Thursday, March 26, 2009

सवर्ण मानसिकता से ग्रस्‍त दलित चेतना

हाल ही में 'आज समाज' अखबार में छपी एक छोटी सी खबर का जिक्र करना चाहता हूं। अखबार की खबर के अनुसार फोरम आफ एकेडमिक्स फार सोशल जस्टिस की ओर से दिल्ली में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में श्री हरबंस नाम के एक वक्ता ने जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल होने के कारण राहुल फाउंडेशन, लखनऊ से प्रकाशित रंगनायकम्मा की पुस्तक '''जाति' प्रश्न के समाधान के लिए बुद्ध काफी नहीं, अंबेडकर भी काफी नहीं, मार्क्स जरूरी हैं' पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। श्री हरबंस ने और क्या कहा इसकी अखबार में कोई चर्चा नहीं है और फिलहाल मैं उसपर कोई टिप्पणी भी नहीं कर रहा हूं, मैं सिर्फ जातिसूचक शब्दों के प्रयोग पर आपत्ति के पीछे काम करने वाली मानसिकता पर कुछ बातें करना चाहता हूं।
सबसे पहले तो मैं ऐसा आरोप लगाने वाले सम्मानित बुद्धिजीवी से पूछना चाहता हूं कि क्या जाति प्रश्न पर कोई किताब जातियों का नाम लिए बिना लि‍खी जा सकती है। क्या बुद्ध और अंबेडकर ने खास जाति के लोगों को संबोधित करने के लिए जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है। मान लीजिये कि किसी तथाकथित निम्‍न जाति (यहां यह स्पष्टत कर दें कि न तो रंगनायकम्मा और न ही ब्लागर उन्हें निम्न मानता है, ऐतिहासिक कारणों से मुझे ऐसी शब्दावली का प्रयोग करना पड़ रहा है) के लोगों का एक संगठन है, तो यदि उससे पूछा जाए कि आप कौन हैं तो क्या इसका जवाब यह होना चाहिए कि हम ऐसी जाति के लोगों का संगठन हैं जिसका नाम लेने से हमपर और आपपर जातिसूचक शब्द के इस्तेमाल का आरोप लग सकता है।
और संविधान किस तरह जातियों को आरक्षण देता है। क्या वह जातियों का नाम लिए बिना और जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किए बिना आरक्षण की बात करता है। और जो लोग आरक्षण का लाभ प्राप्त‍ करते हैं क्या उनके प्रमाणपत्र पर जाति का उल्लेख नहीं होता है। अगर जातिसूचक शब्दों के प्रयोग के आधार पर प्रतिबंध लगाया जाए तो तमाम धार्मिक ग्रंथ जिनमें बौद्ध ग्रंथ भी शामिल हैं उनपर भी प्रतिबंध लगाना पड़ेगा क्योंकि उनमें तो अनेकों बार तमाम ऊंची-नीची जातियों का उल्लेख आता है।
असल में मामला यह है कि ऐसी मांग करने वाले हमारे बुद्धिजीवी जातियों के संबंध में स्वयं ही उसी मानसिकता से ग्रस्त हैं जिसका वे दूसरों पर आरोप लगाते हैं। आखिर रंगनाकम्मा ने जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किसी जाति विशेष को गाली देने के लिए तो किया नहीं है, बल्कि उनके समर्थन में किया है। वे तो यहां तक कहती हैं कि किसी ''निचली'' जाति का होना अपमान का नहीं बल्कि सम्मान की बात है क्योंकि इन जातियों के लोग दूसरों का शोषण करके नहीं बल्कि अपनी मेहनत के दम पर जीते हैं। लेकिन हमारे बुद्धिजीवी ऐसा नहीं सोचते। वे यह नहीं सोचते कि जबतक समाज में किसी काम को छोटा और किसी काम को बड़ा समझने की मानसिकता बनी रहेगी और इस आधार पर लोगों में सामाजिक विभाजन बने रहेंगे तब तक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी खास वर्ग को संबोधित करने के लिए किस शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। जब तक विभाजन रहेगा उस विभाजन को व्यक्त करने वाले शब्द भी रहेंगे ही रहेंगे, इसे किसी ताकत या कानून से रोका नहीं जा सकता। आज के शब्द कल न रहें तो भी वह काम और उस काम को करने वाले लोग तो रहेंगे ही। और उनको पुकारने के लिए किसी न किसी शब्द का प्रयोग तो करना ही पड़ेगा।
सच्चाई यह है कि जिन्हे ''निचली'' जातियां कहा जाता है वे ज्यादातर वे जातियां हैं जो शारीरिक श्रम करती हैं जिनके श्रम के बिना पूरा का पूरा समाज एक दिन भी चल नहीं सकता। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि इन जातियों को अपने पर फख्र महससू करना चाहिए। लेकिन चूंकि समाज पर बौद्धिक श्रम (वास्तव में निठल्लापन) करने वालों का प्रभुत्व रहा है इसलिए वे इस तरह के शारीरिक काम को हेय समझते हैं, और स्वयं करना तो दूर जो करते हैं उन्हें नीची नजर से देखते हैं। ऐसे में जिन शब्दों के साथ अपने को जोड़कर किसी इंसान को सम्मांनित महससू करना चाहिए उन शब्दों के प्रयोग पर हमारे बुद्धिजीवी आपत्ति करते हैं। क्या इससे यह निष्किर्ष नहीं निकलता कि हमारे सम्मानित बुद्धिजीवी भी श्रम के संदर्भ में उसी सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त हैं।
दलित बुद्धिजीवियों और अन्य पढ़े-लिखे दलितों के साथ एक समस्या तो यह भी है कि वे अपनी जाति को लेकर स्व्यं ही हीन भावना के शिकार रहते हैं। अपनी जाति के लोगों को अपने पेशे पर सम्मानित महसूस करने के लिए प्रोत्सांहित करने के बजाय उनकी मंशा बस इतनी होती है कि बुद्धिजीवी और मध्यम वर्ग का हो जाने के बाद उन्हें उनकी जाति से जोड़कर न देखा जाए। अपने बराबर की हैसियत वाले समाज में (धन पर आधारित बराबरी) उन्हें अगड़ी जातियों के बराबर का समझा जाए। दलित पूंजीवाद की वकालत करने वाले लोगों का भी यही अप्रोच है कि दलितों में ही कुछ अमीर और गरीब दलित हो जाएं। तो यह प्रश्न भी उठता है कि दलित जातियों के अमीर उन दलितों को क्या हेय नहीं समझेंगे जो अपने पुराने पेशे में ही रह जाएंगे। क्या कोई अमीर दलित किसी गरीब दलित के परिवार के साथ वैवाहिक संबंध बनाना चाहेगा। और अगर इस प्रश्न का उत्तर नहीं है तो क्या इससे सिद्ध नहीं हो जाता कि आज की परिस्थिति में जाति प्रश्न का समाधान संपत्ति के प्रश्न को हल किए बिना नहीं किया जा सकता। और इसी से क्या यह सहज निष्कर्ष भी नहीं निकलता है कि जाति प्रश्‍न के समाधान के लिए मार्क्स‍ जरूरी हैं।
मजेदार बात तो यह है कि जहां जातिसूचक शब्दों के इस्तेमाल पर इतना हो हल्ला मचता है उस देश में तमाम सरकारी कागजों पर जाति का कॉलम बना होता है। जिनमें बहुत से सरकारी कागज तो ऐसे होते हैं जिनमें किसी व्यक्ति की जाति पूछने का कोई औचित्य ही नहीं होता। जैसे कि किराए पर मकान लेते समय पुलिस वेरिफिकेशन के लिए प्रयोग किया जाने वाला कागज।

अगली पोस्ट में मैं इस बात पर फोकस करूंगा कि आज समाज में पेशे के आधार पर जाति विभाजन का कोई औचित्य नहीं रह गया है, क्योंकि चाहे निम्न जाति का लड़का हो या उच्च जाति का अगर वह गरीब है तो वह शहर आकर फैक्ट्री में काम करेगा अपने पुरखों का पेशा तो करेगा नहीं। इसलिए तर्कसंगत ढंग से देखें तो पेशे पर आधारित जातियों के विभाजन की व्यावस्था पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के साथ फिट नहीं होती। लेकिन फिर भी ऐसा है, तो इसके क्या कारण हैं। वे कौन हैं जिनका हित जाति व्यीवस्था को बनाए रखने में है या कहें कि जाति व्यणवस्था किनका हित साधन करती है।