Wednesday, December 17, 2008

अगर दुनिया में एक ही जाति, धर्म, नस्‍ल, राष्‍ट्रीयता के लोग हों, तो क्‍या हिंसा/आतंकवाद खत्‍म हो जाएगा ।

हिंसा या आतंकवाद के लिए एक सभ्‍य समाज में कोई जगह नहीं हो सकती। और जब तक समाज में हिंसा मौजूद है तबतक सभ्‍य समाज बनाया भी नहीं जा सकता है। समाज में हिंसा तब भी थी जब दुनिया का कोई धर्म पैदा नहीं हुआ था इसलिए हिंसा (या आतंकवाद जो हिंसा का ही एक रूप है) को किसी एक धर्म या सभी धर्मों से भी जोड़कर नहीं देखा जा सकता। धर्म नहीं होते तो भी हिंसा/आतंकवाद रहता। लेकिन यह कोई इतना छोटा मसला भी नहीं है कि आनन-फानन में इसके बारे में भावनात्‍मक आवेग में आकर और बिना कुछ सोचे विचारे कोई समाधान प्रस्‍तुत कर दिया जाए। सच्‍चाई यह है कि हिंसा का विरोध करने वाले यहां भी अपने निजी हितों को ही ऊपर रखते हैं।
मिसाल के लिए रतन टाटा को ही ले लीजिए। आजतक जब तक कि 'सिस्‍टम' ने रतन टाटा को तमाम वैध-अवैध तरीकों से व्‍यवसाय फैलाने, मुनाफा लूटने, श्रमिकों की मेहनत लूटने की इजाजत और खुली छूट दे रखी थी तब तक आज के युवाओं के आदर्श रतन टाटा जी को सिस्‍टम पर पूरा भरोसा था। ऐसा तो नहीं कि देश में इसके पहले कभी हिंसा हुई ही नही थी, पर रतन टाटा चुप रहे। और जब उनके अपने होटल पर हमला हुआ (ऐसा होटल जिसमें भारत की 99.5 प्रतिशत जनता घुस भी नहीं सकती थी), तो टाटाजी ने बयान दे डाला कि हमें सिस्‍टम पर भरोसा नहीं है, हम अपनी सुरक्षा स्‍वयं करेंगे (टाइम्‍स आफ इंडिया, 17 दिसंबर, 08)। बिल्‍कुल कर सकते हैं, क्‍योंकि आप ऐसी सुरक्षा अफोर्ड कर सकते हैं, पर देश की 99 प्रतिशन जनता तो नहीं अफोर्ड कर सकती। अगर यह सिस्‍टम रतन टाटा जैसे देश के 'रतन' की सुरक्षा नहीं कर सकता तो आम आदमी के बारे में कहना ही क्‍या है।
समाज में हिंसा तभी से मौजूद रही है जबसे समाज शोषकों और शोषितों में विभाजित हुआ। यह हिंसा विकृत सामाजिक व्‍यवस्‍था का एक बाइप्रोडक्‍ट है। यह समाज रूपी शरीर को लगी बीमारी का एक लक्षण भर है, यह अपने आप में पूरी बीमारी नहीं है। और यदि शरीर को ठीक करना है तो इलाज इस बीमारी के लक्षणों का नहीं बल्कि बीमारी का करना होगा।
आज समाज में जो हिंसा व्‍याप्‍त है उसके कई रूप हैं और कई कारण भी। लेकिन हिंसा का विरोध करने वाले अधिकतर लोग एक तरह की हिंसा का विरोध तो करते हैं मगर अन्‍य प्रकार की हिंसा पर चुप्‍पी साधे रहते हैं। जापान पर दो एटम बम गिरा चुका अमेरिका आज विश्‍व मंच पर शान्ति की बात करता है और गुआंतानामो बे और अबु घरेब में अमानवीय कृत्‍य अंजाम देता है। सच्‍चाई यह है कि अपने आर्थिक, राजनीतिक, व्‍यक्तिगत, धार्मिक, जातिगत, नस्‍लीय या लैंगिक स्‍वार्थपूर्ति के लिए दूसरों पर जोर-जबरदस्‍ती करना ही हर प्रकार की हिंसा का मूल स्रोत है। चूंकि पूंजीवादी समाज किसी भी तरीके से स्‍वार्थपूर्ति करने को जायज समझता है और इसी सिद्धान्‍त पर आधारित है इसलिए पूंजीवादी समाज में हिंसा भी अधिक होती है।
हर शासक वर्ग हिंसा को अपने हितों के अनुरूप परिभाषित करता है। इसलिए भारत में जहां औसतन 2 लोगों के रोज आतंकवादी गतिविधियों में मारे जाने पर भयंकर हाय तौबा मचती है उसी भारत में पुलिस हिरासत में रोज 4 लोगों के मरने और काम के दौरान होने वाली घटनाओं और बीमारियों से रोज मरने वाले 1095 लोगों के बारे में न तो मीडिया में कोई जगह मिलती है, न तो मानवतावादी ब्‍लॉगर उसपर कुछ लिखते हैं। हमारे महान देश में भूख और कुपोषण से हर दिन हजारों लोग मरते हैं, पांच वर्ष से कम आयु वाले बच्‍चों में शिशु मुत्‍यु दर 76 प्रतिशत है। लेकिन इन आंकड़ों से हमें कोई कष्‍ट नहीं होता। क्‍योंकि हमारा एजेंडा तो हिंसा को धार्मिक रंग देना और राजनीतिक लाभ हासिल करना है। पर क्‍या सिर्फ हिंसा/आतंकवाद खत्‍म हो जाने से भूख और कुपोषण भी खत्‍म हो जाएगा, मजदूरों को सरकार द्वारा तय न्‍यूनतम वेतन मिलने लगेगा, दहेज के लिए औरतों को जलाना और कन्‍या शिशुओं की भ्रूण हत्‍या खत्‍म हो जाएगी, सबको शिक्षा, रोजगार और सम्‍मान से जीने का हक मिल जाएगाए जातिगत, भाषाई और क्षेत्रीय असामनताएं दूर हो जाएंगी।

नहीं ऐसा कुछ भी नहीं होगा..... लेकिन इतना जरूर है कि अगर ये सब बुराइयां खत्‍म की जाएं या इस दिशा में प्रयास किया जाए तो हिंसा या आतंकवाद जरूर खत्‍म हो जाएगा या बहुत कम रह जाएगा।

ब्‍लाग की एक पोस्‍ट में इस समस्‍या के सभी पहलुओं पर नहीं लिखा जा सकता। इस मुद्दे पर अधिक विस्‍तार से पढ़ने के लिए राहुल फाउंडेशन, लखनऊ से प्रकाशित एक पुस्तिका 'आतंकवाद के बारे में : विभ्रम और यथार्थ' अवश्‍य देखें।

Tuesday, December 16, 2008

सरकार यानी पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी

एक ट्रेंड के तौर पर यह पहले से ही नजर आने लगा था लेकिन जो लोग प्रवृत्तियों और रुझानों को पर्याप्‍त तथ्‍यों के प्रकाश में ही समझ पाते हैं अब तो उनके सामने भी यह लगातार अधिक से अधिक साफ होता जा रहा है कि पूंजीवादी जनतंत्र के इस तमाशे में वही सफल हो सकता है जिसकी झोली में सबसे अधिक पूंजी हो।
पांच राज्‍यों में हुए विधानसभा चुनावों के बाद मीडिया में (टाइम्‍स आफ इंडिया) बहुत प्रमुखता से यह खबर प्रकाशित हुई कि इन विधानसभा चुनावों में ज्‍यादातर उम्‍मीदवार और सफल प्रत्‍याशी करोड़ों के स्‍वामी हैं। दिल्‍ली विधानसभा के लगभग सारे ही विधायक लखपति या करोड़पति हैं। पांचों राज्‍यों जिनमें अभी विधानसभा चुनाव हुए हैं में देखें तो 40 प्रतिशत सीटें करोड़पति प्रत्‍याशियों ने जीती हैं। 5 लाख प्रतिवर्ष से कम आय वाले 3 प्रतिशत से भी कम उम्‍मीदवारों ने चुनाव में सफलता प्राप्‍त की। दिल्‍ली विधानसभा में औसत निकालें तो प्रत्‍येक विधायक के पास 2.86 करोड़ की संपत्ति है। यही बीजेपी और कांग्रेस के विधायकों का भी औसत है। वहीं छत्तीसगढ़ विधानसभा का हर दूसरा विधायक 3 करोड़ की परिसंपत्तियों का मालिक है।
सिर्फ तथ्‍यों की ही बात करें तो आंकड़ें बताते हैं कि यदि आपके पास 5 करोड़ से अधिक की संपत्ति है तो आपके चुनाव जीतने की संभावना 50 प्रतिशत हो जाती है। कम आय वालों के लिए यह संभावना उनकी आय के हिसाब से ही कम होती जाती है।
यह ट्रेंड कोई नई बात नहीं है लेकिन मीडिया में इसको अब जगह मिली क्‍योंकि अब आंकड़े इतने सनसनी फैलाने वाले हो गए हैं कि इन्‍हें पहले पन्‍ने पर देकर अखबार की रेटिंग बढ़ाई जा सकती है। वर्ना यह तो सभी जानते हैं कि संसद और विधानसभाओं में हर पूंजीपति की अपनी एक लॉबी होती है और यह भी सब जानते हैं कि कौन सांसद या विधायक किस पूंजीपति के हित साधता है। यह अनायास नहीं है कि अनिल अंबानी और विजय माल्‍या जैसे पूजीपति स्‍वयं सांसद बनते हैं। अब इसमें कुछ समझने लायक नहीं बचा है कि हमारे सम्‍मानित सांसद और विधायक या तो स्‍वयं पूंजीपति हैं या पूंजीपति बनने की राह पर हैं और इसलिए इससे यह एक सरल सा निष्‍कर्ष भी निकलता है कि उनके हित पूंजीपतियों के हितों के साथ्‍ा नत्‍थी हैं। चाहे वे किस भी जाति धर्म के हों लेकिन उनका वर्ग एक है - पूंजीपति वर्ग। और उनका काम भी एक ही है अपने वर्ग की उन्‍नति के बारे में सोचना और काम करना।
समानता, स्‍वतंत्रता और भाईचारे के जिस नारे के साथ पूंजीपति वर्ग सत्ता में आया था उसका मतलब सिर्फ यह रह गया है कि पूंजीपतियों के बीच की समानता, देश और देश की जनता को लूटने की स्‍वतंत्रता और इस लूट के निजाम को बनाए रखने के लिए शोषकों का आपसी भाईचारा। देश की तीन चौथाई आबादी के लिए समानता, स्‍वतंत्रता और भाईचारे की पोल तभी खुल जाती है जब चौराहे पर खाकी वर्दी डाले कोई पुलिसवाला उसको जब-तब मां-बहन की सुना देता है। आम आदमी चोर बदमाशों से उतना नहीं डरता जितना कि पुलिस से। ऐसा इसलिए नहीं है क्‍योंकि नौकरशाही में कुछ भ्रष्‍ट लोग आ गए हैं बल्कि इसलिए है क्‍यों‍कि नौकरशाही लोगों की सेवा के लिए है ही नहीं। नौकरशाही का काम तो पूंजीपति वर्ग के हितों की हिफाजत करना और उसके पक्ष में न्‍याय-कानून का प्रयोग करना है। बाकी जनता के लिए तो कोर्ट कचहरी और सरकारी दफ्तर बस दिखावे की चीजें हैं।
कहने की कोई जरूरत नहीं कि देश की संसद और विधानसभाएं आम लोगों के हितों की रक्षा नहीं करते और न ही आम जनता को उनसे कोई अपेक्षाएं पालनी चाहिए। पूंजीवादी धनतंत्र में पूंजी का नंगा खेल अब उस हद तक बढ़ चुका है (और इसे बढ़ते ही जाना है) कि इस व्‍यवस्‍था को सुधारने की कोई उम्‍मीद बाकी नहीं रह गई है।