हर इन्सान की जान कीमती होती है। चाहे वह मज़दूर हो या पूँजीपति। पूँजीवादी जनतन्त्र भी इसे अपना आदर्श घोषित करता है लेकिन असलियत में इसे लागू नहीं करता। अपने जीवन से हर आदमी यह महसूस कर सकता है कि किस तरह विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया तक पैसेवालों की सेवा में लगे रहते हैं।
कल ग्रेटर नोएडा में एक कम्पनी के काम से निकाले गये मज़दूरों और कम्पनी के प्रबंधन और सुरक्षाकर्मियों के बीच हिंसक संघर्ष में कम्पनी के सीईओ की मौत हो गयी। इस घटना के द्वारा आइये इस व्यवस्था के विभिन्न खम्भों और समाज के विभिन्न वर्गों की मानसिकता की पड़ताल करने की कोशिश की जाये और कुछ निष्कर्षों पर पहुँचा जाये।
अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में काम के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं में प्रति वर्ष 400,000 कामगारों (प्रतिदिन तकरीबन 100 से ज्यादा) की मौत हो जाती है और इसके अतिरिक्त 350,000 कामगार काम सम्बन्धी बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं। कभी ब्वॉयलर फटने से तो कभी दीवार ढहने से तो कभी करेंट लगने से मज़दूरों की मौत होना आम बात है। सीवरों की सफ़ाई के दौरान अकसर ही सफ़ाई कर्मियों की मौत हो जाती है या वे बेहोश हो जाते हैं। ज्यादतर मज़दूरों की मौत उपयुक्त सुरक्षा उपकरणों के न होने से होती हैं। ख़तरनाक से ख़तरनाक काम भी हेल्मेट, जूतों और दस्तानों के बगैर ही मज़दूरों से करवाये जाते हैं। वास्तव में कितने मज़ूदूर काम के दौरान मरते हैं यह पता करना एक मुश्किल काम है, क्योंकि ज्यादातर कम्पनियॉं ठेकेदारी, दिहाड़ी और पीस रेट पर काम करवाती हैं और मज़दूरों का कोई लेखा-जोखा नहीं रखतीं। सच्चाई यह है कि शायद ही कोई कम्पनी सरकार द्वारा तय न्यूनतम मज़दूरी देती है और सरकार द्वारा तय सुरक्षा मानकों का पालन करती है। बहुत कम ही ऐसी कम्पनियॉं हैं जहॉं दुर्घटना के बाद फर्स्ट एड बाक्स तत्काल उपलब्ध हो सके। पीने के पानी, हवा, रोशनी, शौचालय जैसी बुनियादी ज़रूरतों पर भी कम्पनियॉं ध्यान नहीं देती हैं। और ऐसी स्थितियों में मज़दूरों से 12 से 14 घण्टे तक जबरदस्ती काम करवाया जाता है, गाली-गलौच की जाती है, महीनों-महीनों तक एक भी छुट्टी नहीं दी जाती। कम से कम पगार पर काम करवाया जाता है और उसका भी समय से भुगतान नहीं किया जाता और जब चाहा काम पर रखा जब चाहा निकाल बाहर किया।
पर यह सब मुद्दे कभी मुख्यधारा की चिन्ता का सबब नहीं बनते। किसी अख़बार की सुर्खी नहीं बनते किसी न्यूज चैनल पर जगह नहीं पाते। कोई सरकारी अधिकारी या मन्त्री इन पर कुछ नहीं बोलता। मरने वाले मज़दूर को मुआवज़ा मिला या नहीं उसके परिवार का क्या हुआ, उसके बच्चे कैसे जीयेंगे इन प्रश्नों पर शरीफ़ से शरीफ़ नागरिक भी बहुत चिन्ता और सरोकार से नहीं सोचता। सरकार सिर्फ कानून बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है और कानून कागजों में बन्द होकर रह जाते हैं।
लेकिन अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष करने वाले मज़दूरों के साथ झड़प में एक सीईओ की मौत पर पूरा मीडिया जगत छाती पीट रहा है। अधिकारी और मन्त्री बयान दे रहे हैं, पुलिस ने 136 से अधिक मज़दूरों को हिरासत में ले लिया है और 63 पर हत्या का आरोप लगाया है। उद्योगपतियों के संगठन एसोचैम और फिक्की ने इस हिंसक घटना की घोर निन्दा की है और मुजरिमों पर तत्काल और सख्त से सख्त कार्रवाई की मॉंग की है। एस्सोचैम के अध्यक्ष सज्जन जिंदल ने इसे एक क्रूरतापूर्ण जुर्म करार दिया है और पूँजीपतियों के इन संगठनों ने धमकी दी है कि इससे निवेशकों के बीच देश की छवि खराब होगी। इन संगठनों ने श्रम मन्त्री आस्कर फर्नांडीज को इसलिए लताड़ा है कि उन्होंने प्रबंधन से मजदूरों के साथ हमदर्दी बरतने को कहा। यह कहने के लिए निश्चित है कि श्रम मन्त्री को सरकार और '10 जनपथ' की तरफ से अभी और डॉंट पड़ेगी या पड़ चुकी होगी।
नंगे तौर पर देखा जा सकता है कि ये तमाम पूँजीवादी तन्त्र जो प्रतिवर्ष 400,000 मज़दूरों की मौत कुछ नहीं कहते एक सीईओ की मौत पर कैसे सक्रिय हो गये हैं। मजदूरों की मौत पर शायद ही किसी पूंजीपति, अधिकारी पर कोई कार्रवाई होती है और अगर होती भी है तो इतनी मामूली कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ता और मजदूरों की मौत का सिलसिला लगातार जारी रहता है। भोपाल गैस काण्ड जैसी विभत्स घटना के बीस साल बाद भी मुजरिमों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है और हजारों प्रभावित लोगों को राहत नहीं दी गई है। फिक्की, एस्सोचैम, सीआईआई इस बारे में कभी कुछ नहीं कहते। पर एक सीईओ की मौत पर उन्होंने तत्काल हंगामा खड़ा कर दिया यह जाने बगैर कि गलती किसकी थी। एक कहावत है कि ताकतवर कभी गलत नहीं होता, गलती हमेशा कमजोर की ही होती है।
तो इस सबसे क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि इस व्यवस्था में मज़दूरों और आम लोगों की जिन्दगी की कोई क़ीमत नहीं है और तब फिर क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि मज़दूरों को इस व्यवस्था से कोई उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए...।