Friday, September 19, 2008

सरकार स्‍वयं शोषण की एक मशीनरी है...

दिल्‍ली में डीडीए के फ्लैटों के आवंटन के लिए फार्म बेचने और जमा करने की प्रक्रिया में दिल्‍ली सरकार और तमाम बैंकों ने बैठे-बैठे करोड़ों की कमाई कर ली। अखबारों के अनुसार 5010 मकानों का आवंटन होना है और इसके लिए 12 लाख के आसपास फार्मों की बिक्री हुई और 4 लाख के आसपास फार्म जमा हुए। फार्म 100 रुपये में बिके और डेढ़ लाख रुपये के साथ जमा किए गए। इसके लिए लोगों ने बैंकों से लोन लिया और बैंकों ने लोन देने के लिए लोगों से पैसा लिया। क्‍या गजब का खेल है.... हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा।

पर इस खेल के पीछे के तर्क को समझने का प्रयास करें तो शोषण के एक व्‍यापक तंत्र का खुलासा होता है। वैसे तो शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य और रोजगार तथा आवास की बुनियादी सुविधाएं सरकार द्वारा लोगों को मुहैया करवायी जानी चाहिए। लेकिन पूरे विश्‍व के स्‍तर पर कहीं ऐसा नहीं हो रहा है। दुनिया भर में सरकारें अपने सामाजिक दायित्‍वों से हाथ खींच रही हैं और उन्‍हें निजी क्षेत्र की लूट के लिए उनके हवाले कर रही हैं। जो लोग यह कहते हैं कि निजी क्षेत्र की भागीदारी से सिस्‍टम में सुधार होता है उनके मुंह पर तमाचा मारने वाले कई तथ्‍य अबतक उजागर हो चुके हैं। शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रवेश के बाद से यह क्षेत्र विशुद्ध उद्योग बन चुका है। जिसके बाप के पास पैसा है वह शिक्षा पाये जिसके बाप के पास पैसा नहीं है वह भाड़ में जाये। स्‍वास्‍थ्‍य के क्षेत्र में आलम यह है कि विदेशों के लोग भारत आकर इलाज करवा रहे हैं और होटलों की तर्ज पर ऐशो आराम की सुविधाएं देने वाले निजी अस्‍पतालों का कम कीमत पर लाभ उठा रहे हैं और अपने देश में बड़ी संख्‍या में लोग मलेरिया, चेचक और पोलियो जैसी छोटी-छोटी बीमारियों से मर रहे हैं। दवा निर्माण और वितरण उद्योग का यह हाल है कि कुल बिकने वाली दवाओं का एक तिहाई नकली दवाएं होती हैं।

आवास का भी यही हाल है। जमीन का कोई भी टुकड़ा प्राइवेट बिल्‍डरों की नजर से बचा नहीं है। पलक झपकते इमारतें खड़ी हो जाती हैं और फ्लैट बिक जाते हैं। न नक्‍शे की चिन्‍ता, न सुरक्षा मानकों की और न नियम-कानून की। सरकारी तंत्र सब जानता है कि कौन अपराधी है लेकिन
वह कुछ नहीं करता क्‍योंकि ये अपराधी उसकी जेब गरम करते हैं और वह स्‍वयं इन अपराधों में बराबर का हिस्‍सेदार है।

पर सबसे मजेदार बात यह नहीं है। सबसे मजेदार बात यह है कि वास्‍तव में जिन सुविधाओं के लिए सरकार होती है और जिनका वायदा वह लोगों से करती है उनके लिए भी वह लोगों से ही शुल्‍क वसूल करने लगी है। और वह भी संवैधानिक तरीके से। इसके अलावा जो काली कमाई सरकारी अफसर करते हैं वह अलग है। अगर डीडीए के 5010 फ्लैटों के मामले में यह हाल है तो कल्‍पना की जा सकती है कि पूरे देश के स्‍तर पर इस तरह की कारगुजारी से केन्‍द्र और राज्‍य सरकारें आम लोगों से कितनी कमाई करती हैं। और प्रत्‍यक्ष करों के अलावा यह उन तमाम छोटी-छोटी साबुन-तेल जैसी चीजों पर लगने वाले परोक्ष करों के अलावा की जाने वाली कमाई है। बिना हाथ-पैर चलाये बैठे बिठाये की जाने वाली कमाई है।

केन्‍द्र और राज्‍य सरकारों के मंत्री कोई उत्‍पादक कार्रवाई तो करते नहीं। भारी-भरकम नौकरशाही के पास कलम घिसने के अलावा बस चापलूसी और गप्‍पबाजी का काम होता है। उतना ही भारी पुलिस और फौज का तंत्र है जो स्‍पष्‍टत: अमीरों की सेवा और सुरक्षा के लिए होता है और इसी काम के लिए उसे खिलाया पिलाया जाता है। तो कुल मिलाकर इन सबका बोझ उत्‍पादन करने वाली आम जनता को ही उठाना होता है। और यह वही आम जनता है जिसके लिए एक स्‍कूल या एक अस्‍पताल खोलने में सरकार को नानी याद आ जाती है। इन सभी अनुत्‍पादक वर्गों का बोझ उठाने वाली यह वही जनता है जिसे एक छोटा से काम कराने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ता है, घूस देनी पड़ती है और सिफारिशें लगवानी पड़ती हैं तब जाकर कहीं फाइल सरकती है।

पूंजीवादी जनतंत्र अब अपने सारे नकाब उतारकर पूरी नंगई पर उतर आया है। अब तो वह समाजवाद या कल्‍याणकारी राज्‍य की बात भी नहीं करता। भूल जाओ की संविधान में अब भी भारत एक समाजवादी राज्‍य है। हालांकि सच्‍चाई तो यह है कि 1950 में भी भारत न तो समाजवादी था और न उसे ऐसा बनाने की कोशिश की गई। यह शब्‍द तो महज एक छलावा था जिससे कि लोगों की गाढ़ी कमाई को सरकारी उपक्रमों में लगा कर आर्थिक अवरचनागत ढांचा खड़ा किया जाये क्‍योंकि उस समय देशी पूंजीपति वर्ग की इतनी औकात नहीं थी कि खुली प्रतियोगिता में वह विदेशी पूंजी‍पतियों के आगे ठहर पाता। उस समय सरकार स्‍वयं एक पूंजीपति थी जो जनता की मेहनत की अतिरिक्‍त कमाई को हड़प जाती थी और लोगों में कुछ प्रसाद बॉंट देती थी। धीरे-धीरे उसने यह भी करना बन्‍द कर दिया। अब सरकार बस शोषण करती है, खून चूसती है और पूंजीपतियों को छूट देती है कि वे जनता का खून चूसें और लोगों के लिए उसे कुछ करना भी पड़ता है तो बस इस डर से कि कहीं लोग विद्रोह न कर दें और कहीं विदेशों में उसकी बदनामी न हो जाये।

3 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

अब सरकार बस शोषण करती है, खून चूसती है और पूंजीपतियों को छूट देती है कि वे जनता का खून चूसें और लोगों के लिए उसे कुछ करना भी पड़ता है तो बस इस डर से कि कहीं लोग विद्रोह न कर दें और कहीं विदेशों में उसकी बदनामी न हो जाये।

आप ने बिलकुल सही तथ्य और निष्कर्ष सामने रखे हैं। बधाई।

लेकिन, यह वर्ड वेरिफिकेशन हटाएँ। यह टिप्पणीकारों को आप के ब्लाग पर टिप्पणी करने से रोकता है।

Udan Tashtari said...

अच्छा विश्लेषण एवं प्रभावी आलेख. बधाई.

हिंदी ब्लॉगर/Hindi Blogger said...

बढ़िया विश्लेषण. धन्यवाद!