Monday, June 28, 2010

विश्‍व कप फुटबॉल, जाबुलानी और मैराडोना का सूट

दक्षिण अफ्रीका में चल रहा विश्‍व कप फुटबॉल प्री क्‍वार्टर फाइनल चरण में पहुंच चुका है। कुछ टीमें क्‍वार्टर फाइनल के लिए क्‍वालीफाई भी कर चुकी हैं। इस विश्‍व कप में अगर किसी एक व्‍यक्ति पर सबसे अधिक फोकस रहा है तो वह हैं अर्जेंटीना के कोच डिएगो मैराडोना। कैमरा बार-बार लौट कर उनकी तरफ आता है और उनकी अलग-अलग मुद्राओं को कैद करता रहता है। मैंराडोना का जीवन चढ़ावों-उतारों से भरा रहा है ये तो सभी जानते है फिर भी फुटबॉल प्रेमियों को मैराडोना प्‍यारे लगते हैं। किसी ने उनकी बुराई करते हुए एक बार उनके 'हैंड ऑफ गॉड' वाले गोल की चर्चा की। मेरे मन में बरबस यह ख्‍याल आया कि मैराडोना का हाथ ही तो असली 'हैंड ऑफ गॉड' है।
इस बार मैराडोना सूट में नजर आ रहे हैं, और उसकी फिटिंग भी कुछ ऐसी है कि मैराडोना जैसे व्‍यक्तित्‍व वाला आदमी ही उस तरह का सूट पहन एक ऐसे आयोजन में आ सकता है जिसपर सारी दुनिया की निगाहें हैं। वर्ना मैराडोना भी चाहें तो 'सेवाइल रो' से सूट सिलवा सकते हैं।

फुटबॉल विश्‍व कप में जो गेंद इस्‍तेमाल की जा रही है उसे नाइक कंपनी ने बनाया है और उसका नाम है 'जाबुलानी' ज़ुलु में जिसका अर्थ होता है 'आनंद मनाना' या 'खुशी देना'। पर जाबुलानी ने कइयों को दुखी कर दिया है। चूंकि खिलाड़ी इस नई गेंद से खेलने के आदी नहीं हैं इसलिए बॉल के नियंत्रण आदि को लेकर खिलाडि़यों विशेषकर गोलरक्षकों को परेशानी है। मुझे यह नहीं समझ में आता जिस गेंद का विश्‍व कप में इस्‍तेमाल किया जाना है उसको दो-तीन साल पहले ही बाज़ार में क्‍यों नहीं उपलब्‍ध करा दिया जाता है। ताकि हर टीम उसी गेंद पर अभ्‍यास करे। पर जबतक खेलों पर मुनाफाखोर कंपनियों का कब्‍जा रहेगा तब तक ऐसी चीजें होती रहेंगी।

फुटबॉल में अब लगता है कि खिलाडि़यों को गिरने की बीमारी हो गई है। विपक्षी खिलाड़ी जोर से छीं भी दे तो आजकल के फुटबालर ऐसे लोटने लगते हैं जैसे उनकी टांग टूट गई हो। इस चीज ने गेम का मज़ा कम कर दिया है। रेफरियों से होने वाली गलतियां भी थोड़ा मजा कम कर देती हैं। अगर रेफरी से गलती नहीं हुई होती और लैंपार्ड का गोल मान लिया जाता तो इंग्‍लैड-जर्मनी का मैच काफी रोचक बनता। हालांकि जर्मनी के मुकाबले इंग्‍लैंड का प्रदर्शन औसत ही रहा।

अगर खेल की बात करें तो ब्राजील, अर्जेंटीना, जर्मनी और स्‍पेन ने अब तक सबसे शानदार खेल दिखाया है। उनके खेल में अनुशासन और योजनाबद्धता है और सही मायनों में इन्‍होंने इंटेलिजेंट खेल का प्रदर्शन किया है। एशियाई देशों में दक्षिण कोरिया और जापान ने बढि़या खेल दिखाया है और अपनी गति और चुस्‍ती-फुर्ती से वे लंबे-लंबे खिलाडि़यों वाली यूरोपीय टीमों को टक्‍कर दे सकती हैं। डेनमार्क के खिलाफ फ्री किक पर जापानी खिलाडि़यों के दो गोल और एक फील्‍ड गोल उनके कौशल का बखान करते हैं। पर अगर मुझे सेमीफाइनल की चार टीमें चुननी हों तो मैं उपरोक्‍त चार को ही चुनुंगा। और इनमें भी स्‍पेन सबसे बढि़या टीम लग रही है। हालांकि दिल तो हमेशा ब्राजील के ही पक्ष में रहता है। अपना देश तो फुटबॉल में अभी बहुत पीछे है, तब तक हम ब्राजील को ही जितवाते रहेंगे। मजे की बात है कि इन चार सबसे अच्‍छी टीमों में से दो दक्षिण अमेरिका की हैं और दो यूरोप की। वर्ना ज्‍यादातर तो यूरोप की टीमें ही छायी रहती हैं। जिन टीमों में अनुशासन और योजनाबद्धता की कमी है और जिनकी रणनीति में कमजोरी है उनका हाल यह होता है विपक्षी के डी के पास पहुंच कर उन्‍हें समझ मे ही नहीं आता कि अच्‍छे मूव कैसे बनाएं। और इस चक्‍कर में सही मौका हाथ से निकल जाता है। जबकि उपरोक्‍त चारों टीमों के साथ ऐसी दिक्‍कत नहीं है। उनके खिलाड़ी फटाफट मूव बनाते हैं जैसे कि उन्‍होंने पहले से रिहर्सल कर रखा हो।
यहां चार टीमों को चुनने से मेरा इरादा को शर्त जैसा लगाने का नहीं है। मैं इन्‍हें सिर्फ इंटेलिजेंट गेसेज़ मानता हूं। और इसलिए अभी अंतिम विजेता या यहां तक कि फाइनलिस्‍टों की भी बात नहीं कर रहा हूं। हालांकि माकूल समय आने पर उनकी भी बात की जाएगी।

अगर आपके कुछ इंटेलिजेंट गेसेज़ हों या इस खेल के बारे में कुछ कहना हो या आपकी कोई 'गट फीलिंग' हो, तो कृपया यहां ज़रूर साझा करें।

Thursday, June 17, 2010

यूनियन कार्बाइड (भोपाल गैस कांड) और ग्रेजि़यानो (सीईओ की मौत) - एक संक्षिप्‍त तुलनात्‍मक अध्‍ययन।

घटना
यूनियन कार्बाइड - दिसंबर 2-3, 1984 की रात को अमेरिकी कंपनी की भारतीय सहायक कंपनी (यू सी आई एल) के प्‍लांट से जहरीली गैस के रिसाव से लगभग 20,000 लोगों की मौत और लाखों लोग प्रभावित।

ग्रेजि़यानो - ग्रेटर नोएडा स्थित ग्रेजियानो कंपनी के मजदूरों का आंदोलन और इस दौरान सीईओ ललित किशोर चौधरी की मौत।


घटना का कारण
यूनियन कार्बाइड - मुनाफे की हवस में शीर्ष प्रबंधन की जानकारी और आदेश पर बरती गई हर प्रकार की लापरवाही। निर्देशों की अवहेलना करते हुए बहुत अधिक मात्रा में अत्‍यंत जहरीली गैस का भंडारण। गैस को ठंडा करने वाले यंत्र का लंबे समय से बेकार पड़े रहना। चेतावनी देने वाले यंत्रों का काम न करना। यानी कि सारी की सारी जानबूझकर की गई लापरवाहियां।

ग्रेजियानो - अमानवीय कार्यस्थितियों, कम वेतन, छंटनी, प्रबंधन और उसके द्वारा पाले गए गुण्‍डों द्वारा गाली-गलौच और यूनियन बनाने की मांग पर मजदूरों ने आन्‍दोलन शुरू किया। कंपनी और ठेकेदारों के गुण्‍डों ने मजदूरों पर जानलेवा हमला किया (आजकल ये सभी उद्योगों में आम बात है)। सरिया, डंडों से मजदूरों की पिटाई की गई, सुरक्षा गार्डों ने फायरिंग भी की। लगभग 35 मजदूर गंभीर रूप से घायल हुए। पुलिस का दस्‍ता इस बीच पास में ही खड़ा रहा और प्रबंधन के इशारे पर कोई कार्रवाई नहीं की क्‍योंकि प्रबंधन अपने गुण्‍डों से मजदूरों को पिटवाकर अपनी ताकत दिखाना चाहता था। इस दौरान ग्रेजियानो के सीईओ ललित चौधरी को सिर पर चोट लग गई जो उनकी मौत का कारण बनी। क्‍या हुआ, कैसे हुआ यह किसी ने नहीं देखा। सीईओ की पत्‍नी के अनुसार ललित चौधरी की मौत व्‍यावसायिक प्रतिद्वंद्विता का नतीजा थी, मजदूरों के आंदोलन से उसका कोई संबंध नहीं था।


घटना के बाद की कार्रवाई
यूनियन कार्बाइड - कंपनी के मालिक वारेन एंडरसन को वीआईपी सरकारी मेहमान की तरह सरकारी हेलिकॉप्‍टर से भगा दिया गया। तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री ने उस समय कहा कि हम किसी को भी परेशान नहीं करना चाहते हैं। कुछ अखबारों ने लिखा कि यह मजदूरों की करतूत थी। लगभग 26 साल तक कानूनी नौटंकी जिसमें जघन्‍य आरोपों को मामूली लापरवाही में तब्‍दील कर दिया गया। सजा के नाम पर प्रमुख आरोपियों को 2-2 साल की सजा हुई। सजा के साथ ही साथ जमानत भी थमा दी गई।

ग्रेजियानो - सीईओ की मौत के बाद सरकार से लेकर प्रशासनिक तंत्र और अदालत तक और उद्योगपतियों की संस्‍थाओं से लेकर मीडिया तक सबने एकसाथ मजदूरों पर हल्‍ला बोल दिया। इस मुद्दे पर सरकार ने वरिष्‍ठ नौकरशाहों और पूंजीपतियों की एक कमेटी बनाई। पुलिस ने मजदूरों को ढूंढ़-ढूंढ़कर पकड़ा, बर्बर ढंग से पीटा और 137 मजदूरों को हिरासत में लिया। 63 पर सीईओ की हत्‍या करने का आरोप लगाया गया। बाकियों पर बलवा करने और शांति भंग करने का आरोप लगाया गया। इस बार न्‍यायालय ने बड़ी मुस्‍तैदी से मजदूरों की जमानत याचिकाओं को खारिज कर दिया। मजदूरों के साथ इंसानों जैसा बर्ताव करने का अनुरोध करने की हिमाकत करने के चलते तत्‍कालीन श्रम मंत्री ऑस्‍कर फर्नांडीज को अपना मंत्री पद गंवाना पड़ा। गरीब मजदूरों के परिवार सड़क पर आ गए। मीडिया को न पहले उनकी चिंता थी न अब है।

यह केवल दो घटनाओं से संबंधित तथ्‍यों की एक संक्षिप्‍त प्रस्‍तुति है: निष्‍कर्ष निकालने का काम पाठक स्‍वयं करें।

ग्रेजियानों की घटना के बारे में अधिक विस्‍तार से जानने के लिए मेरी एक पुरानी पोस्‍ट देखें।

Thursday, June 10, 2010

आज अगर नीरो होता...

इतिहास ने स्‍वयं को दोहराया तो जरूर पर जहां त्रासदी संहारक थी वहीं प्रहसन इतिहास की एक शर्मनाक प्रतीक घटना बनकर सामने आया है। 26 साल पहले हुई त्रासदी को अंजाम देने वालों को एक लंबी, उबाऊ और कष्‍टप्रद नौटंकी के बाद सजा के नाम पर तोहफे बांटे जा रहे हैं। 26 साल पहले इंसानियत रोई थी, आज वो शर्मसार है।

क्‍या लिखूं कुछ सूझ नहीं रहा है। पड़ोस के घरों से टीवी पर चल रहे किसी लाफ्टर शो के जजों और दर्शकों की अर्थहीन हंसी सोचने की प्रक्रिया को बाधित कर रही है। हां इस शर्मनाक घड़ी में भी लाफ्टर शो देखने वालों की कमी नहीं है। गनीमत है कि कोर्ट का यह फैसला आईपीएल के बीत जाने के बाद आया है वर्ना मीडिया वाले भी इस मुद्दे पर इतना समय जाया न करते।
15000 लोगों को कत्‍ल करने वाले को जनता के प्रतिनिधियों ने सरकारी हेलिकॉप्‍टर से भगा दिया। जनता की फिक्र करने वाली कोर्ट ने 26 साल तक भुक्‍तभोगियों को घाट-घाट का पानी पिलाया। आज एक तरफ जहां अपराधियों को प्रसाद बांटे जा रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ उसी पार्टी की सरकार न्‍यूक्लियर लायबिलिटी बिल तैयार कर रही है जिसमें भविष्‍य के ऐसे अपराधियों को हल्‍के में छोड़ देने के लिए कानूनी उपाय किए जा रहे हैं। एक जनप्रतिनिधि (कानून मंत्री) दिलासा दे रहे हैं कि केस बंद नहीं हुआ है, वहीं दूसरी तरफ से यह भी कह रहे हैं कि सरकार ने एंडरसन मामले में सीबीआई पर दबाव नहीं डाला था। 19 साल बाद रुचिका को तो न्‍याय लगता है मिल गया, पर भोपाल के लाखों लोगों को अभी लंबी लड़ाई लड़नी है।
अचानक जोरदार हंसी से पूरा मुहल्‍ला गूंज उठता है। किसी प्रतिस्‍पर्धी ने एक द्धिअर्थी चुटकुला सुनाया है। सेंसर बोर्ड के अलावा बाकी दुनिया को इस चुटकुले का एक ही अर्थ समझ में आएगा। इस चुटकुले पर सबसे जोर से हंसने वाला भी एक जनप्रतिधि है। ऐसा लगता है कि उसने सारी दुनिया की हंसी पर कब्‍जा कर लिया है और हंसे चले जाता है। उसकी हंसी में कभी बेशर्मी तो कभी अश्‍लीलता झलकती है। जनता के पास हंसने का कोई कारण ही नहीं बचा है। इसलिए आजकल हंसी को व्‍यायाम बना दिया गया है। एक ज्ञानी कहता है रोज इतनी देर हंसा करो (चाहे हिरोशिमा पर बम गिरे चाहे भोपाल में गैस रिसने से लोग मरें) नहीं तो फलाने-फलाने रोग हो जाएगा। कुछ लोग डर के मारे हंसते हैं। वे हंसी अफोर्ड कर सकते हैं, जनता नहीं कर सकती। जनता तो सिर्फ अपने ऊपर हंस सकती है। जनता केवल बेबसी की हंसी हंस सकती है, अपना चू..या कटते हुए देख कर हंस सकती है।
आज नीरो होता तो शायद भोपाल के किसी घर में टीवी पर लाफ्टर शो देख रहा होता।