वस्तुगत यथार्थ की तर्कपूर्ण अभिव्यक्ति का एक प्रयास.....क्योंकि यदि रूप ही अन्तर्वस्तु का द्योतक होता तो विज्ञान की ज़रूरत ही नहीं होती!
Wednesday, December 17, 2008
अगर दुनिया में एक ही जाति, धर्म, नस्ल, राष्ट्रीयता के लोग हों, तो क्या हिंसा/आतंकवाद खत्म हो जाएगा ।
मिसाल के लिए रतन टाटा को ही ले लीजिए। आजतक जब तक कि 'सिस्टम' ने रतन टाटा को तमाम वैध-अवैध तरीकों से व्यवसाय फैलाने, मुनाफा लूटने, श्रमिकों की मेहनत लूटने की इजाजत और खुली छूट दे रखी थी तब तक आज के युवाओं के आदर्श रतन टाटा जी को सिस्टम पर पूरा भरोसा था। ऐसा तो नहीं कि देश में इसके पहले कभी हिंसा हुई ही नही थी, पर रतन टाटा चुप रहे। और जब उनके अपने होटल पर हमला हुआ (ऐसा होटल जिसमें भारत की 99.5 प्रतिशत जनता घुस भी नहीं सकती थी), तो टाटाजी ने बयान दे डाला कि हमें सिस्टम पर भरोसा नहीं है, हम अपनी सुरक्षा स्वयं करेंगे (टाइम्स आफ इंडिया, 17 दिसंबर, 08)। बिल्कुल कर सकते हैं, क्योंकि आप ऐसी सुरक्षा अफोर्ड कर सकते हैं, पर देश की 99 प्रतिशन जनता तो नहीं अफोर्ड कर सकती। अगर यह सिस्टम रतन टाटा जैसे देश के 'रतन' की सुरक्षा नहीं कर सकता तो आम आदमी के बारे में कहना ही क्या है।
समाज में हिंसा तभी से मौजूद रही है जबसे समाज शोषकों और शोषितों में विभाजित हुआ। यह हिंसा विकृत सामाजिक व्यवस्था का एक बाइप्रोडक्ट है। यह समाज रूपी शरीर को लगी बीमारी का एक लक्षण भर है, यह अपने आप में पूरी बीमारी नहीं है। और यदि शरीर को ठीक करना है तो इलाज इस बीमारी के लक्षणों का नहीं बल्कि बीमारी का करना होगा।
आज समाज में जो हिंसा व्याप्त है उसके कई रूप हैं और कई कारण भी। लेकिन हिंसा का विरोध करने वाले अधिकतर लोग एक तरह की हिंसा का विरोध तो करते हैं मगर अन्य प्रकार की हिंसा पर चुप्पी साधे रहते हैं। जापान पर दो एटम बम गिरा चुका अमेरिका आज विश्व मंच पर शान्ति की बात करता है और गुआंतानामो बे और अबु घरेब में अमानवीय कृत्य अंजाम देता है। सच्चाई यह है कि अपने आर्थिक, राजनीतिक, व्यक्तिगत, धार्मिक, जातिगत, नस्लीय या लैंगिक स्वार्थपूर्ति के लिए दूसरों पर जोर-जबरदस्ती करना ही हर प्रकार की हिंसा का मूल स्रोत है। चूंकि पूंजीवादी समाज किसी भी तरीके से स्वार्थपूर्ति करने को जायज समझता है और इसी सिद्धान्त पर आधारित है इसलिए पूंजीवादी समाज में हिंसा भी अधिक होती है।
हर शासक वर्ग हिंसा को अपने हितों के अनुरूप परिभाषित करता है। इसलिए भारत में जहां औसतन 2 लोगों के रोज आतंकवादी गतिविधियों में मारे जाने पर भयंकर हाय तौबा मचती है उसी भारत में पुलिस हिरासत में रोज 4 लोगों के मरने और काम के दौरान होने वाली घटनाओं और बीमारियों से रोज मरने वाले 1095 लोगों के बारे में न तो मीडिया में कोई जगह मिलती है, न तो मानवतावादी ब्लॉगर उसपर कुछ लिखते हैं। हमारे महान देश में भूख और कुपोषण से हर दिन हजारों लोग मरते हैं, पांच वर्ष से कम आयु वाले बच्चों में शिशु मुत्यु दर 76 प्रतिशत है। लेकिन इन आंकड़ों से हमें कोई कष्ट नहीं होता। क्योंकि हमारा एजेंडा तो हिंसा को धार्मिक रंग देना और राजनीतिक लाभ हासिल करना है। पर क्या सिर्फ हिंसा/आतंकवाद खत्म हो जाने से भूख और कुपोषण भी खत्म हो जाएगा, मजदूरों को सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन मिलने लगेगा, दहेज के लिए औरतों को जलाना और कन्या शिशुओं की भ्रूण हत्या खत्म हो जाएगी, सबको शिक्षा, रोजगार और सम्मान से जीने का हक मिल जाएगाए जातिगत, भाषाई और क्षेत्रीय असामनताएं दूर हो जाएंगी।
नहीं ऐसा कुछ भी नहीं होगा..... लेकिन इतना जरूर है कि अगर ये सब बुराइयां खत्म की जाएं या इस दिशा में प्रयास किया जाए तो हिंसा या आतंकवाद जरूर खत्म हो जाएगा या बहुत कम रह जाएगा।
ब्लाग की एक पोस्ट में इस समस्या के सभी पहलुओं पर नहीं लिखा जा सकता। इस मुद्दे पर अधिक विस्तार से पढ़ने के लिए राहुल फाउंडेशन, लखनऊ से प्रकाशित एक पुस्तिका 'आतंकवाद के बारे में : विभ्रम और यथार्थ' अवश्य देखें।
Tuesday, December 16, 2008
सरकार यानी पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के बाद मीडिया में (टाइम्स आफ इंडिया) बहुत प्रमुखता से यह खबर प्रकाशित हुई कि इन विधानसभा चुनावों में ज्यादातर उम्मीदवार और सफल प्रत्याशी करोड़ों के स्वामी हैं। दिल्ली विधानसभा के लगभग सारे ही विधायक लखपति या करोड़पति हैं। पांचों राज्यों जिनमें अभी विधानसभा चुनाव हुए हैं में देखें तो 40 प्रतिशत सीटें करोड़पति प्रत्याशियों ने जीती हैं। 5 लाख प्रतिवर्ष से कम आय वाले 3 प्रतिशत से भी कम उम्मीदवारों ने चुनाव में सफलता प्राप्त की। दिल्ली विधानसभा में औसत निकालें तो प्रत्येक विधायक के पास 2.86 करोड़ की संपत्ति है। यही बीजेपी और कांग्रेस के विधायकों का भी औसत है। वहीं छत्तीसगढ़ विधानसभा का हर दूसरा विधायक 3 करोड़ की परिसंपत्तियों का मालिक है।
सिर्फ तथ्यों की ही बात करें तो आंकड़ें बताते हैं कि यदि आपके पास 5 करोड़ से अधिक की संपत्ति है तो आपके चुनाव जीतने की संभावना 50 प्रतिशत हो जाती है। कम आय वालों के लिए यह संभावना उनकी आय के हिसाब से ही कम होती जाती है।
यह ट्रेंड कोई नई बात नहीं है लेकिन मीडिया में इसको अब जगह मिली क्योंकि अब आंकड़े इतने सनसनी फैलाने वाले हो गए हैं कि इन्हें पहले पन्ने पर देकर अखबार की रेटिंग बढ़ाई जा सकती है। वर्ना यह तो सभी जानते हैं कि संसद और विधानसभाओं में हर पूंजीपति की अपनी एक लॉबी होती है और यह भी सब जानते हैं कि कौन सांसद या विधायक किस पूंजीपति के हित साधता है। यह अनायास नहीं है कि अनिल अंबानी और विजय माल्या जैसे पूजीपति स्वयं सांसद बनते हैं। अब इसमें कुछ समझने लायक नहीं बचा है कि हमारे सम्मानित सांसद और विधायक या तो स्वयं पूंजीपति हैं या पूंजीपति बनने की राह पर हैं और इसलिए इससे यह एक सरल सा निष्कर्ष भी निकलता है कि उनके हित पूंजीपतियों के हितों के साथ्ा नत्थी हैं। चाहे वे किस भी जाति धर्म के हों लेकिन उनका वर्ग एक है - पूंजीपति वर्ग। और उनका काम भी एक ही है अपने वर्ग की उन्नति के बारे में सोचना और काम करना।
समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे के जिस नारे के साथ पूंजीपति वर्ग सत्ता में आया था उसका मतलब सिर्फ यह रह गया है कि पूंजीपतियों के बीच की समानता, देश और देश की जनता को लूटने की स्वतंत्रता और इस लूट के निजाम को बनाए रखने के लिए शोषकों का आपसी भाईचारा। देश की तीन चौथाई आबादी के लिए समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे की पोल तभी खुल जाती है जब चौराहे पर खाकी वर्दी डाले कोई पुलिसवाला उसको जब-तब मां-बहन की सुना देता है। आम आदमी चोर बदमाशों से उतना नहीं डरता जितना कि पुलिस से। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि नौकरशाही में कुछ भ्रष्ट लोग आ गए हैं बल्कि इसलिए है क्योंकि नौकरशाही लोगों की सेवा के लिए है ही नहीं। नौकरशाही का काम तो पूंजीपति वर्ग के हितों की हिफाजत करना और उसके पक्ष में न्याय-कानून का प्रयोग करना है। बाकी जनता के लिए तो कोर्ट कचहरी और सरकारी दफ्तर बस दिखावे की चीजें हैं।
कहने की कोई जरूरत नहीं कि देश की संसद और विधानसभाएं आम लोगों के हितों की रक्षा नहीं करते और न ही आम जनता को उनसे कोई अपेक्षाएं पालनी चाहिए। पूंजीवादी धनतंत्र में पूंजी का नंगा खेल अब उस हद तक बढ़ चुका है (और इसे बढ़ते ही जाना है) कि इस व्यवस्था को सुधारने की कोई उम्मीद बाकी नहीं रह गई है।
Sunday, November 30, 2008
सर्वहारा के महान शिक्षक फ्रेडरिक एंगेल्स (जन्मदिन 28 नवंबर) की याद में
Wednesday, October 22, 2008
ग्रेजियानो की घटना : छद्म मानवतावादियों के मुंह पर तमाचा मारती सच्चाईयां
ग्रेजियानो की घटना पर कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा जांच-पड़ताल से उभरे तथ्य।
22 सितम्बर की घटना और उसकी पृष्ठभूमि
सरलीकोन ग्रेज़ियानो ट्रांसमिशन इण्डिया इटली की एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी की सबसिडियरी है। यहां बड़ी मशीनों के गियर, एक्सेल आदि बनाये जाते हैं। इसके अधिकांश उत्पाद अमेरिका-इटली के बाजारों में बिकते हैं। 2003 में 20 करोड़ से कम की पूंजी से शुरू की गयी इस कम्पनी की पूंजी 2008 में बढ़कर 240 करोड़ रुपये हो चुकी है। यह ज़बर्दस्त मुनाफ़ा मज़दूरों के भयंकर शोषण की बदौलत ही सम्भव हुआ था।
फैक्ट्री में 12-12 घण्टे की दो शिफ्टों में दिनों-रात काम होता था। ओवरटाइम अनिवार्य था और कोई साप्ताहिक छुट्टी नहीं दी जाती थी। इसे मानने से इंकार करने वाले मज़दूरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था। शुरू में 350 स्थायी मज़दूरों को आपरेटर-कम-सेटलर के तौर पर रखा गया था और 80 अप्रेंटिस/ट्रेनी थे। करीब 500 मज़दूर लेबर कांट्रैक्टरों के मातहत काम करते थे। पिछले कुछ सालों से बिना कारण बताये मज़दूरों की बीच-बीच में छँटनी की जा रही थी। उनको कोई ज्वॉयनिंग लेटर नहीं दिया जाता था। गलत ढंग से कार्ड पंच करके उनके वेतन और ओवरटाइम से भारी कटौती की जा रही थी। सवाल उठाने पर मैनेजरों की मार-गाली इनाम में मिला करती। इन हालात से तंग आकर पहले-पहल मज़दूरों ने नवम्बर 2007 में यूनियन बनाने की कोशिश शुरू की। इसकी भनक लगते ही कम्पनी ने 3 मज़दूरों के फैक्ट्री में घुसने पर रोक लगा दी और एक को बर्खास्त कर दिया। कानुपर स्थित रजिस्ट्रार कार्यालय ने भी कम्पनी मैनेजमेण्ट की शह पर तरह-तरह के हथकण्डों से यूनियन के गठन को लटकाये रखा।
दिसम्बर 2007 में मैनेजमेण्ट के रवैये के विरुद्ध आन्दोलन करने पर 100 और मज़दूरों को बाहर कर दिया गया। लम्बे आन्दोलन के बाद 24 जनवरी, 2008 को कम्पनी ने साप्ताहिक छुट्टी और 1200 रु. वेतनवृद्धि की बात मान ली। लेकिन इस समझौते के तुरन्त बाद कम्पनी ने स्थानीय ठेकेदारों के मातहत 400 नये मज़दूर ठेके पर रख लिये जो फैक्ट्री परिसर के भीतर ही रहते थे। 400 मज़दूरों के इस ''कैप्टिव फोर्स'' के दम पर इन ठेकेदारों ने पहले से काम कर रहे मज़दूरों को धमकाना शुरू कर दिया। इन ठेकेदारों ने मज़दूरों को आतंकित करने और उनके आन्दोलन से निपटने के लिए फैक्ट्री परिसर में लोहे की छड़ें, लाठियां और दूसरे हथियार भी इकट्ठा कर रखे थे। इसके साथ ही 150 सिक्योरिटी गार्डों के रूप में एक ठेकेदार के तहत गुण्डों की पूरी बटालियन खड़ी कर ली गयी।
400 नये भर्ती किये गये ठेका मज़दूर चूँकि 3 महीनों के दौरान मशीन ऑपरेट करना सीख गये थे इसीलिए चरणबद्ध तरीके से मज़दूरों को निकाला जाने लगा। 5 मई को कम्पनी ने 5 मज़दूरों की छँटनी कर दी। इन मज़दूरों को निकाले जाने का विरोध कर रहे 27 परमानेण्ट मज़दूरों को सस्पेण्ड कर दिया गया। इसके एक हफ्ते बाद ही 30 और मज़दूर निकाल बाहर किये गये। एकदम स्पष्ट था कि कम्पनी सोची-समझी रणनीति के तहत योजनाबद्ध तरीके से पुराने मज़दूरों से छुटकारा पाना चाह रही थी। मैनेजमेण्ट ने वर्कशाप के भीतर रिवर्स एग्ज़ॉस्ट पंखे बन्द करा दिये जिससे भीतर गर्मी बेहद बढ़ गयी। चारों ओर क्लोज़ सर्किट कैमरे लगा दिये गये थे और जो भी मज़दूर थोड़ी देर भी ढीला पड़ता दिखता उसे बाहर कर दिया जाता। मज़दूरों ने संबंधित अधिकारियों से शिकायत भी की लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
मज़दूरों ने डीएलसी और जिलाधिकारी के कार्यालय पर धरना-प्रदर्शन किया। श्रममन्त्री, मुख्यमन्त्री, प्रधानमन्त्री को अपनी समस्या से अवगत कराया। उन्होंने इटली दूतावास तक अपनी बात पहुँचायी। लेकिन उनकी आवाज बहरे कानों पर पड़ रही थी। मज़दूरों को अलग-थलग पड़ता देख कम्पनी मैनेजमेण्ट ने दम्भ के साथ घोषणा की कि अगर प्रधानमन्त्री भी कहें तो भी तुम लोगों को काम पर वापस नहीं लेंगे। 2 जुलाई के दिन मैनेजमेण्ट ने बाकी बचे 192 मज़दूरों को भी काम से निकाल दिया। वस्तुत: कंपनी को इस दिन श्रमायुक्त के समक्ष हुए समझौते के अनुसार मज़दूरों को काम पर वापस रखना था! इस तरह कुल 254 मज़दूरों को सड़क पर धकेल दिया गया। कई महीनों से बेरोजगार मज़दूरों के सामने भुखमरी की नौबत पैदा हो गयी। कई लोगों को अपने घर का सामान तक बेचना पड़ा। मज़दूर ही नहीं श्रम विभाग के अधिकारियों तक का कहना है कि समझौते पर कई बार सहमत होने के बावजूद कम्पनी में वापस पहुँचते ही मैनेजमेण्ट के लोग उसे लागू करने से मुकर जाते थे।
22 सितम्बर को क्या हुआ?
एक बार फिर मज़दूरों ने श्रम विभाग का दरवाजा खटखटाया। मैनेजमेण्ट ने साफ तौर पर कहा कि 22 सितम्बर तक सभी मज़दूर कम्पनी में आकर माफीनामा लिखें तभी आगे की बात की जायेगी। मजबूर होकर मज़दूर 22 सितम्बर की सुबह 9 बजे फैक्ट्री गेट पर पहुँचे। उन्हें 3 घण्टे इन्तजार कराया गया। 12 बजे के बाद मज़दूरों को भीतर टाइम ऑफिस में बुलवाया गया जहां हथियारबंद सिक्योरिटी गार्ड और स्थानीय गुण्डे पहले से तैनात थे। वहां मौजूद एक मैनेजर ने मज़दूरों से कहा कि वे कम्पनी को हुए नुकसान और तोड़फोड़ के लिए व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेते हुए माफीनामे पर दस्तखत करें तभी उन्हें वापस लिया जायेगा। इस पर एक मज़दूर ने प्रतिवाद करते हुए कहा ''जब हम लोगों ने कोई तोड़फोड़ की ही नहीं तो माफीनामे में ऐसा क्यों लिखें?'' इस पर अनिल शर्मा नाम के एक टाइम ऑफ़िसर ने मज़दूर को थप्पड़ मार दिया। दोनों में झगड़ा हुआ और सिक्योरिटी वालों ने मज़दूरों को पीटना शुरू कर दिया।
भीतर से हल्ला-गुल्ला सुनकर बाहर मौजूद मज़दूर भीतर दौड़ पड़े। मज़दूरों को रोकने के लिए एक मैनेजर ने सिक्योरिटी गार्डों और गुण्डों को मज़दूरों पर हमला करने का आदेश दे दिया। एक सिक्योरिटी गार्ड ने मज़दूरों पर गोली भी चलायी। इस मारपीट में 34 मज़दूर घायल हो गये। इस दौरान बिसरख थाने के एस.एच.ओ. जगमोहन शर्मा पुलिस बल के साथ मौजूद रहे लेकिन मालिकान की शह पर उन्होंने कुछ नहीं किया। बाद में पुलिस ने दोनों तरफ के लोगों को हिरासत में लिया, लेकिन मैनेजमेण्ट के लोगों को तो छोड़ दिया गया जबकि मज़दूरों को जेल भेज दिया गया।
इसी अफरा-तफरी में सीईओ एल.के. चौधरी के सिर में भी चोट लगी और अस्पताल ले जाने पर उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि चौधरी के परिजनों का कहना है कि उनकी हत्या किसी व्यावसायिक रंजिश के तहत की गयी है, मज़दूरों ने उन्हें नहीं मारा।
लेकिन नियमित कर्मचारियों की छुट्टी करने पर आमादा मैनेजमेण्ट को एक बहाना मिल गया। स्थानीय उद्योगपति, कारपोरेट मीडिया, नौकरशाही सब मिलकर मज़दूरों को बदनाम करने और दोषी ठहराने में जुट गये। 63 मज़दूरों पर सीईओ की हत्या की साजिश रचने और उन्हें मारने का इल्जाम लगाया गया जबकि 72 अन्य पर बलवा करने और शान्ति भंग करने की धाराएं लगा दी गयीं। कई दिनों तक प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ऐसी ख़बरें आती रहीं कि ''मज़दूरों ने बर्बरतापूर्वक पीट-पीटकर सी.ई.ओ. की हत्या कर दी''।
घटना के तुरन्त बाद उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार उद्योगपतियों के पक्ष में सक्रिय हो गयी। 26 सितम्बर को दिल्ली में बुलायी गयी विशेष बैठक में मायावती ने पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को मज़दूरों के साथ सख्ती से निपटने के निर्देश दिये। मुख्य सचिव और एडीजी (कानून-व्यवस्था) ने नोएडा में कैम्प ऑफिस बनाकर उद्योगपतियों के ''दुखड़े'' सुनना शुरू कर दिया। किसी ने भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि मज़दूरों की क्या शिकायतें हैं। सरकार के रवैये से ऐसा लगता है जैसे ''औद्योगिक अशान्ति'' के सारे मामले महज़ कानून-व्यवस्था के मसले हैं और इसके लिए मज़दूर ही दोषी हैं। इन्हीं से निपटने के लिए सरकार ने आनन-फानन में नोएडा के औद्योगिक इलाकों के लिए तीन नये डीएसपी भी तैनात कर दिये। श्रम कार्यालय को लगभग दरकिनार करते हुए सरकार ने ''औद्योगिक सम्बन्ध समिति'' का गठन करके औद्योगिक विवादों के सम्बन्ध में तमाम कार्यकारी अधिकार उसे सौंप दिये हैं। इस समिति में नोएडा और ग्रेटर नोएडा प्राधिकरणों के सी.ई.ओ. के अलावा जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी शामिल हैं। मालिकान के हौसले इतने बुलन्द हैं कि ग्रेटर नोएडा एसोसिएशन ऑफ इंडस्ट्रीज़ के अध्यक्ष के मुताबिक सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया है कि श्रम कार्यालय द्वारा किसी भी उद्योगपति के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने से पहले उन्हें सूचना दी जायेगी। बिल्कुल साफ है कि केन्द्र की यूपीए सरकार और उ.प्र. की मायावती सरकार राजनीति के मैदान में एक-दूसरे से चाहे जितना झगड़ें, श्रम-शक्ति को लूटने में देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लठैत बनकर उनकी मदद के लिए किसी भी हद तक चले जाने के मामले में दोनों में कोई अंतर नहीं है।
कुछ सामाजिक तथा मज़दूर संगठन ग्रेजियानो के मज़दूरों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अधिक जानकारी के लिए तथा इस मुहिम से जुड़ने के लिए संपर्क करें:
tapish.m@gmail.com
grazianoworkerssolidarity@yahoo.com
फोन : तपिश - 9891993332
Thursday, October 16, 2008
पूंजीपतियों की चिंता में दुबली हुई जाती सरकारें...
आप सोच रहे होंगे कि भाई इसमें दिक्कत क्या है। ये तो वही पूंजीपति हैं जो अपने कामगारों का खून-पसीना एक किए रहते हैं। जब चाहे नौकरी पर रखते हैं जब चाहे निकाल बाहर करते हैं। बैंको से अरबों करोड़ों का कर्ज लेकर चुकाते नहीं हैं। किसानों की जमीनें कब्जा करते हैं। टैक्स की चोरी करते हैं और स्विस बैंकों में रुपया जमा करवाते हैं। इंसानों का खून और किडनी बेचते हैं और यहां तक कि इन्होंने प्रकृति का भी विनाश कर डाला है। सभ्यता, संस्कृति और इंसानियत तक को बिकाऊ माल बना दिया है। औरत को उपभोग की वस्तु बना दिया है और बच्चों तक को अपनी वासना का जकड़ में ले लिया है। मुनाफे ही हवस में जो इंसान भी नहीं रह गए हैं ऐसे धनपशु आज अगर अपने ही खेल में पिट रहे हैं तो इनपर रहम किया भी जाए तो क्यों।
पर सरकार ऐसा नहीं सोचती। सरकार चाहे अपने देश के लोगों को दो जून की रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पेयजल भी न उपलब्ध करवा सके पर पूंजीपतियों के लिए अपने खजाने खोलने में सरकार एक मिनट की भी देर नहीं करेगी। अमेरिका की सरकार अपने देश की एक कंपनी को बचाने के लिए जितने डॉलर खर्च कर रही है उतने में पूरे विश्व को कई साल तक खाना खिलाया जा सकता है। 5 साल से कम उम्र के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं पर सरकार को उनकी चिंता नहीं है। देश की आधी आबादी भूखे पेट सोती है पर सरकार को उसकी भी चिंता नहीं है। किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, मजदूर किडनियां बेच रहे हैं, औरतें अपनी अस्मिता बेचने को मजबूर हैं और बच्चों से उनका बचपन छीना जा रहा है पर सरकार को इन सबकी भी चिंता नहीं है। सरकार को चिंता है तो बस उन धनपशुओं की जिनकी जीवनशैली पर इस आर्थिक मंदी के बावजूद कोई असर नहीं पड़ने वाला है। उनकी ऐय्याशियां कम नहीं होने वाली हैं। उनके गुनाह कम नहीं होने वाले हैं।
अगर अब भी आप नहीं समझ पाए हैं कि सरकार लोगों की नहीं पूंजीपतियों की चिंता क्यों करती है तो इसका सीधा सा जवाब यह है कि 'सरकार पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी का काम करती है।' लोगों की चिंता करना उसका काम ही नहीं है, सरकार का जन्म ही इस काम के लिए नहीं हुआ है। सरकार के लिए पूंजीपतियों का हित सर्वोपरि है। उनके हित के लिए सरकार कभी बाजार खोल देती है तो कभी तमाम तरह की पाबन्दियां लगाती है। कभी उन्हें लूट-खसोट की पूरी आजादी देती है तो कभी उनके लिए अपने खजाने खोल देती है। सीधी-सादी चीजों को कानूनों के जंजाल में इस तरह उलझाती है कि पैसे वाला चाहे तो कानून अपनी जेब में रखकर घूम सकता है और गरीब बेगुनाह होकर भी पूरी जिंदगी हवालात में गुजार सकता है।
पूरे विश्व के स्तर पर आई मौजूदा आर्थिक मंदी ने नंगे तौर पर यह दिखा दिया है कि सरकार की एकमात्र चिंता पूंजीपतियों की सेवा करना है, उनके हितों की सुरक्षा करना है। आम जनता को भी अब यह समझ लेना चाहिए कि ऐसी सरकार के भरोसे उनकी नैय्या पर होने वाली नहीं है। शहीदे-आजम भगतसिंह की एक-एक बात आज सही साबित हो रही है। आज भगतसिंह के विचार पहले से भी कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए हैं।
Tuesday, October 7, 2008
शायरी मैंने ईजाद की... अफजाल अहमद
शायरी मैंने ईजाद की
काग़ज़ मराकशियों ने ईजाद किया
हरूफ़ फीनिशियों ने
शायरी मैंने ईजाद की
कब्र खोदने वाले ने तन्दूर ईजाद किया
तन्दूर पर कब्ज़ा करने वालों ने रोटी की पर्ची बनायी
रोटी लेने वालों ने कतार ईजाद की
और मिलकर गाना सीखा
रोटी की कतार में जब चींटियां भी आ खड़ी हो गईं
तो फाका ईजाद हुआ
शहतूत बेचने वालों ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया
शायरी ने रेशम से लड़कियों के लिबास बनाये
रेशम में मलबूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने महलसरा ईजाद की
जहां जाकर उन्होंने रेशम के कीड़े का पता बता दिया
फासले ने घोड़े के चार पांव ईजाद किये
तेज़ रफ्तारी ने रथ बनाया
और जब शिकस्त ईजाद हुई
तो मुझे तेज़ रफ्तार रथ के आगे लिटा दिया गया
मगर उस वक्त तक शायरी ईजाद हो चुकी थी
मुहब्बत ने दिल ईजाद किया
दिल ने खेमा और कश्तियां बनाईं
और दूर-दराज़ मकामात तय किये
ख्वाजासरा ने मछली पकड़ने का कांटा ईजाद किया
और सोये हुए दिल में चुभोकर भाग गया
दिल में चुभे कांटे की डोर थामने कि लिए
नीलामी ईजाद की
और
ज़बर ने आखि़री बोली ईजाद की
मैंने सारी शायरी बेचकर आग ख़्ारीदी
और ज़बर का हाथ जला दिया
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मराकशी - मोरक्को के मिराकिश शहर के निवासी
फीनिशी - फीनिश के निवासी
महलसरा - अन्त:पुर, हरम
खेमा - तम्बू
ख्वाज़ासरा - हरम का रखवाला हिजड़ा
ज़बर - अत्याचार
Monday, October 6, 2008
यूनानी कवि ओडिसियस एलाइटिस
जब तक कि चेतना पदार्थ में वापस नहीं लौटती
हमें दोहराते रहना होगा
कि दुनिया में कोई छोटे और बड़े कवि नहीं- सिर्फ मनुष्य हैं,
कुछ ऐसे जो कविताएं ऐसे लिखते हैं
जैसे वे पैसा कमाते हैं
या वेश्याओं के साथ सोते हैं
और कुछ ऐसे मनुष्य , जो ऐसे लिखते हैं
जैसे प्रेम के चाकू ने उनका दिल चीर दिया हो...........
Sunday, October 5, 2008
आखिर किस-किस गुनाह के लिए माफी मांगेगा चर्च...
पोप की परेशानी हम समझ सकते हैं। आखिर बेचारे पोप किन-किन गुनाहों के लिए माफी मांगेंगे। अभी पिछले दिनों ही उन्होंने अमेरिका और आस्ट्रेलिया में चर्च के पुजारियों द्वारा किये गये यौन दुर्व्यवहार के लिए माफी मांगी।
धर्म युद्धों (क्रूसेड), बलात धर्म परिवर्तन, यहूदियों के प्रति दुर्व्यवहार आदि के लिए चर्च पहले ही प्रभु से क्षमादान मांग चुका है। 1995 में पोप जान पाल द्वितीय ने महिलाओं को सम्बोधित एक पत्र में यह स्वीकार किया कि प्राय: धर्म महिलाओं को हाशिये पर धकेलता रहा है और उन्हें गुलाम बनाता रहा है। इस्लाम के प्रति टिप्पणियों के लिए भी चर्च माफी मांग चुका है। इसके अलावा नाजियों का समर्थन और उन्हें बचाने तक में चर्च ने अपनी भूमिका की आलोचना की।
पोप को लगता है कि कहीं न कहीं जाकर इस पर रोक लगायी जानी चाहिए वर्ना धर्म के सभी गुनाहों के लिए माफी मांगने लगा जायेगा तो कई पोपों की पूरी जिंदगी इसी काम में होम हो जायेगी। अब दुनिया जाने या न जोने पर पोप तो जानते ही हैं कि ईसाई चर्च ने लोगों पर कितने अत्याचार किये हैं इसका अनुमान भी लगा पाना मुश्किल है।
लेकिन विज्ञान के साथ मामला थोड़ा पेचीदा है। अगर धर्म ग्रंथों में लिखी बातें सही हैं और सृष्टि का निर्माण करने वाले भगवान ने ही उन ग्रंथों को लिखा है तब तो उनकी बातें विज्ञान के स्तर पर भी खरी उतरनी चाहिए। लेकिन विज्ञान और धर्म का हमेशा ही 36 का आंकड़ा रहा है। अब अगर धर्म डार्विन और ब्रूनो और गैलिलियो से माफी मांगता है तो उसका आधार ही खिसक जायेगा और फिर धर्म को अपना औचित्य सिद्ध कर पाना मुश्किल हो जायेगा।
सूर्य पृथ्वी का चक्कर नहीं लगाता बल्कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है यह कहने के लिए ब्रूनो को जिन्दा जला दिया गया। यही बात कहने के लिए गैलीलियो पर तमाम तरह के जुल्म किये गये। जोन आफ आर्क को जिन्दा जला दिया गया। टॉमस मुंजर को चर्च का विरोध करने और किसानों को संगठित करने के लिए प्रताडि़त किया गया मार डाला गया और बाकी लोगों को सबक सिखाने के लिए उसके मृत शरीर को खुलेआम प्रदर्शित किया गया। इतिहास में चर्च के पुरोहित विलासियों का सा जीवन व्यतीत करते रहे हैं और हर वह कृत्य अंजाम देते रहे हैं जिनका वह आम जनता के लिए निषेध करते हैं।
प्रश्न यह उठता है कि यदि ब्रूनो और गैलीलियो ने सही बात कही था जिसे आज सारी दुनिया मानती है और यदि बाइबिल में लिखी बातें एकदम सही हैं तो चर्च ने उस समय इन दार्शनिकों को अपनी सत्ता के लिए खतरनाक क्यों माना और अब यदि चर्च अपनी गलती स्वीकार करता है तो इसका यही निष्कर्ष निकलता है कि बाइबिल में लिखी हर बात सही नहीं है और चर्च द्वारा कही गई हर बात को स्वीकार करने से पहले तर्क की कसौटी पर कसा जाना चाहिए।
पर ऐसा करने से धर्म का आधार ही कमजोर हो जायेगा। क्योंकि धर्म का आधार ही अज्ञानता और अतर्कपरकता पर टिका हुआ होता है। इसलिए चर्च ने इसका एक आसान तरीका निकाला और घोषणा कर दी कि चर्च ने कभी डार्विन का विरोध किया ही नहीं था। इसके भी आगे बढ़कर पोप ने यह भ्रम तक फैला दिया कि डार्विन की बातें बाइबिल के अनुरूप ही हैं और दोनों में कोई असंगतता नहीं है।
धर्म की सबसे बड़ी खूबी यही है कि कालान्तर में वह अपने विरोधियों को भी अपने अंदर समाहित कर लेता है बल्कि कभी जिन्हें जिन्दा जला दिया गया था बाद में उन्हें सन्त की उपाधि तक दे दी जाती है। और ऐसा सिर्फ ईसाई धर्म के साथ ही नहीं है सभी धर्म इस मामले में एक दूसरे को टक्कर देते हैं। सभी धर्मों ने मिलकर मानवता पर जितना जुल्म ढाया है उतना शायद ही किसी और कारण से हुआ होगा। सभी धर्म यही शिक्षा देते हैं कि संतोषी बनो, मालिक जो दे उसीमें सन्तोष करो, विरोध मत करो, रोटी मिले या न मिले लेकिन प्रभु के गुण गाओ। अपना शोषण करवाते रहो मगर शोषक के खिलाफ कोई कार्रवाई मत करो। ज्ञानी लोग जो कहते हैं वह करो अपनी अक्ल मत लगाओ, ज्यादा प्रश्न मत पूछो.... और इसके साथ ही धर्म यह धमकी भी देता है कि अगर ऐसा नहीं करोगे तो नर्क जाओगे तो जाओगे... उसके पहले यहीं धरती पर ही तुम्हारा वो हाल किया जायेगा कि मानवता दहल जायेगी। यानी कहा जा सकता है कि धर्म इंसान को न सिर्फ दिमागी गुलाम बनाता है बल्कि अपनी निरंकुश सत्ता का विरोध करने वालों को सबक सिखाने के लिए किसी भी अमानवीय स्तर तक उतर सकता है।
Wednesday, October 1, 2008
ग्रेजियानो की घटना
मेहनतकश साथियो,
ग्रेटर नोएडा की ग्रेजियानो कंपनी में उठे मजदूर असंतोष की लपट ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि पूंजीवादी शोषण की चक्की में पिस रहे देश के करीब 50 करोड़ मजदूर हमेशा चुप नहीं बैठे रहेंगे। घटना के बाद देश के श्रम मंत्री तक को यह स्वीकारना पड़ा कि देश भर के मजदूरों में भीतर ही भीतर असंतोष सुलग रहा है। यह बात गौर करने लायक है कि देश के उद्योग संगठनों की कड़ी प्रतिक्रिया के बाद श्रम मंत्री को अपना थूका हुआ चाटना पड़ा और उसे अपने मालिकों से माफी मांगनी पड़ी। पूंजी की चाकर इन सरकारों और मंत्रियों से भला और क्या उम्मीद की जा सकती है।
360 करोड़ रुपये का सालाना प्रोडक्शन देने वाले ग्रेजियानो के करीब 350 मजदूर एक साल से बपने हकों के लिए संघर्ष कर रहे थे। इनमें से अधिकांश पिछले 7-8 वर्षों से कार्यरत थे। मुनाफे की हवस का शिकार कंपनी मैनेजमेंट सोच रहा था कि जब बाजार में 2000-2500 रुपये पर काम करने वाले लोगों की भरमार है तो फिर पुराने मजदूरों को 6000 रुपये मासिक वेतन क्यों दिया जाये? यही सोचकर पुराने मजदूरों को निकाला जाने लगा। मजदूरों ने इसके खिलाफ श्रम विभाग, कंपनी मैनेजमेंट, जिला प्रशासन, गृह मंत्री और इटली की सरकार तक का दरवाजा खटखटाया लेकिन राजा भोज भला गंगू तेली की कहॉं सुनने वाले थे। मजदूरों की नामलेवा ट्रेड यूनियनों ने भी दलाली खाकर मालिकपरस्ती का नंगा प्रदर्शन किया।
इस तरह अपने हक की लड़ाई में मजदूर अलग-थलग पड़ गये। मौके का फायदा उठाते हुए कंपनी ने 22 सितंबर को समझौते के नाम पर मजदूरों से भविष्य में आंदोलन न करने और माफीनामा लिखने का दबाव बनाया। इंकार करने पर उन्हें कंपनी के गुण्डों ने पीटना शुरू कर दिया और इर लड़ाई में कंपनी का सीईओ मारा गया।
उसके बाद जो कुछ हुआ वह आम गरीबों और मजदूरों की पूंजीवादी न्याय और सुशासन की झूठी आस-उम्मीद को तार-तार कर देने के लिए काफी है। सैकड़ों मजदूरों को गिरु्फ्तार किया गया। देश के पूंजीपतियों, राजनीतिक पार्टियों, गली-कूचे के टटपूंजिये नेताओं और मीडिया एवं गद्दार ट्रेड यूनियन नेताओं ने मजदूरों को हत्यारा घोषित कर दिया। कहा गया चाहे जैसे भी हालात रहे हों मजदूरों को और बर्दाश्त करना चाहिए था। दुर्घटनावश हुई एक सीईओ की मौत पर इतना शोर मचाने वालों से यहॉं यह पूछा जाना चाहिए कि हर रोज काम के दौरान मरने वाले 6000 (पूरे विश्व में-ब्लागर) मजदूरों की मौत पर ये हमेशा क्यों खामोश रहते हैं?
देश के मजदूरों-मेहनतकशों को यह साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि पूंजी (मालिकों) और श्रम (मजदूरों) के बीच की इस लड़ाई में पूंजीपति और उनकी मैनेजिंग कमेटी यानी सरकार, पुलिस, कानून और गद्दार ट्रेड यूनियनें मजदूरों के खिलाफ एकजुट हैं। ऐसे हालात का मुकाबला करने के लिए मजदूर वर्ग को चाहिए कि किस्म-किस्म के चुनावबाज नेताओं और दलाल ट्रेड यूनियनबाजों का पिछलग्गू बनना बंद कर दें। मजदूरों को चाहिए कि वह सभी गरीबों-मेहनतकशों के साथ पूंजीवाद विरोधी क्रान्तिकारी आंदोलन के साथ आकर खड़े हों। और शोषण की संपूर्ण व्यवस्था के खात्मे को अपने जीवन का लक्ष्य बना लें। केवल तभी यह उम्मीद की जा सकती है कि मजदूरों की आने वाली पीढि़यां खुली हवा में आजादी की सांस ले सकेंगी।
Wednesday, September 24, 2008
हर साल 400,000 कामगारों की मौत पर चुप्पी लेकिन एक सीईओ की मौत पर इतना स्यापा
हर इन्सान की जान कीमती होती है। चाहे वह मज़दूर हो या पूँजीपति। पूँजीवादी जनतन्त्र भी इसे अपना आदर्श घोषित करता है लेकिन असलियत में इसे लागू नहीं करता। अपने जीवन से हर आदमी यह महसूस कर सकता है कि किस तरह विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया तक पैसेवालों की सेवा में लगे रहते हैं।
कल ग्रेटर नोएडा में एक कम्पनी के काम से निकाले गये मज़दूरों और कम्पनी के प्रबंधन और सुरक्षाकर्मियों के बीच हिंसक संघर्ष में कम्पनी के सीईओ की मौत हो गयी। इस घटना के द्वारा आइये इस व्यवस्था के विभिन्न खम्भों और समाज के विभिन्न वर्गों की मानसिकता की पड़ताल करने की कोशिश की जाये और कुछ निष्कर्षों पर पहुँचा जाये।
अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में काम के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं में प्रति वर्ष 400,000 कामगारों (प्रतिदिन तकरीबन 100 से ज्यादा) की मौत हो जाती है और इसके अतिरिक्त 350,000 कामगार काम सम्बन्धी बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं। कभी ब्वॉयलर फटने से तो कभी दीवार ढहने से तो कभी करेंट लगने से मज़दूरों की मौत होना आम बात है। सीवरों की सफ़ाई के दौरान अकसर ही सफ़ाई कर्मियों की मौत हो जाती है या वे बेहोश हो जाते हैं। ज्यादतर मज़दूरों की मौत उपयुक्त सुरक्षा उपकरणों के न होने से होती हैं। ख़तरनाक से ख़तरनाक काम भी हेल्मेट, जूतों और दस्तानों के बगैर ही मज़दूरों से करवाये जाते हैं। वास्तव में कितने मज़ूदूर काम के दौरान मरते हैं यह पता करना एक मुश्किल काम है, क्योंकि ज्यादातर कम्पनियॉं ठेकेदारी, दिहाड़ी और पीस रेट पर काम करवाती हैं और मज़दूरों का कोई लेखा-जोखा नहीं रखतीं। सच्चाई यह है कि शायद ही कोई कम्पनी सरकार द्वारा तय न्यूनतम मज़दूरी देती है और सरकार द्वारा तय सुरक्षा मानकों का पालन करती है। बहुत कम ही ऐसी कम्पनियॉं हैं जहॉं दुर्घटना के बाद फर्स्ट एड बाक्स तत्काल उपलब्ध हो सके। पीने के पानी, हवा, रोशनी, शौचालय जैसी बुनियादी ज़रूरतों पर भी कम्पनियॉं ध्यान नहीं देती हैं। और ऐसी स्थितियों में मज़दूरों से 12 से 14 घण्टे तक जबरदस्ती काम करवाया जाता है, गाली-गलौच की जाती है, महीनों-महीनों तक एक भी छुट्टी नहीं दी जाती। कम से कम पगार पर काम करवाया जाता है और उसका भी समय से भुगतान नहीं किया जाता और जब चाहा काम पर रखा जब चाहा निकाल बाहर किया।
पर यह सब मुद्दे कभी मुख्यधारा की चिन्ता का सबब नहीं बनते। किसी अख़बार की सुर्खी नहीं बनते किसी न्यूज चैनल पर जगह नहीं पाते। कोई सरकारी अधिकारी या मन्त्री इन पर कुछ नहीं बोलता। मरने वाले मज़दूर को मुआवज़ा मिला या नहीं उसके परिवार का क्या हुआ, उसके बच्चे कैसे जीयेंगे इन प्रश्नों पर शरीफ़ से शरीफ़ नागरिक भी बहुत चिन्ता और सरोकार से नहीं सोचता। सरकार सिर्फ कानून बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है और कानून कागजों में बन्द होकर रह जाते हैं।
लेकिन अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष करने वाले मज़दूरों के साथ झड़प में एक सीईओ की मौत पर पूरा मीडिया जगत छाती पीट रहा है। अधिकारी और मन्त्री बयान दे रहे हैं, पुलिस ने 136 से अधिक मज़दूरों को हिरासत में ले लिया है और 63 पर हत्या का आरोप लगाया है। उद्योगपतियों के संगठन एसोचैम और फिक्की ने इस हिंसक घटना की घोर निन्दा की है और मुजरिमों पर तत्काल और सख्त से सख्त कार्रवाई की मॉंग की है। एस्सोचैम के अध्यक्ष सज्जन जिंदल ने इसे एक क्रूरतापूर्ण जुर्म करार दिया है और पूँजीपतियों के इन संगठनों ने धमकी दी है कि इससे निवेशकों के बीच देश की छवि खराब होगी। इन संगठनों ने श्रम मन्त्री आस्कर फर्नांडीज को इसलिए लताड़ा है कि उन्होंने प्रबंधन से मजदूरों के साथ हमदर्दी बरतने को कहा। यह कहने के लिए निश्चित है कि श्रम मन्त्री को सरकार और '10 जनपथ' की तरफ से अभी और डॉंट पड़ेगी या पड़ चुकी होगी।
नंगे तौर पर देखा जा सकता है कि ये तमाम पूँजीवादी तन्त्र जो प्रतिवर्ष 400,000 मज़दूरों की मौत कुछ नहीं कहते एक सीईओ की मौत पर कैसे सक्रिय हो गये हैं। मजदूरों की मौत पर शायद ही किसी पूंजीपति, अधिकारी पर कोई कार्रवाई होती है और अगर होती भी है तो इतनी मामूली कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ता और मजदूरों की मौत का सिलसिला लगातार जारी रहता है। भोपाल गैस काण्ड जैसी विभत्स घटना के बीस साल बाद भी मुजरिमों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है और हजारों प्रभावित लोगों को राहत नहीं दी गई है। फिक्की, एस्सोचैम, सीआईआई इस बारे में कभी कुछ नहीं कहते। पर एक सीईओ की मौत पर उन्होंने तत्काल हंगामा खड़ा कर दिया यह जाने बगैर कि गलती किसकी थी। एक कहावत है कि ताकतवर कभी गलत नहीं होता, गलती हमेशा कमजोर की ही होती है।
तो इस सबसे क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि इस व्यवस्था में मज़दूरों और आम लोगों की जिन्दगी की कोई क़ीमत नहीं है और तब फिर क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि मज़दूरों को इस व्यवस्था से कोई उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए...।
Friday, September 19, 2008
सरकार स्वयं शोषण की एक मशीनरी है...
पर इस खेल के पीछे के तर्क को समझने का प्रयास करें तो शोषण के एक व्यापक तंत्र का खुलासा होता है। वैसे तो शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार तथा आवास की बुनियादी सुविधाएं सरकार द्वारा लोगों को मुहैया करवायी जानी चाहिए। लेकिन पूरे विश्व के स्तर पर कहीं ऐसा नहीं हो रहा है। दुनिया भर में सरकारें अपने सामाजिक दायित्वों से हाथ खींच रही हैं और उन्हें निजी क्षेत्र की लूट के लिए उनके हवाले कर रही हैं। जो लोग यह कहते हैं कि निजी क्षेत्र की भागीदारी से सिस्टम में सुधार होता है उनके मुंह पर तमाचा मारने वाले कई तथ्य अबतक उजागर हो चुके हैं। शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रवेश के बाद से यह क्षेत्र विशुद्ध उद्योग बन चुका है। जिसके बाप के पास पैसा है वह शिक्षा पाये जिसके बाप के पास पैसा नहीं है वह भाड़ में जाये। स्वास्थ्य के क्षेत्र में आलम यह है कि विदेशों के लोग भारत आकर इलाज करवा रहे हैं और होटलों की तर्ज पर ऐशो आराम की सुविधाएं देने वाले निजी अस्पतालों का कम कीमत पर लाभ उठा रहे हैं और अपने देश में बड़ी संख्या में लोग मलेरिया, चेचक और पोलियो जैसी छोटी-छोटी बीमारियों से मर रहे हैं। दवा निर्माण और वितरण उद्योग का यह हाल है कि कुल बिकने वाली दवाओं का एक तिहाई नकली दवाएं होती हैं।
आवास का भी यही हाल है। जमीन का कोई भी टुकड़ा प्राइवेट बिल्डरों की नजर से बचा नहीं है। पलक झपकते इमारतें खड़ी हो जाती हैं और फ्लैट बिक जाते हैं। न नक्शे की चिन्ता, न सुरक्षा मानकों की और न नियम-कानून की। सरकारी तंत्र सब जानता है कि कौन अपराधी है लेकिन
वह कुछ नहीं करता क्योंकि ये अपराधी उसकी जेब गरम करते हैं और वह स्वयं इन अपराधों में बराबर का हिस्सेदार है।
पर सबसे मजेदार बात यह नहीं है। सबसे मजेदार बात यह है कि वास्तव में जिन सुविधाओं के लिए सरकार होती है और जिनका वायदा वह लोगों से करती है उनके लिए भी वह लोगों से ही शुल्क वसूल करने लगी है। और वह भी संवैधानिक तरीके से। इसके अलावा जो काली कमाई सरकारी अफसर करते हैं वह अलग है। अगर डीडीए के 5010 फ्लैटों के मामले में यह हाल है तो कल्पना की जा सकती है कि पूरे देश के स्तर पर इस तरह की कारगुजारी से केन्द्र और राज्य सरकारें आम लोगों से कितनी कमाई करती हैं। और प्रत्यक्ष करों के अलावा यह उन तमाम छोटी-छोटी साबुन-तेल जैसी चीजों पर लगने वाले परोक्ष करों के अलावा की जाने वाली कमाई है। बिना हाथ-पैर चलाये बैठे बिठाये की जाने वाली कमाई है।
केन्द्र और राज्य सरकारों के मंत्री कोई उत्पादक कार्रवाई तो करते नहीं। भारी-भरकम नौकरशाही के पास कलम घिसने के अलावा बस चापलूसी और गप्पबाजी का काम होता है। उतना ही भारी पुलिस और फौज का तंत्र है जो स्पष्टत: अमीरों की सेवा और सुरक्षा के लिए होता है और इसी काम के लिए उसे खिलाया पिलाया जाता है। तो कुल मिलाकर इन सबका बोझ उत्पादन करने वाली आम जनता को ही उठाना होता है। और यह वही आम जनता है जिसके लिए एक स्कूल या एक अस्पताल खोलने में सरकार को नानी याद आ जाती है। इन सभी अनुत्पादक वर्गों का बोझ उठाने वाली यह वही जनता है जिसे एक छोटा से काम कराने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ता है, घूस देनी पड़ती है और सिफारिशें लगवानी पड़ती हैं तब जाकर कहीं फाइल सरकती है।
पूंजीवादी जनतंत्र अब अपने सारे नकाब उतारकर पूरी नंगई पर उतर आया है। अब तो वह समाजवाद या कल्याणकारी राज्य की बात भी नहीं करता। भूल जाओ की संविधान में अब भी भारत एक समाजवादी राज्य है। हालांकि सच्चाई तो यह है कि 1950 में भी भारत न तो समाजवादी था और न उसे ऐसा बनाने की कोशिश की गई। यह शब्द तो महज एक छलावा था जिससे कि लोगों की गाढ़ी कमाई को सरकारी उपक्रमों में लगा कर आर्थिक अवरचनागत ढांचा खड़ा किया जाये क्योंकि उस समय देशी पूंजीपति वर्ग की इतनी औकात नहीं थी कि खुली प्रतियोगिता में वह विदेशी पूंजीपतियों के आगे ठहर पाता। उस समय सरकार स्वयं एक पूंजीपति थी जो जनता की मेहनत की अतिरिक्त कमाई को हड़प जाती थी और लोगों में कुछ प्रसाद बॉंट देती थी। धीरे-धीरे उसने यह भी करना बन्द कर दिया। अब सरकार बस शोषण करती है, खून चूसती है और पूंजीपतियों को छूट देती है कि वे जनता का खून चूसें और लोगों के लिए उसे कुछ करना भी पड़ता है तो बस इस डर से कि कहीं लोग विद्रोह न कर दें और कहीं विदेशों में उसकी बदनामी न हो जाये।
Tuesday, September 16, 2008
अमेरिका का भारत प्रेम और परमाणु करार
हमारे देश के उद्योगपति भी इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहते। अमेरिका की मजबूरी को समझते वे अपने लिए ज्यादा से ज्यादा बटोरने लेना चाहते हैं। पूरी दुनिया की बंदरबांट में आज भारतीय पूंजीपति भी दुनिया भर के पूंजीपतियों के साथ होड़ करने लगे हैं और दुनिया भर की सरकारें विश्व के मंच पर अपने अपने देश के पूंजीपतियों की पैरवी कर रही हैं। और यही उनका असली काम भी होता है।
भारतीय पूंजीपति वर्ग बहुत सधे हुए कदमों के साथ दुनिया के रंगमंच पर उभर रहा है। आजादी के पहले कांग्रेसी नेतृत्व में दबाव और समझौते की नीति का पालन करते हुए और देश के विशाल उत्पादक वर्ग के श्रम का क्रूर दोहन करते हुए उसने अपनी तिजोरियां भर ली हैं और दुनिया भर के पूंजीपतियों के साथ दो-दो हाथ करने के लिए मैदान में उतर पड़ा है। हमारे देश के निवासी देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत होकर इन पूंजीपतियों का यशोगान कर रहे हैं लेकिन उन्हें इसका अंदाजा नहीं है कि पूंजीवाद का यह बौना राक्षस खुद उनका ही खून चूस रहा है।
इतिहास पर गौर करें तो पायेंगे कि अमेरिका के प्रेम में फंसने वाले देशों की बड़ी बुरी गति हुई है। इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान लातिन अमेरिका के तमाम देश इसका उदाहरण हैं। हालांकि भारत का शासक पूंजीपति वर्ग दुनिया के सबसे चालाक शासक वर्गों में से एक है और वह काफी आगा पीछा देखने के बाद ही कोई फैसला करेगा लेकिन आम जनता को इन तमाम करारों से कुछ भी नहीं मिलने वाला। परमाणु ऊर्जा से उनके घर का बल्ब नहीं टिमटिमाएगा। लेकिन भारत के बड़े पूंजीपतियों को इससे जरूर काफी फायदा होगा।
Wednesday, September 10, 2008
स्विस बैंक के खातों में है ट्रिकल डाउन इफेक्ट का राज़
लेकिन हकीकत में ऐसा कहीं देखने को नहीं मिलता। एक तरफ देश की लगभग तीन चौथाई आबादी बेहद गरीबी (बीस रुपया रोज से कम) में गुजारा करती है वहीं धनिकों की काली कमाई का आलम यह है कि स्विस बैंकों में भारतीयों के 1456 अरब डालर जमा हैं। ये हमारे देश के वे पूंजीपति, राजनेता, नौकरशाह लोग हैं जो सत्ता को अपनी जेब में रखे हुए हैं। जिनकी काली कमाई का कोई ओरछोर नहीं है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उनपर कोई अंकुश लगाने वाला नहीं है। क्योंकि उन्हीं का शासन है उन्हीं की संसद और विधानसभाएं हैं उन्हीं की कोर्ट कचहरियां हैं और पुलिस प्रशासन सब उन्हीं की सेवा के लिए है।
स्विस बैंकों में जमा भारतीयों की यह रकम हमारे देश के जीडीपी से भी ज्यादा है। और हमारे देश पर कुल विदेशी कर्ज से भी बहुत ज्यादा है। यह नतीजा है उस अंधेर राज का जिसमें पूंजीपतियों और बड़े लोगों को देश की जनता और संसाधनों की खुली लूट करने की छूट दे दी गई है। पूंजीपतियों को मजदूरों का खून चूसकर मुनाफा लूटने की छूट सरकार ने दे ही दी है उनकी कानूनी कमाई पर तमाम तरह की छूट के विकल्प भी सरकार ने बना रखे हैं। पूंजीपतियों की कमाई पर तमाम किस्म की राहत (करोड़ों रुपये के टैक्स में छूट, सस्ती बिजली पानी आदि) दी जाती है और साबुन तेल से लेकर आटे दाल तक पर परोक्ष रूप से लगाए करों से आम जनता को पीस दिया जाता है।
देश की तीन चौथाई जनता अमानवीय परिस्थितियों में जीने को मजबूर है। ट्रिकल डाउन इफेक्ट व्यवहार में कहीं लागू होता नजर नहीं आ रहा है। सही बात तो यह है कि आज आम आदमी की परिभाषा ही बदल दी गई है। बुर्जुआ सत्ता का आम आदमी वह है जो मालों में जाता है, मेट्रों में सफर करता है एटीएम कार्ड से पैसा निकालता है और इन्कम टैक्स देता है। थोड़ी बहुत जुगत भिड़ाकर जो एक मोटरसाइकिल और जनता फ्लैट तो कम से कम खरीद ही लेता है। बाकी बहुलांश आबादी के लिए आज बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। एनजीओ के भ्रामक जाल से गरीब आबादी को बहलाने फुसलाने और उनके विरोध पर ठंडे पानी के छींटे मारने का उपाय किया तो गया है मगर वह भी कब तक कारगर होगा।
बुद्धिजीवियों को भले ही देर से समझ में आए मगर जनता तो किताबें पढ़े बिना भी अर्थशास्त्र की काफी जानकारी रखती है। और वह यह सब तमाशा देख भी रही है...
Sunday, March 23, 2008
शहीदे आज़म भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के 77वें शहादत दिवस के अवसर पर
शहीदे आज़म भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस पर इससे बेहतर क्या हो सकता है कि हम उन महान क्रान्तिकारियों को न सिर्फ स्मरण करें, बल्कि उनके त्याग और बलिदान से प्रेरणा लेकर उनके सपनों को साकार करने का संकल्प लें।
भगतसिंह और उनके साथियों ने जिनमें चंद्रशेखर आज़ाद, यतींद्रनाथ दास, भगवतीचरण वोहरा, दुर्गा भाभी और कई अन्य क्रान्तिकारी शामिल थे, एक ऐसे आज़ाद भारत का सपना देखा था जहां हर मनुष्य को उसकी बुनियादी जरूरतें हासिल हों, जहां देश का शासन एक छोटे से शोषक वर्ग के बजाय जनता के बहुलांश के हाथ में हो, यानि वे समानता पर आधारित एक समाज बनाना चाहते थे। तेइस वर्ष की अल्पायु में ही देश-दुनिया के तमाम साहित्य को पढ़ने, इतिहास का अध्ययन करने और ऐतिहासिक क्रान्तियों और आन्दोलनों से परिचित होने के बाद भगतसिंह और उनके साथी इस बात पर दृढ़मत थे कि सिर्फ एक समाजवादी व्यवस्था ही आम जनता को वास्तविक अर्थों में उसके सामाजिक-आर्थिक अधिकार दे सकती है और मौजूदा दौर में वही एक प्रगतिशील व्यवस्था हो सकती है। भगतसिंह ने कहा था कि सिर्फ शोषकों की चमड़ी का रंग बदल जाने से लोगों की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। गोरे अंग्रेज चले जायेंगे और उनकी जगह काले अंग्रेज देश की जनता पर अत्याचार करेंगे।
भगतसिंह भारत के बौद्धिक पिछड़ेपन से भी अच्छी तरह वाकिफ थे और इसिलिये उन्होंने नौजवानों को यह संदेश दिया कि बम-पिस्तौल उठाने के बजाय उन्हें गांव, बस्तियों, कारखानों में जाकर लोगों को शिक्षित करना चाहिए, उन्हें संगठित और गोलबंद करना चाहिए और उन्हें अपने अधिकारों के लिए सचेतन संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इसके लिए एक राजनीतिक पार्टी की जरूरत पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि ऐसी पार्टी की रीढ़ वे पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने चाहिए जो क्रान्ति को अपने जीवन का मकसद बना लें।
भगतसिंह के लिए क्रान्ति का अर्थ था जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। इसके लिए वे जनदिशा के अमल पर जोर देते थे। वे कुछेक बहादुर नौजवानों की कुर्बानी के द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के बजाय लोगों की संगठित पहलकदमी पर जोर देते थे। उनका मानना था कि एक बार अगर विचार जनता तक पहुंच जायें तो लोग स्वयं सही गलत का फैसला कर सकेंगे। जनान्दोलनों के माध्यम से जनता संघर्ष करना और शासन सूत्र संभालना सीखेगी और एक ऐसा समाज बनेगा जिसमें शासन और राज-काज आम मेहनतकश वर्गों के हाथों में होगा। यह रास्ता निश्चित रूप से लम्बा होगा और यह असीम कुर्बानियों की मांग करेगा। और इसकी सबसे अहम जिम्मेदारी नौजवानों के कंधों पर होगी। भगतसिंह जानते थे कि कोई भी शोषक वर्ग अपनी मर्जी से सत्ता से नहीं हटेगा बल्कि उसे बलपूर्वक सत्ता से बेदखल करना पड़ेगा। वे मानते थे कि क्रान्तिकारी हिंसा के बिना ऐसा करना असंभव होगा। मगर वे बंदूक की संस्कृति के विरोधी थे। उनका कहना था कि क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है। बन्दूक को विचारों के अधीन होना चाहिए। मानवीय जीवन को वे अमूल्य मानते थे पर वे अहिंसा के पुजारी नहीं थे। किसी बुर्जुआ भाववादी या रोमानी क्रान्तिकारी के विपरीत इस प्रश्न पर उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण था।
भगतसिंह और उनके साथियों के सपने आज भी अधूरे हैं। हमारे देश की बहुलांश आबादी 20 रुपये रोज से कम पे गुजारा करती है। आज न सिर्फ मेहनतकशों को अमानवीय परिस्थितियों में उजरती गुलामी करती पड़ रही है बल्कि अब तो उनकी किडनियां और खून भी निकालकर बाजार में बेचा जा रहा है और मुजरिम साफ बच निकलते हैं। व्यापक आबादी महज उत्पादन के एक औजार में तब्दील हो गई है और उसकी मानवीय जरूरतों को भी पूरा नहीं किया जा रहा है। मुनाफे पर टिकी एक व्यवस्था में ऐसा हो भी नहीं सकता है। आज अगर मनुष्यता को बचाना है, प्रक्रति को तबाह होने से बचाना है आने वाली पीढियों के भविष्य को बचाना है तो आज हमारे पास इसके सिवा और कोई विकल्प नहीं कि हम शहीदे आजम भगतसिंह के विचारों को अमल में उतारने का संकल्प लें। इंकलाब को सिर्फ एक शब्द के बजाय अपने जीने का तरीका बना लें। भगतसिंह और उनके सभी साथियों के प्रति यही एकमात्र सच्ची श्रद्धाजंलि हो सकती है।
जीवन का उद्देश्य
- शहीदे आज़म भगतसिंह की जेल नोटबुक से
अधिकार
- शहीदेआज़म भगत की जेल नोटबुक से