Thursday, August 12, 2010

एक स्‍वनामधन्‍य कम्युनिस्‍ट बुद्धिजीवी का भोलापन....इस अदा पर कौन न मर जाये।।

प्रिय नीलाभ जी,
जनज्‍वार के माध्‍यम से पता चला कि आप राजनीतिक दलों के न्‍यास आदि बनाने को सही नहीं मानते। आपने अपनी टिप्‍पणी में अपने इस विचार के पीछे कोई तर्क नहीं पेश किया है। यह जानने की बहुत इच्‍छा हो रही है कि राजनीतिक दलों को न्‍यास आदि क्‍यों नहीं बनाना चाहिए। क्‍या न्‍यास आदि संस्‍थाओं में ऐसे कीटाणु बसते हैं जो राजनीतिक दलों को भ्रष्‍ट कर देते हैं। क्‍या इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि न्‍यास का उद्देश्‍य क्‍या है उसको कैसे संचालित किया जाता है और उसमें कौन लोग काम करते हैं। बस न्‍यास बना नहीं कि आप किसी राजनीतिक दल को विपथगामी घोषित कर देंगे। आपकी बात इतनी मजेदार है कि मेरी यह जानने की उत्‍सुकता बढ़ती ही जा रही है कि आप और किन-किन कामों को राजनीतिक दलों के करने योग्‍य नहीं समझते।
जहां तक मेरा राजनीतिक ज्ञान है मैं समझता हूं कि एक समूह उन सभी (या अधिकतर) कामों को ज़्यादा बेहतर ढंग से संचालित कर सकता है जिन्‍हें कोई व्‍यक्ति अकेला करता है। इन कामों में राजनीतिक काम भी आ सकते हैं और कला-संस्‍कृति के क्षेत्र के काम भी आ सकते हैं और अकादमिक काम भी।
आज दिल्‍ली के अधिकतर प्रगतिशील कवि, लेखक, संस्‍कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी मध्‍य वर्ग या उच्‍च मध्‍यवर्ग की जीवनशैली जी रहे हैं। आज कितने लेखक, कवि, बुद्धिजीवी हैं जो बाल्‍जाक की तरह काली काफी पीकर पेरिस के अभिजात समाज को अपनी कलम से नंगा कर देने की चुनौती देने का माद्दा रखते हैं। आज के प्रगतिशील लेखकों में से किसको आप भारत का टामस पेन और लू शुन कहेंगे। मां उपन्‍यास लिखने के बाद गोर्की ने जब लेनिन से मुलाकात की तो लेनिन ने कहा कि यह मजदूरों के लिए एक जरूरी किताब है और इसे बड़ी मात्रा में छपवाकर मजदूरों के बीच वितरित करवाओ। क्‍या आपको लगता है कि अगर 'मां' जैसी कोई किताब आज लिखी जाती है तो आज के बुर्जुआ प्रकाशक उसे बड़ी मात्रा में छपवाकर मजदूरों के बीच वितरित करवाएंगे। निश्‍चय ही नहीं करवाएंगे। बुर्जुआ प्रकाशक तो क्‍या खुद को प्रगतिशील कहने वाले कवि, लेखक और बुद्धिजीवी भी यह काम नहीं करेंगे। सही बात तो यह है कि प्रतिष्‍ठा, पुरस्‍कार, रॉयल्‍टी अगर मिलती रहे तो हमारे लेखकों को इससे कोई मतलब नहीं कि उनकी किताबें वास्‍तव में पढ़ी भी जा रही हैं या नहीं। आज कितने ऐसे लेखक हैं जो 20 रुपये से कम पर जीने वाले भारत के 77 प्रतिशत लोगों की जिंदगी से करीबी से जुड़े हों या करीबी जुड़ाव महसूस करते हों। आज प्रगतिशील लेखकों/बुद्धिजीवियों और सर्वहारा जनता के बीच की खाई गणेशशंकर विद्यार्थी और प्रेमचंद के जमाने से कई गुना चौड़ी हो गई है। यह कहने में कोई अतिश्‍योक्ति नहीं होगी कि आज के हमारे प्रगतिशील लेखक, कवि और बुद्धिजीवी भारत की गरीब जनता के साथ ऐतिहासिक विश्‍वासघात कर चुके हैं। वास्‍तव में समाजवाद से उनका कुछ लेना-देना ही नहीं रह गया है, उनका समाजवाद तो कब का आ चुका है।
और इसीलिए जो काम प्रगतिशील लेखकों, बुद्धिजीवियों, संस्‍कृतिकर्मियों को करना चाहिए था, यानी कि समाज में गंभीर राजनीतिक और गैर राजनीतिक साहित्‍य का एक सचेत पाठकवर्ग तैयार करने और ऐसे साहित्‍य के फलने-फूलने का माहौल तैयार करने का काम, उसे मजबूरी में क्रान्तिकारी दल (दलों) को करना पड़ रहा है। आप शायद समझ नहीं पा रहे हैं कि यह राजनीतिक दलों की इच्‍छा नहीं बल्कि उनकी मजबूरी है। हालांकि अगर वे अपनी चाहत से भी ऐसा करते हैं तो इसमें गलत क्‍या है यह मैं नहीं समझ पा रहा हूं। शायद आप समझने में मेरी मदद करेंगे।
आपने सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन घुमा फिराकर कुछ प्रकाशनों पर आरोप लगाया है कि उन्‍होंने साधन को साध्‍य बना लिया है। तो उपरोक्‍त बातों के मद्देनजर सबसे पहले तो यह आरोप प्रगतिशील लेखकों पर लगाया जाना चाहिए जिनमें आप स्‍वयं भी शामिल हैं। अपनी किताबें छपवाने में बहुतेरे लोग आगे रहते हैं लेकिन लू शुन की तरह किसी ने यह क्‍यों नहीं सोचा कि अपने देश के लोगों का परिचय विश्‍व की तमाम मूल्‍यवान साहित्यिक धरोहरों से कराया जाए। आज मार्क्‍सवाद की कितनी किताबें हैं जो सही और सटीक अनुवाद के साथ हिन्‍दी में उपलब्‍ध हैं। और यदि नहीं है तो यह काम कौन करेगा। क्‍या यह काम राजकमल और वाणी जैसे बुर्जुआ प्रकाशनों के भरोसे छोड़ दिया जाए या भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के भरोसे या नीलाभ प्रकाशन के भरोसे। मार्क्‍सवाद की जिन किताबों के हिंदी अनुवाद हैं भी उन्‍हें संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता है। और रामविलास शर्मा जी ने यूं तो किताबें लिखकर रैक भर दिये हैं लेकिन उनके माध्‍यम से मार्क्‍सवाद समझने वालों का खुदा ही मालिक हो सकता है। ऐसे में अगर कोई राजनीतिक संगठन प्रकाशन तंत्र और न्‍यास संगठित करके हिंदी भाषी लोगों को अपनी भाषा में विश्‍वस्‍तरीय साहित्‍य और मार्क्‍सवाद की पुस्‍तकें उपलब्‍ध कराने के इन बेहद ज़रूरी कामों को करता है तो इसके लिए उसे साधुवाद दिया जाना चाहिए या गालियां?
हालांकि आज भी बहुत बड़ी संख्‍या ऐसे लोगों की है जिनके लिए दुनिया माओ के बाद से आगे ही नहीं बढ़ी है और निश्चित ही उन्‍हें किताबों की और बहस-मुबाहिसे की उतनी जरूरत भी नहीं है। वैसे मजेदार बात तो यह भी है कि हथियार खरीदने के लिए चंदा मांगने को बुद्धिजीवी लोग जायज समझते हैं लेकिन पुस्‍तकें छापने के लिए चंदा मांगने को वे गलत समझते हैं और कोई तर्क पेश किए बिना साधन और साध्‍य जैसे बौधिक जुमलों के द्वारा अपना काम चला लेते हैं। वैसे 21वीं सदी की प्रौद्योगिकी और नव जनवादी क्रांति (एनडीआर) की लाइन ने भी तमाम बौद्धिकों की पौ बारह कर दी है। आज कोई भी व्‍यक्ति ब्‍लॉग पर गरमागरम बातें लिखकर और पैसिव रैडिकलिज्‍म की लीद फैलाकर क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी होने का तमगा हासिल कर सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसे कम्‍युनिज्‍म की समझदारी है भी या नहीं या कम्‍युनिज्‍म के प्रति उसका समर्पण है भी या नहीं। मध्‍यवर्गीय रूमानी फिलिस्‍टाइन को इससे कोई मतलब भी नहीं है। वह स्‍वयं को एक नायक की तरह देखना पसंद करता है और निजी जीवन में क्रान्ति से भले ही उसका कभी साबका न पड़ा हो और सामाजिक कामों के लिए चंदा देते समय भी बीवी से डरता हो लेकिन बौद्धिक जगत में हल्‍ला मचाने का साधन उसकी पहुंच में आ गया है और वह शहीदाना अंदाज में पोस्‍ट पर पोस्‍ट लिखे जाता है। हो सकता है कि उसने वह चौराहा भी देख रहा हो जहां 'मुक्‍त क्षेत्र' बनने के बाद उसकी मूर्ति लगाई जाएगी।
स्‍तालिन ने यों ही नहीं कहा था कि एशियाई देशों की क्रान्तियां झूठ-फरेब, मक्‍कारी, चुगली और षडयंत्रों से भरी होंगी। जनज्‍वार पर आकर आपने और आपके सहयोगियों ने न सिर्फ स्‍तालिन की बात को पुष्‍ट कर दिया बल्कि अपने ही कृत्‍यों से न्‍यास और प्रकाशन संगठित करने की जरूरत को बल प्रदान कर दिया है। आपने भी बस यही साबित किया है कि आज के पके पकाये बुद्धिजीवियों से रैडिकल चिंतन और व्‍यवहार की उम्‍मीद करना वैसा ही है जैसे जरसी गाय से युद्धाश्‍व के कारनामों की उम्‍मीद पालना। इसीलिए नये साहसी, रैडिकल, युवा, कर्मठ बौद्धिक तत्‍वों की तैयारी का काम और भी ज़रूरी है।
जनज्‍वार के अपने जिन साथियों की बातों का आपने समर्थन किया है (हालांकि यह समर्थन आपने नसीहतों की आड़ में किया है) उनके साथ मैं पिछले 10-12 सालों से जमीनी स्‍तर पर काम कर चुका हूं। अपने राजनीतिक और निजी जीवन में इन लोगों की पतनशीलता का मुझे प्रत्‍यक्ष अनुभव है और ये सारे के सारे जमीनी कार्यों में एकदम फिसड्डी साबित हो चुके हैं। जो इस बात से भी साबित होता है कि संगठन से निकाले जाने के बाद इनमें से किसी भी शख्‍स की जमीनी कार्रवाइयों में किसी प्रकार की कोई भागीदारी नहीं रही है। अपनी हर असफलता को दूसरों के मत्‍थे मढ़ने की इनकी आदत और नीयत जनज्‍वार पर लिखे इनके ही पोस्‍टों से जाहिर हो जाती है। आज आपको इन हिजड़ों की संगत पसंद आ रही है तो आपको सोचना चाहिए कि आप कहां पहुंच गये हैं। जनज्‍वार ने अपनी नंगई के द्वारा साबित कर दिया है कि भारत के कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन की पश्‍चगति अभी अपने मुकाम तक नहीं पहुंची है और इसमें तमाम तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी और (आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए) विरोधी लाइन वाले कतिपय संगठनों के कुछ लोग अपनी तरफ से पूरा सहयोग दे रहे हैं। चलिये देखते हैं कि यह पश्‍चगति कहां जाकर थमती है।

आपने साधन के साध्‍य बन जाने की बात अपनी पोस्‍ट में उठाई है। मेरे ख्‍याल से साधन के साध्‍य बना जाने की बात तब लागू होती है अगर किसी के सिद्धांत और व्‍यवहार में अंतर हो। जहां तक परिकल्‍पना और राहुल फाउण्‍डेशन की बात है, तो अगर आप कविताएं लिखने से फुरसत लेकर इनके प्रकाशनों को पढ़ेंगे तो आपको स्‍पष्‍ट पता चल जाएगा कि ये किन अर्थों में नये सर्वहारा नवजागरण और प्रबोधन की बात करते हैं और इनका व्‍यवहार इनके सिद्धांत की पूर्णत: संगति में है। यदि इन्‍होंने अपने वास्‍तविक विचारों को स्‍पष्‍ट रूप से जाहिर किए बिना लोगों से सहयोग लिया हो और केवल यही करते रहे हों तो आप यह कह सकते हैं कि साधन ही हमारा साध्‍य बन गया है। अगर साधन ही हमारा साध्‍य है तो करावलनगर, गोरखपुर और लुधियाना के मजदूरों के आन्‍दोलनों में हमारी भूमिका के बारे में आपके क्‍या विचार हैं।

कवि महोदय आप शायद जानते होंगे कि न्‍यास बनाना और किताबें छापना ऐसे काम हैं जो शुरू से ही नजर आते हैं। वहीं लोगों को संगठित करना एक ऐसा काम है जिसका आउटपुट तत्‍काल नजर नहीं आता। वर्तमान परिस्थितियों का हमारा मूल्‍यांकन और इसलिए हमारे काम का तरीका भी थोड़ा अलग है जो बुद्धिजीवियों को समझ में नहीं आता है। चूंकि हम समय-समय पर 'ऐक्‍शन' नहीं करते रहते और थोड़ा काम करके बहुत गाते नहीं, इसलिए जमीन से कटे बुद्धिजीवियों को लगता है कि हम बस किताबें ही छाप रहे हैं। वैसे क्‍या ये सरासर बेईमानी और बदनीयती नहीं है कि जानबूझकर किसी संगठन के कामों के एक हिस्से को अपने झूठे आरोपों का निशाना बनाया जाए और उसके कामों के बड़े और मुख्‍य पहलू की चर्चा ही न की जाए! तो कविवर ऐसी स्थिति में अत्‍यावश्‍यक है कि आंखें फाड़कर घूरती सच्‍चाईयों को समझने और उनके अनुरूप अपने सिद्धान्‍त और व्‍यवहार में परिवर्तन करने के लिए कम्‍युनिस्‍टों को प्रेरित करने हेतु ज़रूरी कामों के तौर पर मार्क्‍सवादी अध्‍ययन संस्‍थान और प्रकाशन जैसी संस्‍थाएं स्‍थापित की जाएं। आज जबकि 'भूतपूर्व' और स्‍वनामधन्‍य कम्‍युनिस्‍टों की जमात बढ़ती जा रही है जिसने कम्‍युनिज्‍म के बुनियादी उसूलों, मर्यादाओं और गुणों का परित्‍याग कर दिया है तो ऐसी संस्‍थाएं बेहद ज़रूरी हैं जो कम्‍युनिज्‍म के आदर्शों को बचाए रखने और नई पीढ़ियों को इस विरासत से शिक्षित-दीक्षित करने का काम करें। बेशक जिन्‍हें लगता है कि परिस्थितियां बदली ही नहीं हैं और जो कुछ लिखना पढ़ना था सब लिखा-पढ़ा और कहा जा चुका है और बस आंख मूंदकर लकीर पर लाठी पीटते रहना है उन्‍हें न्‍यास और प्रकाशन की जरूरत न तो है और न समझ में आयेगी।

नीलाभ जी आप भोलेपन की मिसाल कायम करते हुए लिखते हैं कि कात्‍यायनी, सत्‍यम और शशिप्रकाश के खिलाफ उनके ही कुछ पुराने साथियों ने आरोप लगाए हैं। इससे आप 'हतप्रभ' भी हैं और 'उदास' भी। जाहिर है आप हतप्रभ और उदास इसलिए हैं क्‍योंकि आप इन आरोपों को जायज और ईमानदारी की जमीन से उठाया गया समझते हैं। पर आप ऐसा क्यों समझते हैं। क्‍या आपने जानना चाहा कि इन लोगों के खिलाफ दूसरे पक्ष के क्‍या आरोप हैं। क्‍या आपने कभी जानना चाहा कि ये लोग जिन कार्यकर्ताओं के साथ काम करते थे उनके इनके बारे में क्‍या विचार हैं। आपने तो भोलेपन की इंतहा ही कर दी और आपने मान लिया कि जनज्‍वार के टिप्‍पणीकार ही सही हैं और दूसरा पक्ष गलत है। इस एकांगीपन की वजह क्‍या है नीलाभ जी। क्‍यों आपको लगता है कि संगठन/समूह ही हमेशा गलत होता है और आरोप लगाने वाला कार्यकर्ता हमेशा सही होता है। और क्‍या आपको लगता है कि इन सब बातों का फैसला करने का सबसे उपयुक्‍त मंच ब्‍लॉग ही है। क्‍या ब्‍लॉग जैसे सशक्‍त टूल ने नीलाभ को गैरजिम्‍मेदार बना दिया है या यह पुरानी खुन्‍नस निकालने का एक जरिया है।
-- एक नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ता, दिल्‍ली

2 comments:

shameem said...

mayawati ki jeewani ka sampadan karne walon se aap umeed na hi karein to accha hai

कामता प्रसाद said...

शमीम की टिप्‍पणी काबिले गौर और मौजूं है। अब जाहिर सी बात है कि इतने नामचीन बुद्धिजीवी की बाजार में औकात इतनी तो नहीं ही गिर गयी थी कि उसे उजरत कमाने के लिए गुंडे-गुंडियों की जीवनी लिखनी पडे।