Monday, July 13, 2009

मीडिया में आई गिरावट पर मीडिया वालों की चिंता का सार क्‍या है...।

आजकल मीडिया में स्‍वयं मीडिया की आलोचना छायी हुई है। मीडिया के गिरते स्‍तर पर मीडिया से जुड़े तमाम लोग विचार-विमर्श कर रहे हैं। सरकार भी मीडिया पर नियंत्रण लगाने के मूड मे दीख रही है और अगर सरकार जल्‍दी करती नहीं दीख रही है तो इसका बस एक ही कारण है कि अपनी तमाम गिरावट के बावजूद मीडिया सरकार के लिए उपयोगी ही साबित हो रहा है, वह स्‍वयं अपने तईं वह सारे काम कर रहा है जो वर्तमान दौर में उसकी ऐतिहासिक भूमिका के लिहाज से प्रासंगिक है। मोटा-मोटी यह कहना गलत नहीं होगा कि मीडिया का जिस हद तक पतन होता जाएगा उस हद तक वह आम जनता के लिए नुकसानदेह और सरकार के लिए फायदेमंद होता जाएगा।

यहीं यह सवाल उठना लाजिमी है कि फिर मीडिया के पतन पर इतना शोर क्‍यों।

इस प्रश्‍न का जवाब एक दूसरे प्रश्‍न के जवाब में निहित है कि मीडिया के पतन पर चिन्‍ता व्‍यक्‍त करने वाले लोग कौन हैं और उनकी चिन्‍ता का सार क्‍या है।

व्‍यक्तियों से पहले विचारों की बात करना सही तरीका होगा क्‍योंकि अं‍तत: व्‍यक्तियों का महत्‍व उनके नामों से नहीं बल्कि उनके विचारों से ही तय होता है और विचारहीन मनुष्‍य जैसी कोई चीज नहीं होती।

मीडिया के पतन पर स्‍यापा करने वाले ज्‍यादातर लोग स्‍वयं मीडिया की इस पतनकथा के प्रत्‍यक्षदर्शी रहे हैं। यह कहना भी अतिश्‍योक्ति नहीं होगी कि इन तमाम प्रत्‍यक्षदर्शियों में से ज्‍यादातर मीडिया में आई इस गिरावट के हमसफर रहे हैं, कुछ इस गिरावट के लिए जिम्‍मेदार रहे हैं तो कुछ मूकदर्शक और कुछ अन्‍य इसके लाभार्थी रहे हैं।

आज वे मीडिया में आई गिरावट पर आश्‍चर्यव्‍यक्‍त कर रहे हैं तो यह अपने आप में एक आश्‍चर्य की बात है क्‍योंकि मीडिया में मूल्‍यों का ह्रास किसी दुर्घटना का दुष्‍परिणाम नहीं बल्कि एक लंबी प्रक्रिया का नतीजा है जो लगातार उनकी आंखों के सामने घटती रही है।

आज मीडिया के जनपक्षधर न रह जाने की बात की जाती है पर इस बिन्‍दु पर विचार पर विचार नहीं किया जाता कि मीडिया अपने आप में कोई चिंतनशील प्राणी नहीं है। वह कितना जनपक्षधर है यह इस बात से तय होता है कि मीडिया से जुड़े लोग कितने जनपक्षधर रह गये हैं। मीडिया समाज से इतर कोई चीज नहीं है। वह समाज को प्रभावित भी करता है और समाज से प्रभावित भी होता है। समाज में जिन मूल्‍यों का बोलबाला होगा, समाज में जिन विचारों, लोगों और व्‍यवस्‍थाओं का प्रभुत्‍व होगा उसी की छाप उस समय के मीडिया पर रहेगी। आज मीडिया की चर्चा एक स्‍वायत्त स्‍वतंत्र निकाय के रूप मे की जा रही है, अन्‍य सामाजिक शक्तियों के साथ उसके अंतरसंबंधों का विश्‍लेषण नहीं किया जाता।

मीडिया की वर्तमान हालत पर चिंता व्‍यक्‍त करने वाले लेखों का विश्‍लेषण सतही, पूरा सत्‍य नहीं बल्कि सत्‍यांश, अपने को किनारे रखकर किया गया और ऐतिहासिक समझ के अभाव से परिपूर्ण नजर आता है।

आज के मीडिया को आज के विशिष्‍ट ऐतिहासिक दौर से काटकर नहीं देखा जा सकता। आज जब समाज में ही प्रगति पर प्रतिक्रिया हावी है, और आज जब ज्‍यादा नहीं बल्कि 60 साल पहले के राष्‍ट्रीय स्‍वाधीनता आंदोलन के दौर के मूल्‍य भी क्षरित हो गये हैं तो हम गणेशशंकर विद्यार्थी, प्रेमचंद और राधा मोहन गोकुलजी जैसे पत्रकारों की उम्‍मीद कैसे कर सकते हैं।

आज के मीडिया के स्‍वामित्‍व के स्‍वरूप, उसके उत्‍पादन के स्‍वरूप और उसका उत्‍पादन करने वाले लोग तथा उसके उपभोग के स्‍वरूप पर विचार करने के बाद और मीडिया मालिकों और मीडियाकर्मियों और मीडियाकर्मियों और आम लोगों के बीच के संबंधों पर विचार करने के बाद यह समझने के लिए बहुत अक्‍ल की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए कि आज का मीडिया ऐसा ही हो सकता है।

सामाजिक व्‍यवस्‍थाओं का स्‍वरूप बहुत हद तक इस बात से तय होता है कि समाज के प्रभावशाली तबकों के हितों के अनुसार चीजें कैसी होनी चाहिए।

असली मुद्दों के बजाय गौड़ मुद्दों की तरफ लोगों का ध्‍यान भटकाना, लोगों को अतार्किक और अवैज्ञानिक बनाना, विचारों के बजाय वस्‍तुओं और विश्‍लेषण की दृष्टि देने के बजाय तथ्‍यों पर जोर देना, पहलकदमी संगठित करने के बजाय लोगों को निष्क्रिय श्रोता बनाना क्‍या ये ही वे चीजें नहीं हैं जो किसी भी दौर के शासक वर्ग की जरूरत होती हैं। लोग अपनी दाल-रोटी के बजाय राखी सावंत के स्‍वयंवर में ज्‍यादा दिलचस्‍पी लें क्‍या आज के मालिक वर्ग की इसके अलावा कोई और चाहत हो सकती है। और क्‍या आज का मीडिया बिल्‍कुल यही काम नहीं कर रहा है। और क्‍या नामी-गिरामी मीडिया वालों को लाखों का पैकेज और अन्‍य सुख-सुविधाएं यही काम करने के लिए नहीं दी जा रही हैं।

खैर मैं जिस मुद्दे की तरफ फिलहाल आना चाहता हूं वह यह है कि मीडिया की हालत पर स्‍यापा करने वालों या यहां तक कि उसकी आलोचना करने वालों की चिंता/आलोचना का सार क्‍या है।

हमारे चिंतकों और सरकार की मुख्‍य चिंता यह है कि जिस तेजी से मीडिया अपने रसातल की ओर जाता रहा है उससे कहीं उसकी विश्‍वसनीयता ही संदेह के घेरे में न आ जाए क्‍योंकि यदि ऐसा हो गया तो जनमानस पर अपने विचारों का प्रभाव कैसे डाला जा सकेगा। एक मायने में यह‍ चिंता सही भी है क्‍योंकि आजकल मीडिया में जो लिखा-पढ़ा जा रहा है वह बुर्जुआ मानदंडों से भी बेहद घटिया स्‍तर का है। अखबारों के संपादकीय पृष्‍ठों की सामग्री का स्‍तर बेहद गिर गया है और पूरा लेख पढ़ने के बाद उसमें से कोई काम की बात कोई तार्किक समझदारी या विश्‍लेषण ढूंढ पाना मुश्किल होता है। कुछ स्‍वनामधन्‍य प्रतिष्ठित स्‍तंभकार अपनी चवन्‍नी चलाए जा रहे हैं। ज्‍यादातर लेखों का कोई आपरेटिव पार्ट ही नहीं होता है और यह समझना मुश्किल होता है कि लेख लिखा ही क्‍यों गया था। लगता है कि हमारे माननीय पत्रकारों, विचारकों ने सोचना-समझना, चिंतन करना और यहां तक कि पढ़ना-लिखना भी बंद कर दिया है। दो-चार डेटा, पुरानी पढ़ाई से हासिल दो-चार तर्क, दो-चार शब्‍दों की बाजीगरी और हो गया लेख तैयार। न्‍यूज और विज्ञापन का फर्क मिटता जा रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का महिमागान करने वाला मीडिया यह नहीं बताता कि सिर्फ वोट देने का अधिकार मिल जाना ही पूरा जनवाद नहीं होता। आज का मीडिया कहीं एकदम साफ झूठ बोल रहा है तो कहीं सत्‍यांश, कहीं वह जितना कहता है उससे कहीं ज्‍यादा छुपाता है तो कहीं वह निष्‍पक्षता की आड़ में स्‍पष्‍टत: जनविरोधी और प्रतिक्रियावादी प्रचार का माध्‍यम बना हुआ है।

मीडिया की दुर्गति पर चिंतित ज्‍यादतर विचारकों की चिंता उसके जनपक्षधर चरित्र की नहीं बल्कि उसकी स्‍तरहीन सामग्री को लेकर है। लेकिन मीडिया की बीमार हालत का उनका रोग-निदान जितना सतही और आंशिक है उनकी सलाह उतनी ही निष्‍प्रभावी है। कुल मिलाकर उनकी बातों का सार यह है कि मीडिया की विभिन्‍न भूमिकाओं के बीच संतुलन स्‍थापित किया जाए, कुछ कुछ सुधार करके चीजों को ठीक कर लिया जाए, न्‍यूज और विज्ञापन के बीच संतुलन बनाया जाए और मुनाफे के उद्यम के साथ-साथ मीडिया की विश्‍वसनीयता पर आंच भी न आने दी जाए। पूंजीपतियों के स्‍वामित्‍व वाले मीडिया के विकल्‍प का कोई खाका उनके पास नहीं है। उनकी गरमा-गरम आलोचना में किसी सार्थक पहल की दिशा नहीं है नौजवान मीडियाकर्मियों को वे इसी प्रणाली में फिट हो जाने के अलावा कोई दूसर मार्ग नहीं दिखा सकते। आखिर इसी मीडिया ने उन्‍हें शोहरत और सहूलियतें दी हैं इसलिए इसके स्‍वास्‍थ्‍य की चिंता तो उन्‍हें होती ही है, यह दीगर बात है कि इसका इलाज करने में वे असमर्थ हैं।