Wednesday, October 22, 2008

ग्रेजियानो की घटना : छद्म मानवतावादियों के मुंह पर तमाचा मारती सच्‍चाईयां

ग्रेजियानो की घटना पर कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा जांच-पड़ताल से उभरे तथ्‍य।

22 सितम्बर की घटना और उसकी पृष्ठभूमि

सरलीकोन ग्रेज़ियानो ट्रांसमिशन इण्डिया इटली की एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी की सबसिडियरी है। यहां बड़ी मशीनों के गियर, एक्सेल आदि बनाये जाते हैं। इसके अधिकांश उत्पाद अमेरिका-इटली के बाजारों में बिकते हैं। 2003 में 20 करोड़ से कम की पूंजी से शुरू की गयी इस कम्पनी की पूंजी 2008 में बढ़कर 240 करोड़ रुपये हो चुकी है। यह ज़बर्दस्त मुनाफ़ा मज़दूरों के भयंकर शोषण की बदौलत ही सम्भव हुआ था।

फैक्ट्री में 12-12 घण्टे की दो शिफ्टों में दिनों-रात काम होता था। ओवरटाइम अनिवार्य था और कोई साप्ताहिक छुट्टी नहीं दी जाती थी। इसे मानने से इंकार करने वाले मज़दूरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था। शुरू में 350 स्थायी मज़दूरों को आपरेटर-कम-सेटलर के तौर पर रखा गया था और 80 अप्रेंटिस/ट्रेनी थे। करीब 500 मज़दूर लेबर कांट्रैक्टरों के मातहत काम करते थे। पिछले कुछ सालों से बिना कारण बताये मज़दूरों की बीच-बीच में छँटनी की जा रही थी। उनको कोई ज्वॉयनिंग लेटर नहीं दिया जाता था। गलत ढंग से कार्ड पंच करके उनके वेतन और ओवरटाइम से भारी कटौती की जा रही थी। सवाल उठाने पर मैनेजरों की मार-गाली इनाम में मिला करती। इन हालात से तंग आकर पहले-पहल मज़दूरों ने नवम्बर 2007 में यूनियन बनाने की कोशिश शुरू की। इसकी भनक लगते ही कम्पनी ने 3 मज़दूरों के फैक्ट्री में घुसने पर रोक लगा दी और एक को बर्खास्त कर दिया। कानुपर स्थित रजिस्ट्रार कार्यालय ने भी कम्पनी मैनेजमेण्ट की शह पर तरह-तरह के हथकण्डों से यूनियन के गठन को लटकाये रखा।

दिसम्बर 2007 में मैनेजमेण्ट के रवैये के विरुद्ध आन्दोलन करने पर 100 और मज़दूरों को बाहर कर दिया गया। लम्बे आन्दोलन के बाद 24 जनवरी, 2008 को कम्पनी ने साप्ताहिक छुट्टी और 1200 रु. वेतनवृद्धि की बात मान ली। लेकिन इस समझौते के तुरन्त बाद कम्पनी ने स्थानीय ठेकेदारों के मातहत 400 नये मज़दूर ठेके पर रख लिये जो फैक्ट्री परिसर के भीतर ही रहते थे। 400 मज़दूरों के इस ''कैप्टिव फोर्स'' के दम पर इन ठेकेदारों ने पहले से काम कर रहे मज़दूरों को धमकाना शुरू कर दिया। इन ठेकेदारों ने मज़दूरों को आतंकित करने और उनके आन्दोलन से निपटने के लिए फैक्ट्री परिसर में लोहे की छड़ें, लाठियां और दूसरे हथियार भी इकट्ठा कर रखे थे। इसके साथ ही 150 सिक्योरिटी गार्डों के रूप में एक ठेकेदार के तहत गुण्डों की पूरी बटालियन खड़ी कर ली गयी।

400 नये भर्ती किये गये ठेका मज़दूर चूँकि 3 महीनों के दौरान मशीन ऑपरेट करना सीख गये थे इसीलिए चरणबद्ध तरीके से मज़दूरों को निकाला जाने लगा। 5 मई को कम्पनी ने 5 मज़दूरों की छँटनी कर दी। इन मज़दूरों को निकाले जाने का विरोध कर रहे 27 परमानेण्ट मज़दूरों को सस्पेण्ड कर दिया गया। इसके एक हफ्ते बाद ही 30 और मज़दूर निकाल बाहर किये गये। एकदम स्पष्ट था कि कम्पनी सोची-समझी रणनीति के तहत योजनाबद्ध तरीके से पुराने मज़दूरों से छुटकारा पाना चाह रही थी। मैनेजमेण्ट ने वर्कशाप के भीतर रिवर्स एग्ज़ॉस्ट पंखे बन्द करा दिये जिससे भीतर गर्मी बेहद बढ़ गयी। चारों ओर क्लोज़ सर्किट कैमरे लगा दिये गये थे और जो भी मज़दूर थोड़ी देर भी ढीला पड़ता दिखता उसे बाहर कर दिया जाता। मज़दूरों ने संबंधित अधिकारियों से शिकायत भी की लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

मज़दूरों ने डीएलसी और जिलाधिकारी के कार्यालय पर धरना-प्रदर्शन किया। श्रममन्त्री, मुख्यमन्त्री, प्रधानमन्त्री को अपनी समस्या से अवगत कराया। उन्होंने इटली दूतावास तक अपनी बात पहुँचायी। लेकिन उनकी आवाज बहरे कानों पर पड़ रही थी। मज़दूरों को अलग-थलग पड़ता देख कम्पनी मैनेजमेण्ट ने दम्भ के साथ घोषणा की कि अगर प्रधानमन्त्री भी कहें तो भी तुम लोगों को काम पर वापस नहीं लेंगे। 2 जुलाई के दिन मैनेजमेण्ट ने बाकी बचे 192 मज़दूरों को भी काम से निकाल दिया। वस्तुत: कंपनी को इस दिन श्रमायुक्त के समक्ष हुए समझौते के अनुसार मज़दूरों को काम पर वापस रखना था! इस तरह कुल 254 मज़दूरों को सड़क पर धकेल दिया गया। कई महीनों से बेरोजगार मज़दूरों के सामने भुखमरी की नौबत पैदा हो गयी। कई लोगों को अपने घर का सामान तक बेचना पड़ा। मज़दूर ही नहीं श्रम विभाग के अधिकारियों तक का कहना है कि समझौते पर कई बार सहमत होने के बावजूद कम्पनी में वापस पहुँचते ही मैनेजमेण्ट के लोग उसे लागू करने से मुकर जाते थे।

22 सितम्बर को क्या हुआ?

एक बार फिर मज़दूरों ने श्रम विभाग का दरवाजा खटखटाया। मैनेजमेण्ट ने साफ तौर पर कहा कि 22 सितम्बर तक सभी मज़दूर कम्पनी में आकर माफीनामा लिखें तभी आगे की बात की जायेगी। मजबूर होकर मज़दूर 22 सितम्बर की सुबह 9 बजे फैक्ट्री गेट पर पहुँचे। उन्हें 3 घण्टे इन्तजार कराया गया। 12 बजे के बाद मज़दूरों को भीतर टाइम ऑफिस में बुलवाया गया जहां हथियारबंद सिक्योरिटी गार्ड और स्थानीय गुण्डे पहले से तैनात थे। वहां मौजूद एक मैनेजर ने मज़दूरों से कहा कि वे कम्पनी को हुए नुकसान और तोड़फोड़ के लिए व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेते हुए माफीनामे पर दस्तखत करें तभी उन्हें वापस लिया जायेगा। इस पर एक मज़दूर ने प्रतिवाद करते हुए कहा ''जब हम लोगों ने कोई तोड़फोड़ की ही नहीं तो माफीनामे में ऐसा क्यों लिखें?'' इस पर अनिल शर्मा नाम के एक टाइम ऑफ़िसर ने मज़दूर को थप्पड़ मार दिया। दोनों में झगड़ा हुआ और सिक्योरिटी वालों ने मज़दूरों को पीटना शुरू कर दिया।

भीतर से हल्ला-गुल्ला सुनकर बाहर मौजूद मज़दूर भीतर दौड़ पड़े। मज़दूरों को रोकने के लिए एक मैनेजर ने सिक्योरिटी गार्डों और गुण्डों को मज़दूरों पर हमला करने का आदेश दे दिया। एक सिक्योरिटी गार्ड ने मज़दूरों पर गोली भी चलायी। इस मारपीट में 34 मज़दूर घायल हो गये। इस दौरान बिसरख थाने के एस.एच.ओ. जगमोहन शर्मा पुलिस बल के साथ मौजूद रहे लेकिन मालिकान की शह पर उन्होंने कुछ नहीं किया। बाद में पुलिस ने दोनों तरफ के लोगों को हिरासत में लिया, लेकिन मैनेजमेण्ट के लोगों को तो छोड़ दिया गया जबकि मज़दूरों को जेल भेज दिया गया।

इसी अफरा-तफरी में सीईओ एल.के. चौधरी के सिर में भी चोट लगी और अस्पताल ले जाने पर उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि चौधरी के परिजनों का कहना है कि उनकी हत्या किसी व्यावसायिक रंजिश के तहत की गयी है, मज़दूरों ने उन्हें नहीं मारा।

लेकिन नियमित कर्मचारियों की छुट्टी करने पर आमादा मैनेजमेण्ट को एक बहाना मिल गया। स्थानीय उद्योगपति, कारपोरेट मीडिया, नौकरशाही सब मिलकर मज़दूरों को बदनाम करने और दोषी ठहराने में जुट गये। 63 मज़दूरों पर सीईओ की हत्या की साजिश रचने और उन्हें मारने का इल्जाम लगाया गया जबकि 72 अन्य पर बलवा करने और शान्ति भंग करने की धाराएं लगा दी गयीं। कई दिनों तक प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ऐसी ख़बरें आती रहीं कि ''मज़दूरों ने बर्बरतापूर्वक पीट-पीटकर सी.ई.ओ. की हत्या कर दी''

घटना के तुरन्त बाद उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार उद्योगपतियों के पक्ष में सक्रिय हो गयी। 26 सितम्बर को दिल्ली में बुलायी गयी विशेष बैठक में मायावती ने पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को मज़दूरों के साथ सख्ती से निपटने के निर्देश दिये। मुख्य सचिव और एडीजी (कानून-व्यवस्था) ने नोएडा में कैम्प ऑफिस बनाकर उद्योगपतियों के ''दुखड़े'' सुनना शुरू कर दिया। किसी ने भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि मज़दूरों की क्या शिकायतें हैं। सरकार के रवैये से ऐसा लगता है जैसे ''औद्योगिक अशान्ति'' के सारे मामले महज़ कानून-व्यवस्था के मसले हैं और इसके लिए मज़दूर ही दोषी हैं। इन्हीं से निपटने के लिए सरकार ने आनन-फानन में नोएडा के औद्योगिक इलाकों के लिए तीन नये डीएसपी भी तैनात कर दिये। श्रम कार्यालय को लगभग दरकिनार करते हुए सरकार ने ''औद्योगिक सम्बन्ध समिति'' का गठन करके औद्योगिक विवादों के सम्बन्ध में तमाम कार्यकारी अधिकार उसे सौंप दिये हैं। इस समिति में नोएडा और ग्रेटर नोएडा प्राधिकरणों के सी.ई.ओ. के अलावा जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी शामिल हैं। मालिकान के हौसले इतने बुलन्द हैं कि ग्रेटर नोएडा एसोसिएशन ऑफ इंडस्ट्रीज़ के अध्यक्ष के मुताबिक सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया है कि श्रम कार्यालय द्वारा किसी भी उद्योगपति के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने से पहले उन्हें सूचना दी जायेगी। बिल्कुल साफ है कि केन्द्र की यूपीए सरकार और उ.प्र. की मायावती सरकार राजनीति के मैदान में एक-दूसरे से चाहे जितना झगड़ें, श्रम-शक्ति को लूटने में देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लठैत बनकर उनकी मदद के लिए किसी भी हद तक चले जाने के मामले में दोनों में कोई अंतर नहीं है।

कुछ सामाजिक तथा मज़दूर संगठन ग्रेजियानो के मज़दूरों को न्‍याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अधिक जानकारी के लिए तथा इस मुहिम से जुड़ने के लिए संपर्क करें:

tapish.m@gmail.com

grazianoworkerssolidarity@yahoo.com

फोन : तपिश - 9891993332

Thursday, October 16, 2008

पूंजीपतियों की चिंता में दुबली हुई जाती सरकारें...

आजकल बेल आऊट की बहार आई हुई है। हर कंपनी अपने को कंगाल घोषित करने पर अमादा है। बाजार के खेल में बड़े-बड़े महारथी धराशायी हो चुके हैं और अभी कई लाइन में लगे हैं। कल तक जो लोग बाजार को एकदम स्‍वतंत्र कर देने की वकालत करते नहीं अघाते थे और जो यहां तक कहते थे कि सरकार खुद ही एक समस्‍या है और उसे बाजार के खेल में दखलन्‍दाजी नहीं करनी चाहिए अब दोनों हाथ जोड़कर सरकार से भीख मांग रहे हैं कि माई-बाप हमें बचाओ, हमें पैसे दो, हम कंगालों के आगे रोटी फेंको वर्ना हम तबाह हो जाएंगे, बर्बाद हो जाएंगे, लुट जाएंगे, पिट जाएंगे,......ये हो जाएगा, वो हो जाएगा...।
आप सोच रहे होंगे कि भाई इसमें दिक्‍कत क्‍या है। ये तो वही पूंजीपति हैं जो अपने कामगारों का खून-पसीना एक किए रहते हैं। जब चाहे नौकरी पर रखते हैं जब चाहे निकाल बाहर करते हैं। बैंको से अरबों करोड़ों का कर्ज लेकर चुकाते नहीं हैं। किसानों की जमीनें कब्‍जा करते हैं। टैक्‍स की चोरी करते हैं और स्विस बैंकों में रुपया जमा करवाते हैं। इंसानों का खून और किडनी बेचते हैं और यहां तक कि इन्‍होंने प्रकृति का भी विनाश कर डाला है। सभ्‍यता, संस्‍कृति और इंसानियत तक को बिकाऊ माल बना दिया है। औरत को उपभोग की वस्‍तु बना दिया है और बच्‍चों तक को अपनी वासना का जकड़ में ले लिया है। मुनाफे ही हवस में जो इंसान भी नहीं रह गए हैं ऐसे धनपशु आज अगर अपने ही खेल में पिट रहे हैं तो इनपर रहम किया भी जाए तो क्‍यों।
पर सरकार ऐसा नहीं सोचती। सरकार चाहे अपने देश के लोगों को दो जून की रोटी, शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य और पेयजल भी न उपलब्‍ध करवा सके पर पूंजीपतियों के लिए अपने खजाने खोलने में सरकार एक मिनट की भी देर नहीं करेगी। अमेरिका की सरकार अपने देश की एक कंपनी को बचाने के लिए जितने डॉलर खर्च कर रही है उतने में पूरे विश्‍व को कई साल तक खाना खिलाया जा सकता है। 5 साल से कम उम्र के लगभग आधे बच्‍चे कुपोषण के शिकार हैं पर सरकार को उनकी चिंता नहीं है। देश की आधी आबादी भूखे पेट सोती है पर सरकार को उसकी भी चिंता नहीं है। किसान आत्‍महत्‍याएं कर रहे हैं, मजदूर किडनियां बेच रहे हैं, औरतें अपनी अस्मिता बेचने को मजबूर हैं और बच्‍चों से उनका बचपन छीना जा रहा है पर सरकार को इन सबकी भी चिंता नहीं है। सरकार को चिंता है तो बस उन धनपशुओं की जिनकी जीवनशैली पर इस आर्थिक मंदी के बावजूद कोई असर नहीं पड़ने वाला है। उनकी ऐय्याशियां कम नहीं होने वाली हैं। उनके गुनाह कम नहीं होने वाले हैं।
अगर अब भी आप नहीं समझ पाए हैं कि सरकार लोगों की नहीं पूंजीपतियों की चिंता क्‍यों करती है तो इसका सीधा सा जवाब यह है कि 'सरकार पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी का काम करती है।' लोगों की चिंता करना उसका काम ही नहीं है, सरकार का जन्‍म ही इस काम के लिए नहीं हुआ है। सरकार के लिए पूंजीपतियों का हित सर्वोपरि है। उनके हित के लिए सरकार कभी बाजार खोल देती है तो कभी तमाम तरह की पाबन्दियां लगाती है। कभी उन्‍हें लूट-खसोट की पूरी आजादी देती है तो कभी उनके लिए अपने खजाने खोल देती है। सीधी-सादी चीजों को कानूनों के जंजाल में इस तरह उलझाती है कि पैसे वाला चाहे तो कानून अपनी जेब में रखकर घूम सकता है और गरीब बेगुनाह होकर भी पूरी जिंदगी हवालात में गुजार सकता है।
पूरे विश्‍व के स्‍तर पर आई मौजूदा आर्थिक मंदी ने नंगे तौर पर यह दिखा दिया है कि सरकार की एकमात्र चिंता पूंजीपतियों की सेवा करना है, उनके हितों की सुरक्षा करना है। आम जनता को भी अब यह समझ लेना चाहिए कि ऐसी सरकार के भरोसे उनकी नैय्या पर होने वाली नहीं है। शहीदे-आजम भगतसिंह की एक-एक बात आज सही साबित हो रही है। आज भगतसिंह के विचार पहले से भी कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए हैं।

Tuesday, October 7, 2008

शायरी मैंने ईजाद की... अफजाल अहमद

पाकिस्‍तानी शायर अफ़जाल अहमद की यह कविता नौजवानों की पत्रिका 'आह्वान' में पढ़ने को मिली...

शायरी मैंने ईजाद की

काग़ज़ मराकशियों ने ईजाद किया
हरूफ़ फीनिशियों ने
शायरी मैंने ईजाद की

कब्र खोदने वाले ने तन्‍दूर ईजाद किया
तन्‍दूर पर कब्‍ज़ा करने वालों ने रोटी की पर्ची बनायी
रोटी लेने वालों ने कतार ईजाद की
और मिलकर गाना सीखा

रोटी की कतार में जब चींटियां भी आ खड़ी हो गईं
तो फाका ईजाद हुआ

शहतूत बेचने वालों ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया
शायरी ने रेशम से लड़कियों के लिबास बनाये
रेशम में मलबूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने महलसरा ईजाद की
जहां जाकर उन्‍होंने रेशम के कीड़े का पता बता दिया

फासले ने घोड़े के चार पांव ईजाद किये
तेज़ रफ्तारी ने रथ बनाया
और जब शिकस्‍त ईजाद हुई
तो मुझे तेज़ रफ्तार रथ के आगे लिटा दिया गया

मगर उस वक्‍त तक शायरी ईजाद हो चुकी थी
मुहब्‍बत ने दिल ईजाद किया
दिल ने खेमा और कश्तियां बनाईं
और दूर-दराज़ मकामात तय किये

ख्‍वाजासरा ने मछली पकड़ने का कांटा ईजाद किया
और सोये हुए दिल में चुभोकर भाग गया
दिल में चुभे कांटे की डोर थामने कि लिए
नीलामी ईजाद की
और
ज़बर ने आखि़री बोली ईजाद की

मैंने सारी शायरी बेचकर आग ख्‍़ारीदी
और ज़बर का हाथ जला दिया

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मराकशी - मोरक्‍को के मिराकिश शहर के निवासी
फीनिशी - फीनिश के निवासी
महलसरा - अन्‍त:पुर, हरम
खेमा - तम्‍बू
ख्‍वाज़ासरा - हरम का रखवाला हिजड़ा
ज़बर - अत्‍याचार

Monday, October 6, 2008

यूनानी कवि ओडिसियस एलाइटिस

यूनानी कवि ओडिसियस एलाइटिस की ये पंक्तियां जो मुझे बहुत पसंद हैं, मैं आप सबके साथ साझा करना चाहता हूं.........


जब तक कि चेतना पदार्थ में वापस नहीं लौटती
हमें दोहराते रहना होगा
कि दुनिया में कोई छोटे और बड़े कव‍ि नहीं- सिर्फ मनुष्‍य हैं,
कुछ ऐसे जो कविताएं ऐसे लिखते हैं
जैसे वे पैसा कमाते हैं
या वेश्‍याओं के साथ सोते हैं
और कुछ ऐसे मनुष्‍य , जो ऐसे लिखते हैं
जैसे प्रेम के चाकू ने उनका दिल चीर दिया हो...........

Sunday, October 5, 2008

आखिर किस-किस गुनाह के लिए माफी मांगेगा चर्च...

पोप ने यह साफ कर दिया कि 150 साल पहले प्राणियों की उत्‍पत्ति से संबंधित डार्विन के अध्‍ययन के बहिष्‍कार के लिए चर्च माफी नहीं मांगेगा। पोप ने कहा कि संभवत: हमें पुरानी गलतियों के लिए माफी मांगना बंद कर देना चाहिए, इतिहास कोई ऐसा न्‍यायालय नहीं है जिसका सत्र हमेशा चलता रहता है।

पोप की परेशानी हम समझ सकते हैं। आखिर बेचारे पोप किन-किन गुनाहों के लिए माफी मांगेंगे। अभी पिछले दिनों ही उन्‍होंने अमेरिका और आस्‍ट्रेलिया में चर्च के पुजारियों द्वारा किये गये यौन दुर्व्‍यवहार के लिए माफी मांगी।

धर्म युद्धों (क्रूसेड), बलात धर्म परिवर्तन, यहूदियों के प्रति दुर्व्‍यवहार आदि के लिए चर्च पहले ही प्रभु से क्षमादान मांग चुका है। 1995 में पोप जान पाल द्वितीय ने महिलाओं को सम्‍बोधित एक पत्र में यह स्‍वीकार किया कि प्राय: धर्म महिलाओं को हाशिये पर धकेलता रहा है और उन्‍हें गुलाम बनाता रहा है। इस्‍लाम के प्रति टिप्‍पणियों के लिए भी चर्च माफी मांग चुका है। इसके अलावा नाजियों का समर्थन और उन्‍हें बचाने तक में चर्च ने अपनी भूमिका की आलोचना की।

पोप को लगता है कि कहीं न कहीं जाकर इस पर रोक लगायी जानी चाहिए वर्ना धर्म के सभी गुनाहों के लिए माफी मांगने लगा जायेगा तो कई पोपों की पूरी जिंदगी इसी काम में होम हो जायेगी। अब दुनिया जाने या न जोने पर पोप तो जानते ही हैं कि ईसाई चर्च ने लोगों पर कितने अत्‍याचार किये हैं इसका अनुमान भी लगा पाना मुश्किल है।

लेकिन विज्ञान के साथ मामला थोड़ा पेचीदा है। अगर धर्म ग्रंथों में लिखी बातें सही हैं और सृष्टि का निर्माण करने वाले भगवान ने ही उन ग्रंथों को लिखा है तब तो उनकी बातें विज्ञान के स्‍तर पर भी खरी उतरनी चाहिए। लेकिन विज्ञान और धर्म का हमेशा ही 36 का आंकड़ा रहा है। अब अगर धर्म डार्विन और ब्रूनो और गैलिलियो से माफी मांगता है तो उसका आधार ही खिसक जायेगा और फिर धर्म को अपना औचित्‍य सिद्ध कर पाना मुश्किल हो जायेगा।

सूर्य पृथ्‍वी का चक्‍कर नहीं लगाता बल्कि पृथ्‍वी सूरज का चक्‍कर लगाती है यह कहने के लिए ब्रूनो को जिन्‍दा जला दिया गया। यही बात कहने के लिए गैलीलियो पर तमाम तरह के जुल्‍म किये गये। जोन आफ आर्क को जिन्‍दा जला दिया गया। टॉमस मुंजर को चर्च का विरोध करने और किसानों को संगठित करने के लिए प्रताडि़त किया गया मार डाला गया और बाकी लोगों को सबक सिखाने के लिए उसके मृत शरीर को खुलेआम प्रदर्शित किया गया। इतिहास में चर्च के पुरोहित विलासियों का सा जीवन व्‍यतीत करते रहे हैं और हर वह कृत्‍य अंजाम देते रहे हैं जिनका वह आम जनता के लिए निषेध करते हैं।

प्रश्‍न यह उठता है कि यदि ब्रूनो और गैलीलियो ने सही बात कही था जिसे आज सारी दुनिया मानती है और यदि बाइबिल में लिखी बातें एकदम सही हैं तो चर्च ने उस समय इन दार्शनिकों को अपनी सत्‍ता के लिए खतरनाक क्‍यों माना और अब यदि चर्च अपनी गलती स्‍वीकार करता है तो इसका यही निष्‍कर्ष निकलता है कि बाइबिल में लिखी हर बात सही नहीं है और चर्च द्वारा कही गई हर बात को स्‍वीकार करने से पहले तर्क की कसौटी पर कसा जाना चाहिए।

पर ऐसा करने से धर्म का आधार ही कमजोर हो जायेगा। क्‍योंकि धर्म का आधार ही अज्ञानता और अतर्कपरकता पर टिका हुआ होता है। इसलिए चर्च ने इसका एक आसान तरीका निकाला और घोषणा कर दी कि चर्च ने कभी डार्विन का विरोध किया ही नहीं था। इसके भी आगे बढ़कर पोप ने यह भ्रम तक फैला दिया कि डार्विन की बातें बाइबिल के अनुरूप ही हैं और दोनों में कोई असंगतता नहीं है।

धर्म की सबसे बड़ी खूबी यही है कि कालान्‍तर में वह अपने विरोधियों को भी अपने अंदर समाहित कर लेता है बल्कि कभी जिन्‍हें जिन्‍दा जला दिया गया था बाद में उन्‍हें सन्‍त की उपाधि तक दे दी जाती है। और ऐसा सिर्फ ईसाई धर्म के साथ ही नहीं है सभी धर्म इस मामले में एक दूसरे को टक्‍कर देते हैं। सभी धर्मों ने मिलकर मानवता पर जितना जुल्‍म ढाया है उतना शायद ही किसी और कारण से हुआ होगा। सभी धर्म यही शिक्षा देते हैं कि संतोषी बनो, मालिक जो दे उसीमें सन्‍तोष करो, विरोध मत करो, रोटी मिले या न मिले लेकिन प्रभु के गुण गाओ। अपना शोषण करवाते रहो मगर शोषक के खिलाफ कोई कार्रवाई मत करो। ज्ञानी लोग जो कहते हैं वह करो अपनी अक्‍ल मत लगाओ, ज्‍यादा प्रश्‍न मत पूछो.... और इसके साथ ही धर्म यह धमकी भी देता है कि अगर ऐसा नहीं करोगे तो नर्क जाओगे तो जाओगे... उसके पहले यहीं धरती पर ही तुम्‍हारा वो हाल किया जायेगा कि मानवता दहल जायेगी। यानी कहा जा सकता है कि धर्म इंसान को न सिर्फ दिमागी गुलाम बनाता है बल्कि अपनी निरंकुश सत्‍ता का विरोध करने वालों को सबक सिखाने के लिए किसी भी अमानवीय स्‍तर तक उतर सकता है।

Wednesday, October 1, 2008

ग्रेजियानो की घटना

पूंजीवादी शोषण के खिलाफ मजदूरों में सुलगते आक्रोश से उठी एक चिंगारी!


मेहनतकश साथियो,


ग्रेटर नोएडा की ग्रेजियानो कंपनी में उठे मजदूर असंतोष की लपट ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि पूंजीवादी शोषण की चक्‍की में पिस रहे देश के करीब 50 करोड़ मजदूर हमेशा चुप नहीं बैठे रहेंगे। घटना के बाद देश के श्रम मंत्री तक को यह स्‍वीकारना पड़ा कि देश भर के मजदूरों में भीतर ही भीतर असंतोष सुलग रहा है। यह बात गौर करने लायक है कि देश के उद्योग संगठनों की कड़ी प्रतिक्रिया के बाद श्रम मंत्री को अपना थूका हुआ चाटना पड़ा और उसे अपने मालिकों से माफी मांगनी पड़ी। पूंजी की चाकर इन सरकारों और मंत्रियों से भला और क्‍या उम्‍मीद की जा सकती है।

360 करोड़ रुपये का सालाना प्रोडक्‍शन देने वाले ग्रेजियानो के करीब 350 मजदूर एक साल से बपने हकों के लिए संघर्ष कर रहे थे। इनमें से अधिकांश पिछले 7-8 वर्षों से कार्यरत थे। मुनाफे की हवस का शिकार कंपनी मैनेजमेंट सोच रहा था कि जब बाजार में 2000-2500 रुपये पर काम करने वाले लोगों की भरमार है तो फिर पुराने मजदूरों को 6000 रुपये मासिक वेतन क्‍यों दिया जाये? यही सोचकर पुराने मजदूरों को निकाला जाने लगा। मजदूरों ने इसके खिलाफ श्रम विभाग, कंपनी मैनेजमेंट, जिला प्रशासन, गृह मंत्री और इटली की सरकार तक का दरवाजा खटखटाया लेकिन राजा भोज भला गंगू तेली की कहॉं सुनने वाले थे। मजदूरों की नामलेवा ट्रेड यूनियनों ने भी दलाली खाकर मालिकपरस्‍ती का नंगा प्रदर्शन किया।

इस तरह अपने हक की लड़ाई में मजदूर अलग-थलग पड़ गये। मौके का फायदा उठाते हुए कंपनी ने 22 सितंबर को समझौते के नाम पर मजदूरों से भविष्‍य में आंदोलन न करने और माफीनामा लिखने का दबाव बनाया। इंकार करने पर उन्‍हें कंपनी के गुण्‍डों ने पीटना शुरू कर दिया और इर लड़ाई में कंपनी का सीईओ मारा गया।
उसके बाद जो कुछ हुआ वह आम गरीबों और मजदूरों की पूंजीवादी न्‍याय और सुशासन की झूठी आस-उम्‍मीद को तार-तार कर देने के लिए काफी है। सैकड़ों मजदूरों को गिरु्फ्तार किया गया। देश के पूंजीपतियों, राजनीतिक पार्टियों, गली-कूचे के टटपूंजिये नेताओं और मीडिया एवं गद्दार ट्रेड यूनियन नेताओं ने मजदूरों को हत्‍यारा घोषित कर दिया। कहा गया चाहे जैसे भी हालात रहे हों मजदूरों को और बर्दाश्‍त करना चाहिए था। दुर्घटनावश हुई एक सीईओ की मौत पर इतना शोर मचाने वालों से यहॉं यह पूछा जाना चाहिए कि हर रोज काम के दौरान मरने वाले 6000 (पूरे विश्‍व में-ब्‍लागर) मजदूरों की मौत पर ये हमेशा क्‍यों खामोश रहते हैं?

देश के मजदूरों-मेहनतकशों को यह साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि पूंजी (मालिकों) और श्रम (मजदूरों) के बीच की इस लड़ाई में पूंजीपति और उनकी मैनेजिंग कमेटी यानी सरकार, पुलिस, कानून और गद्दार ट्रेड यूनियनें मजदूरों के खिलाफ एकजुट हैं। ऐसे हालात का मुकाबला करने के लिए मजदूर वर्ग को चाहिए कि किस्‍म-किस्‍म के चुनावबाज नेताओं और दलाल ट्रेड यूनियनबाजों का पिछलग्‍गू बनना बंद कर दें। मजदूरों को चाहिए कि वह सभी गरीबों-मेहनतकशों के साथ पूंजीवाद विरोधी क्रान्तिकारी आंदोलन के साथ आकर खड़े हों। और शोषण की संपूर्ण व्‍यवस्‍था के खात्‍मे को अपने जीवन का लक्ष्‍य बना लें। केवल तभी यह उम्‍मीद की जा सकती है कि मजदूरों की आने वाली पीढि़यां खुली हवा में आजादी की सांस ले सकेंगी।


अंधकार का युग बीतेगा, जो लड़ेगा वो जीतेगा!
बिगुल मजदूर दस्‍ता
नोएडा : 9891993332,
दिल्‍ली : 011-65976788
*** मजदूरों के क्रान्तिकारी संगठन बिगुल मजदूर दस्‍ता द्वारा ग्रेजियानो की घटना पर निकाला गया एक पर्चा।