नोबेल पुरस्कार समिति की दुविधा यह है कि उन्हें नोबेल शांति पुरस्कारों के लिए सुयोग्य उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं। श्रम और पूंजी का अंतरविरोध जैसे-जैसे तीखा और व्यापक होता जा रहा है उसमें यह संभव नहीं रह गया है कि पूंजी के हितों के किसी पैरोकार को सर्वसम्मति से शांति पुरस्कारों के लिए चुना जा सके। ऐसे में नोबेल पुरस्कार समिति ऐसे लोग को चुन रही है जो अपनी बातों से बुर्जुआ जगत को ऐसा आभास दिलाते हैं और जिनकी बातों की सच्चाई अभी सिद्ध नहीं हुई है क्योंकि ऐसी किसी सच्चाई के सिद्ध होने की संभावना ही नहीं बची है।
यही वजह है कि मोहम्मद युनुस को अर्थशास्त्र का नहीं बल्कि शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया क्योंकि उन्होंने सूक्ष्म ऋण के जाल में फंसाकर एक बड़ी मेहनतकश आबादी के गुस्से से पूंजीवादी व्यवस्था को बचाने का नुस्खा ईजाद किया था हालांकि ज्यादा समय नहीं हुआ कि यह नुस्खा भी बेकार साबित हो चुका है। पुंजी की मार जिस तेजी से लोगों को उजाड़कर दर-बदर कर रही है उसमें सूक्ष्म ऋण भी लोगों पर बहुत भारी पड़ रहा है।
पर बराक ओबामा की दुविधा खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। अमेरिका की बुरी तरह संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था के लिए ओबामा की चलने-बोलने की मनमोहक अदाबाजी और सुचिंतित जुमलेबाजी एक ताजा हवा के झोंके और विश्वास बहाली के प्रयास सरीखी थी। पूरी दुनिया की पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं तक इस विश्वास का अहसास पहुंचाने के लिए एक विश्वस्तरीय मान्यता की जरूरत थी और दुनियाभर के सट्टा बाज़ार के खिलाडि़यों को भरोसा देने के लिए नोबेल शांति पुरस्कारों से बढ़कर और क्या हो सकता था, भले ही इस शांति दूत का देश दुनिया में जनसंहारक हथियारों की आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा देश हो। ओबामा के आगमन पर हो-हल्ला मचाने वाला बुर्जुआ मीडिया भी अब उनकी तारीफ में कसीदे नहीं पढ़ रहा है। आखिर मीडिया भी किसी झूठ पर कितनी देर पर्दा डाल सकेगा।
ओबामा की दूसरी दुविधा उनके नाम को लेकर है। बेचारे क्या करें कि उनके नाम के बीच में हुसैन शब्द भी जुड़ा हुआ है और दुनिया के सबसे आधुनिक जनतांत्रिक देश की जनता को यह बात पच नहीं रही है कि उनका राष्ट्रपति एक खास धर्म (इस्लाम) का हो या एक खास धर्म (ईसाई) का न हो। बेचारे ओबामा यह बता-बताकर थक गए हैं कि उनके नाम में हुसैन शब्द भले ही आता हो लेकिन वे मुसलमान नहीं हैं। उन्हें डर है कि अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी लोकप्रियता और उनका पद भी छिन सकता है। उनपर लोगों को भरोसा भी कम हो जाएगा। उन्हें यह डर इस हद तक है कि अपनी आगामी भारत यात्रा के दौरान अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में दर्शन करने जाते समय सिर ढंकने की प्रथा के कारण कहीं अमेरिका में उन्हें मुसलमान न समझ लिया जाए इसका निराकरण करने के लिए उन्होंने अमृतसर की यात्रा ही रद्द कर दी। (बुर्जुआ पढ़ाई से मूर्ख ही पैदा हो सकते हैं इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका के लोग हैं। जॉर्ज बुश जैसे अल्पज्ञानी का राष्ट्रपति बनना भी इसी की एक बानगी था। हमारे यहां भी बहुत सारे लोग यह कहते नहीं अघाते कि भारत की सबसे बड़ी समस्या निरक्षरता है। जैसे कि अगर पढ़े लिखे होते तो उन्हें मनमोहन सिंह, राहुल गांधी और गडकरी से बेहतर नेता मिल जाते।)
आधुनिक बुर्जुआ धर्मनिरपेक्षता की गहराई बस इतनी है। भारत में संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए यह नारा दिया जाता है कि मुसलमान को राष्ट्रपति बनाया जाए, अमेरिका में संकीर्ण राजनीतिक हितों का तकाजा है कि मुसलमान राष्ट्रपति न बने। हमें तो अभी साठ साल ही हुए हैं पर तीन सौ से अधिक सालों से जनतांत्रिक प्रणाली होने के बावजूद अमेरिका का हाल हमसे कोई खास बेहतर नहीं है। इसके साथ ही पूरे यूरोप में इस्लाम के भय ने यह साबित कर दिया है कि धर्म, नस्ल, भाषा और लिंग जैसे लोगों को बांटने वाले मध्ययुगीन भेद आज भी पूंजीवादी राजनीति के लिए जरूरी उपकरण हैं। समाज को आगे ले जाने की विचारधारात्क शक्ति से क्षरित हो चुकी बुर्जुआजी के पास श्रम की संगठित ताकत का मुकाबला करने के लिए लोगों को बांटने वाले ऐसे विभेदों पर निर्भर होने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं बचा है।
आधुनिक बुर्जुआ धर्मनिरपेक्षता की गहराई बस इतनी है। भारत में संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए यह नारा दिया जाता है कि मुसलमान को राष्ट्रपति बनाया जाए, अमेरिका में संकीर्ण राजनीतिक हितों का तकाजा है कि मुसलमान राष्ट्रपति न बने। हमें तो अभी साठ साल ही हुए हैं पर तीन सौ से अधिक सालों से जनतांत्रिक प्रणाली होने के बावजूद अमेरिका का हाल हमसे कोई खास बेहतर नहीं है। इसके साथ ही पूरे यूरोप में इस्लाम के भय ने यह साबित कर दिया है कि धर्म, नस्ल, भाषा और लिंग जैसे लोगों को बांटने वाले मध्ययुगीन भेद आज भी पूंजीवादी राजनीति के लिए जरूरी उपकरण हैं। समाज को आगे ले जाने की विचारधारात्क शक्ति से क्षरित हो चुकी बुर्जुआजी के पास श्रम की संगठित ताकत का मुकाबला करने के लिए लोगों को बांटने वाले ऐसे विभेदों पर निर्भर होने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं बचा है।