वे बेहद प्रभावशाली ढंग से अपनी बात रखते थे और
बहसों में उनके हस्तक्षेप विचारवान और चुटीले होते थे। 1984 में गोरखपुर में
सांस्कृतिक आंदोलन की दिशा पर हुए ऐतिहासिक पांच-दिवसीय सेमिनार, 1986 में
वाराणसी में छात्र आंदोलन की दिशा पर अखिल भारतीय संगोष्ठी, 1990 में मार्क्सवाद
ज़िंदाबाद मंच द्वारा समाजवाद की समस्याओं पर आयोजित पांच दिवसीय सेमिनार या फिर
चंडीगढ़ में जाति प्रश्न पर हुए सेमिनार में उनकी भागीदारी बेहद महत्वपूर्ण रही।
लखनऊ, नैनीताल, सुपौल, पटना, लुधियाना आदि अनेक शहरों में आयोजित विभिन्न
संगोष्ठियों में भी उन्होंने अपने हस्तक्षेप से छाप छोड़ी। संगोष्ठियों में विश्वनाथ
मिश्र के ज्ञान की गहराई और तर्क-कुशाग्रता का लोहा देश के ख्यातिलब्ध विद्वानों
को भी मानना पड़ता था। 'दायित्वबोध' संपादक मंडल के अपने साथी दिवंगत का. अरविंद
के साथ उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में सार्थक
हस्तक्षेप किया। दकियानूसी विचारों और सड़ी-गली परंपराओं पर मारक चोट करने का कोई
भी मौका वे नहीं छोड़ते थे चाहे वह किसी साथी की शादी का मौका हो या कोई सामाजिक
आयोजन। पुराणों और प्राचीन ग्रंथों के अध्याय के अध्याय उन्हें कंठस्थ थे और
धर्म व संस्कृति की दुहाई देने वालों को उन्हीं के हथियार से चारों खाने चित
करने में वे माहिर थे।
करीब 16 वर्षों तक उन्होंने
'दायित्वबोध' का संपादन किया जो मार्क्सवाद, समाजवाद की समस्याओं, राजनीति,
अर्थशास्त्र, साहित्य-कला पर गंभीर वैचारिक सामग्री प्रस्तुत करने वाली हिंदी
में अपने ढंग की विशिष्ट पत्रिका थी। उन्होंने विविध विषयों पर कलम चलाई और
'दायित्वबोध' के अलावा मज़दूर अखबार 'बिगुल' तथा छात्र-युवा पत्र 'आह्वान' के लिए
भी नियमित लिखते रहे। कृषि विज्ञान की पेशेवर पढ़ाई करने के साथ ही प्राचीन भारतीय
दर्शन, धर्मशास्त्र, संस्कृत महाकाव्य, और इतिहास तथा भाषाशास्त्र का उन्होंने
गहरा अध्ययन किया था। शेक्सपियर, बर्नार्ड शा, रसेल, डिकेंस आदि की कृतियों से
लेकर समकालीन भारतीय साहित्य तक में उनकी गहरी रुचि थी और मार्क्सवादी दर्शन का
उनका अध्ययन गहन था। साथ ही क्वांटम भौतिकी और सापेक्षिकता सिद्धांत पर भी उनकी
गहरी पकड़ थी और इन विषयों पर किसी वैज्ञानिक से गंभीर चर्चा करने से लेकर युवाओं
को सरल ढंग से समझाने तक का काम वे बराबर खूबी से करते थे। कृषि विज्ञान की
लोकप्रिय पाठ्य पुस्तकें भी उन्होंने लिखी थीं।
अनुवाद को विश्वनाथ मिश्र एक बेहद
ज़रूरी काम समझते थे और दर्शन, साहित्य तथा राजनीतिक अर्थशास्त्र विषयक सैकड़ों
लेखों के अतिरिक्त उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का भी अनुवाद किया। इनमें यांग
मो का प्रसिद्ध उपन्यास 'तरुणाई का तराना', प्लेखानोव की कृति 'कला के सामाजिक
उद्गम', प्रसिद्ध सोवियत भाषाविज्ञानी वी.एन. वोलोशिनोव की रचना 'मार्क्सवाद और
भाषा का दर्शन', भगतसिंह की 'जेल नोटबुक' और लेनी वुल्फ़ की पुस्तिका 'क्रांति का
विज्ञान' शामिल हैं। डेविड सेल्बोर्न की पुस्तक 'ऐन आई टु चाइना' और जार्ज थॉमसन
की रचना 'मार्क्सवाद और कविता' का अनुवाद भी उन्होंने किया था।
इतनी जबर्दस्त बौद्धिक सक्रियता के
बावजूद वे कोई कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी नहीं थे बल्कि एक अत्यंत सक्रिय सामाजिक
कार्यकर्ता भी थे। सड़कों-चौराहों पर, गांवों में उन्होंने सैकड़ों नुक्कड़ सभाएं
कीं और प्रचार अभियान चलाए। नौजवानों की टोलियों के साथ साइकिल अभियानों में भी वे
शिरकत करते थे। 1986 में राजीव गांधी की सरकार द्वारा लाई गई नई शिक्षा नीति के
विरोध में पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में दिशा छात्र संगठन और पूर्वांचल नौजवान
सभा की ओर से चलाए गए करीब एक महीने के सघन साइकिल अभियान में भी वे शामिल थे और
1991 में गोरखपुर से बिहार तक चले 15 दिन के धुआंधार प्रचार अभियान के वे एक
अग्रणी भागीदार थे। बड़हलगंज जैसे छोटे से कस्बे में उनके कारण ही 'चेतना'
कार्यालय वैचारिक और सांस्कृतिक चर्चाओं और गहमागहमी का केंद्र बना रहता था और
दर्जनों छात्रों-युवाओं को उन्होंने अन्याय, रूढ़ियों और शोषण-उत्पीड़न के
विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। बिना किसी हिचक के वे नुक्कड़ नाटकों
में हर तरह की भूमिकाएं दिलचस्पी के साथ निभाते थे और बिल्कुल युवा साथियों से
भी सीखने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। 1996 में गोरखपुर में युवा कार्यकर्ताओं के
लिए आयोजित समग्र सांस्कृतिक कार्यशाला में भी उन्होंने कई सत्रों का संचालन
किया।
देवरिया के एक निम्न मध्यवर्गीय
परिवार में जन्मे विश्वनाथ मिश्र जीवनपर्यंत एक छोटे से कस्बे में अध्यापन
करते हुए सामाजिक आंदोलनों में भागीदारी करते रहे। इस बात में ज़रा भी अतिशयोक्ति
नहीं कि आज ऐसी प्रतिभाएं महानगरों के चर्चित विश्वविद्यालयों और संस्कृति
केंद्रो में भी नहीं मिलतीं। मगर यश और पद की चूहा दौड़ से दूर वे जीवनभर ज्ञान-साधना
करते रहे और जनता के मुक्ति-संघर्ष के साथ उनका सरोकार बना रहा। 1994 में 'राहुल
फाउंडेशन' की स्थापना में भी उनकी अग्रणी भूमिका थी।
पारिवारिक समस्याओं और स्वास्थ्य
की बाधाओं के कारण पिछले कुछ वर्षों से वे सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता से दूर हो गए
थे। लेकिन उनकी प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं आयी थी और वे मार्क्सवाद तथा
क्रांतिकारी विचारों के निरंतर संपर्क में थे। पिछले कुछ समय से वे फिर से लेखन और
विचारों की दुनिया में सक्रिय होने की योजनाएं बना रहे थे लेकिन इसी बीच यह दुखद घटना
हो गयी।
उनके अंतिम कुछ वर्ष भले ही सामाजिक सक्रियता से दूर गुज़रे लेकिन वे कभी उन लोगों की जमात में शामिल नहीं हुए जो 4-5 साल बड़े जोश से क्रांति-क्रांति खेलते हैं और फिर किनारा कसकर उपदेश, नसीहतें झाड़ने और निंदारस के जाम टकराने में जुट जाते हैं। ऐसे पाखंडियों से वे गहरी नफरत करते थे। इस किस्म के लोगों के बारे में उनका एक जुमला साथियों के बीच चर्चित था कि 'क्रीम जब सड़ता है तब उससे अधिक बदबूदार कुछ नहीं होता।'
उनके अंतिम कुछ वर्ष भले ही सामाजिक सक्रियता से दूर गुज़रे लेकिन वे कभी उन लोगों की जमात में शामिल नहीं हुए जो 4-5 साल बड़े जोश से क्रांति-क्रांति खेलते हैं और फिर किनारा कसकर उपदेश, नसीहतें झाड़ने और निंदारस के जाम टकराने में जुट जाते हैं। ऐसे पाखंडियों से वे गहरी नफरत करते थे। इस किस्म के लोगों के बारे में उनका एक जुमला साथियों के बीच चर्चित था कि 'क्रीम जब सड़ता है तब उससे अधिक बदबूदार कुछ नहीं होता।'