Sunday, March 23, 2008

शहीदे आज़म भग‍तसिंह, राजगुरु और सुखदेव के 77वें शहादत दिवस के अवसर पर

शहीदे आज़म भगतसिंह और उनके सा‍थियों के 77वें शहादत दिवस के अवसर पर

शहीदे आज़म भग‍तसिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस पर इससे बेहतर क्‍या हो सकता है कि हम उन महान क्रान्तिकारियों को न सिर्फ स्‍मरण करें, बल्कि उनके त्‍याग और बलिदान से प्रेरणा लेकर उनके सपनों को साकार करने का संकल्‍प लें।
भग‍तसिंह और उनके साथियों ने जिनमें चंद्रशेखर आज़ाद, यतींद्रनाथ दास, भगवतीचरण वोहरा, दुर्गा भाभी और कई अन्‍य क्रान्तिकारी शामिल थे, एक ऐसे आज़ाद भारत का सपना देखा था जहां हर मनुष्‍य को उसकी बुनियादी जरूरतें हासिल हों, जहां देश का शासन एक छोटे से शोषक वर्ग के बजाय जनता के बहुलांश के हाथ में हो, यानि वे समानता पर आधारित एक समाज बनाना चाहते थे। तेइस वर्ष की अल्‍पायु में ही देश-दुनिया के तमाम साहित्‍य को पढ़ने, इतिहास का अध्‍ययन करने और ऐतिहासिक क्रान्तियों और आन्‍दोलनों से परिचित होने के बाद भगतसिंह और उनके साथी इस बात पर दृढ़मत थे कि सिर्फ एक समाजवादी व्‍यवस्‍था ही आम जनता को वास्‍तविक अर्थों में उसके सामाजिक-आर्थिक अधिकार दे सकती है और मौजूदा दौर में वही एक प्रगतिशील व्‍यवस्‍था हो सकती है। भग‍तसिंह ने कहा था कि सिर्फ शोषकों की चमड़ी का रंग बदल जाने से लोगों की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। गोरे अंग्रेज चले जायेंगे और उनकी जगह काले अंग्रेज देश की जनता पर अत्‍याचार करेंगे।
भग‍तसिंह भारत के बौद्धिक पिछड़ेपन से भी अच्‍छी तरह वाकिफ थे और इसिलिये उन्‍होंने नौजवानों को यह संदेश दिया कि बम-पिस्‍तौल उठाने के बजाय उन्‍हें गांव, बस्तियों, कारखानों में जाकर लोगों को शिक्षित करना चाहिए, उन्‍हें संगठित और गोलबंद करना चाहिए और उन्‍हें अपने अधिकारों के लिए सचेतन संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इसके लिए एक राजनीतिक पार्टी की जरूरत पर बल देते हुए उन्‍होंने कहा कि ऐसी पार्टी की रीढ़ वे पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने चाहिए जो क्रान्ति को अपने जीवन का मकसद बना लें।
भगतसिंह के लिए क्रान्ति का अर्थ था जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। इसके लिए वे जनदिशा के अमल पर जोर देते थे। वे कुछेक बहादुर नौजवानों की कुर्बानी के द्वारा सत्‍ता पर कब्‍जा करने के बजाय लोगों की संगठित पहलकदमी पर जोर देते थे। उनका मानना था कि एक बार अगर विचार जनता तक पहुंच जायें तो लोग स्‍वयं सही गलत का फैसला कर सकेंगे। जनान्‍दोलनों के माध्‍यम से जनता संघर्ष करना और शासन सूत्र संभालना सीखेगी और एक ऐसा समाज बनेगा जिसमें शासन और राज-काज आम मेहनतकश वर्गों के हाथों में होगा। यह रास्‍ता निश्चित रूप से लम्‍बा होगा और यह असीम कुर्बानियों की मांग करेगा। और इसकी सबसे अहम जिम्‍मेदारी नौजवानों के कंधों पर होगी। भगतसिंह जानते थे कि कोई भी शोषक वर्ग अपनी मर्जी से सत्‍ता से नहीं हटेगा बल्कि उसे बलपूर्वक सत्‍ता से बेदखल करना पड़ेगा। वे मानते थे कि क्रान्तिकारी हिंसा के बिना ऐसा करना असंभव होगा। मगर वे बंदूक की संस्‍कृति के विरोधी थे। उनका कहना था कि क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है। बन्‍दूक को विचारों के अधीन होना चाहिए। मानवीय जीवन को वे अमूल्‍य मानते थे पर वे अहिंसा के पुजारी नहीं थे। किसी बुर्जुआ भाववादी या रोमानी क्रान्तिकारी के विपरीत इस प्रश्‍न पर उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण था।
भग‍तसिंह और उनके साथियों के सपने आज भी अधूरे हैं। हमारे देश की बहुलांश आबादी 20 रुपये रोज से कम पे गुजारा करती है। आज न सिर्फ मेहनतकशों को अमानवीय परिस्थितियों में उजरती गुलामी करती पड़ रही है बल्कि अब तो उनकी किडनियां और खून भी निकालकर बाजार में बेचा जा रहा है और मुजरिम साफ बच निकलते हैं। व्‍यापक आबादी महज उत्‍पादन के एक औजार में तब्‍दील हो गई है और उसकी मानवीय जरूरतों को भी पूरा नहीं किया जा रहा है। मुनाफे पर टिकी एक व्‍यवस्‍था में ऐसा हो भी नहीं सकता है। आज अगर मनुष्‍यता को बचाना है, प्रक्रति को तबाह होने से बचाना है आने वाली पीढियों के भविष्‍य को बचाना है तो आज हमारे पास इसके सिवा और कोई विकल्‍प नहीं कि हम शहीदे आजम भग‍तसिंह के विचारों को अमल में उतारने का संकल्‍प लें। इंकलाब को सिर्फ एक शब्‍द के बजाय अपने जीने का तरीका बना लें। भगतसिंह और उनके सभी साथियों के प्रति यही एकमात्र सच्‍ची श्रद्धाजंलि हो सकती है।

जीवन का उद्देश्‍य

जीवन का उद्देश्‍य मन को नियंत्रित करना नहीं बल्कि उसका सुसंगत विकास करना है, मरने के बाद मोक्ष प्राप्‍त करना नहीं, बल्कि इस संसार में ही उसका सर्वोत्‍तम इस्‍तेमाल करना है, केवल ध्‍यान में ही नहीं, बल्‍ि‍क दैनिक जीवन के यथार्थ अनुभव में भी सत्‍य, शिव और सुन्‍दर का साक्षात्‍कार करना है, सामाजिक प्रगति कुछेक की उन्‍नति पर नहीं, बल्कि बहुतों की समृद्धि पर निर्भर करती है, और आत्मिक जनतंत्र या सार्वभौमिक भ्रातृत्‍व केवल तभी प्राप्‍त किया जा सकता है, जब सामाजिक-राज‍नीतिक और आद्योगिक जीवन में अवसर की समानता हो।
- शहीदे आज़म भग‍तसिंह की जेल नोटबुक से

अधिकार

अधिकार मांगो नहीं। बढ़कर ले लो। और उन्‍हें किसी को भी तुम्‍हें देने मन दो यदि मुफ्त में तुम्हें कोई अधिकार दिया जाता है तो समझो कि उसमें कोई न कोई राज़ ज़रूर है। ज्‍़यादा सम्‍भावना यही है कि किसी गलत बात को उलट दिया गया है।
- शहीदेआज़म भगत की जेल नोटबुक से