Sunday, September 13, 2009

हड़ताल 'अपराध' नहीं पवित्र धर्म है।

जेट एअरवेज़ के पायलटों की हड़ताल के संदर्भ में 11 सिंतंबर 09 के अपने संपादकीय 'हड़ताल का अपराध' में नई दुनिया अखबार यह प्रश्‍न करता है कि 'हड़ताल करने वालों को कड़ा दंड देने के लिए व्‍यापक जनसमर्थन और बहुमत के बल पर कानून बनाने की आवश्‍यकता हो गई है। हड़तालों पर कड़े अंकुश के लिए क्‍या घिसे-पिटे पुराने कानूनों में फेरबदल पर विचार करने का सही वक्‍त नहीं आ गया है?'

आउटलुक पत्रिका के संभवत: जुलाई 09 के अंक में एक लेख में लंदन के ट्यूब ट्रेनों की हड़ताल के विषय में लेखक कहता है कि इस हड़ताल से सबसे अधिक दिक्‍कत 'आम आदमी' को हुई।

हो सकता है आप भी कहें कि उपरोक्‍त दोनों बातें सच ही तो हैं। आखिर हडतालों के कारण लोगों को तमाम असुविधाएं होती हैं, बहुत से जरूरतमंद लोग अत्‍यावश्‍यक सेवाओं से वंचित रह जाते हैं, काम और व्‍यवसाय का नुकसान होता है, सरकारी और गैरसरकारी तथा राष्‍ट्रीय संपत्ति को नुकसान होता है, उत्‍पादक गतिविधियां ठप्‍प हो जाती हैं और उत्‍पादक श्रम बेकार चला जाता है। और शायद आप प्रत्‍यक्ष या परोक्ष ढंग से यह भी कहने या जताने से न चू‍कें कि यह सब नाहक ही होता है और यह शैतानी तबियत वाले चंद निठल्‍ले लोगों के दिमाग की उपज होती है।
और बहुत हद तक यह भी संभव है कि आप शायद अपने ये इंप्रेशन हड़ताल के कारण को जानने-समझने के पहले ही बना चुके हों।

कोई चीज सिर्फ इसलिए गलत नहीं हो जाती क्‍योंकि कुछ लोग उसका इस्‍तेमाल गलत ढंग से या गलत उद्देश्‍य के लिए करते हैं। पायलटों को लाखों रुपये वेतन और भत्तों में मिलते हैं और उनकी ड्यूटी भी अपेक्षाकृत आरामदायक होती है केवल इसलिए हड़ताल एक गलत हथियार नहीं हो जाता। हड़ताल किसी स्थिति के असहनीय हो जाने पर अपना विरोध जताने और दबाव बनाने का एक तरीका है, और किसी भी अन्‍य तरीके की तरह इसके सही या गलत होने का फैसला हड़ताल के मूल कारण की पड़ताल किए बिना नहीं किया जा सकता।

हड़ताल का नाम सुनते ही आउटलुक के लेख के लेखक की तरह कई लोगों का 'आम आदमी'-प्रेम उमड़कर बाहर आने लगता है। पर ये बेचारे अतिभावुक मासूम लोग ये नहीं सोचते कि हड़ताल करने वाले भी आम लोग ही होते हैं (हालांकि हमेशा ऐसा नही होता मगर ज्‍यादातर तो होता ही है)। अगर खास होते तो हड़ताल कर ही क्‍यों रहे होते। (खास लोग लॉबीइंग करते हैं दबाव डालते हैं, हड़ताल नहीं करते)। खास लोगों को हड़ताल करने की जरूरत ही नहीं होती। आप कभी ये जानने की कोशिश नहीं करते कि ये हड़ताली आम लोग हड़ताल कर ही क्‍यों रहे हैं। आप कभी ये जानने की कोशिश भी नहीं करते कि शायद शांतिप्रिय तरीकों के असफल हो जाने के बाद ही हड़ताल की जरूरत पड़ी हो, शायद हड़तालियों के साथ अन्‍याय हुआ हो, शायद अकेले-अकेले उनकी आवाज दबाई जा रही हो और इसलिए उन्‍हें समूह की शक्ति से अपनी आवाज जोर से उठाने के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया हो। पर हो सकता है कि आप 'आम आदमी' के दुख में इतने दुबलाए जा रहे हों कि आपके मन में ये प्रश्‍न उठते ही न हों।
क्‍या आपको मालूम है ऐसा क्‍यों है?
चौंकिए मत ऐसा इसलिए है क्‍योंकि आपने अपने आप को ही आम आदमी समझ लिया है। इस्‍त्री किए कपड़े पहने, लंच पैक थामे, प्रोमोशन, बीमा, फ्लैट और कार की किश्‍त, मुन्‍नू को इजीनियरिंग कालेज में एडमिशन दिलाने के लिए डोनेशन, मुन्‍नी के दहेज के लिए रकम, अर्थव्‍यस्‍था के ढहने के कारण शेयरों के गिरते भाव.... आदि आदि में आप इतने बेहाल-परेशान रहते हैं कि आपको लगता है कि आप से ज्‍यादा 'आम' दुनिया में और कोई है ही नहीं। और ऊपर से ये हड़ताल करने वाले उफ्फ.... स्‍साले!! काम के न काज के, दुश्‍मन (आपके)अनाज के!!!
यह भी हो सकता है कि आप डीटीसी की बस के बजाय ए सी कार में बैठे हों और तब तो बस पूछिए मत। दीज़ ब्‍लडी इंडियंस, गुड फॉर नथिंग। इनको तो कोई तानाशाह ही ठीक कर सकता है।
जाहिर सी बात है कि मन ही मन वो तानाशाह भी आप स्‍वयं को ही समझते हैं। या आपको लगता है कि वो तानाशाह आपका पास का नहीं तो आपका दूर का रिश्‍तेदार तो होगा ही।

हडतालों के साथ एक और मजेदार मिथक यह है कि सिर्फ कर्मचारी ही हड़ताल करते हैं।
अगर यह सच है तो संसद और विधानसभाओं में विरोध स्‍वरूप सदन से वॉक आऊट करना और सार्वजनिक संपत्ति का लाखों-करोड़ों रुपया वारा न्‍यारा करना क्‍या हड़ताल का रूप नहीं है।

और पूंजीपतियों की हड़ताल के बारे में क्‍या ख्‍याल है।

जो पूजीपति निवेश करने के लिए और मनमाफिक मुनाफा पीटने के लिए तमाम तरह की शर्तें लगाते हैं धमकियां देते हें, ब्‍लैकमेल करते हैं यहां तक कि अपनी गलतियों के कारण दीवाला निकल जाने पर पूरे रौब के साथ बेल आउट पैकेज की मांग करते हें क्‍या वो हड़ताल नहीं है और क्‍या उससे 'आम आदमी' को परेशानी नहीं होती है। जहां कर्मचारियों की मांगे बेहद छोटी और काफी हद तक जायज होती हैं वहीं सरकार के सामने पूंजीपतियों की शर्तें देखिए और आप स्‍वयं अंदाजा लगाइये।
- सस्‍ती जमीन दो नहीं तो निवेश नहीं करेंगे।
- बिजली पानी सस्‍ता दो और बिजली पानी के लाखों करोड़ों रुपये के बकाया बिलों के भुगतान की बात भी मत करो, नहीं तो निवेश नहीं करेंगे।
- करों में तमाम तरह की छूट दो, नहीं तो निवेश नहीं करेंगे।
- पुलिस और सरकारी अधिकारियों से कहो कि घूस भले लें लेकिन ज्‍यादा सख्‍ती नहीं करें, नहीं तो निवेश नहीं करेंगे।
- श्रम कानूनों में ढील दो, जो मौजूदा कानून हैं उनको भी लागू मत करो, कर्मचारियों-मजदूरों का खून पसीना निचोड़ने की पूरी आजादी दो, जब बात हमारे गुडों की जद से बाहर हो जाए तो उनसे हमें बचाने और उनकी अक्‍ल ठिकाने लगाने के लिए पुलिसिया सुरक्षा का वायदा करो और यूनियन बनाने की आजादी तो बिल्‍कुल मत दो, नहीं तो हम निवेश नहीं करेंगे।
- कानून व्‍यवस्‍था को ऐसी बनाओं की हम चाहें तो कोर्ट कचहरी के चक्‍कर लगवा-लगवाकर कर्मचारियों का जूता घिसवा डालें। अगर कोई केस करे भी तो बाप के केस का फैसला उसके बेटे के बुढ़ा जाने पर ही हो। और अगर कर्मचारी जीत भी जाए तो जुर्माना इतना कम हो कि बेचारा केस जीतकर भी ठगा सा महसूस करे।

- आदि आदि आदि ...... (इस सूची का कोई अंत नहीं है.)

तो क्‍या यह भी एक तरह का हड़ताल नहीं है। और क्‍या नई दुनिया और उससे मिलते-जुलते विचार रखने वाले इसे भी 'अपराध' मानते हैं।

पुनश्‍च : नई दुनिया के संपादक लिखते हैं कि '...जब पूरी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्‍यवस्‍था तथा जनता अपने आर्थिक विकास की गति पर गौरव करते हुए प्रगति के शिखर पर पहुंचने की आकांक्षा रखती है, तब सरकार हड़ताल जैसे गलत हथियारों के इस्‍तेमाल की छूट क्‍यों दे रही है'। अब पता नहीं संपादक जी ने देश के 20 रुपया रोज से कम पर जीने वाले देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी को उस 'जनता' में शामिल किया है या नहीं जो आर्थिक विकास पर गौरव कर रही है। यही प्रश्‍न भारत के हर चौथे भूखे नागरिक, और कुपोषण के शिकार पांच वर्ष से कम आयु के बच्‍चों की लगभग आधी आबादी की तरफ से भी पूछी जा सकती है कि वे 'जनता' में शामिल हैं या नहीं और 'गौरव' करने का हक उन्‍हें भी है या नहीं।

ब्‍लॉग की एक पोस्‍ट के लिए इस विषय पर फिलहाल इतना ही...।

3 comments:

संजय तिवारी said...

आपकी लेखनी को मेरा नमन स्वीकार करें.

दिनेशराय द्विवेदी said...

इस में नई दुनिया के संपादक का क्या कसूर है? उसे अखबार के मालिकों की नौकरी जो करनी है। वह संपादकीय केवल मालिकों की जुबान बोल रहा है। वही जनता रह गए हैं, अब। बाकी तो उन के सेवक मात्र हैं।

Anonymous said...

पहले बैंक कर्मचारी और अब ये पायलेट ! विडम्बना देखीए कि पूंजीवाद कुलीन मजदूर को भी संतुष्ट नहीं कर पा रहा है. हालाँकि इस कुलीन मजदूर की उस तीन चौथी आबादी से कोई हमदर्दी नहीं है जो २० रुपये रोजाना से काम चलाती है. बल्कि ये लोग इस आबादी को द्वेष से ही देखते हैं. इसमें भी कोई शक नहीं कि ओर्गेनाईजेड सेक्टर की यह कुलीन मजदूर आबादी एक तरह से इस पूंजीवाद की एक सुरक्षा पंक्ति का ही काम करती है क्योंकि इससे अन-ओर्गेनाईजेड सेक्टर का मजदूर अपने लिए या अपने बच्चों के लिए हासिल करने का भ्रम पाले हुए और होड़ करते हुए अपनी सारी ज़िन्दगी गुजार देता है.

और ये बुर्जुआ मीडिया के संपादक लोग अपने आकाओं को खुश करने के लिए फासिस्टों की तरह लोहे की राड से वर्करों को हांकने के कानूनी गुर सुझा रहे हैं.