Thursday, June 2, 2011

मीडिया के सिमैंटिक्‍स की चुनौतियां

अगर मनुष्य 'ह्यूमन कैपिटल' (मानवीय पूंजी) है, तो इसमें निहित है कि मुनाफे के लिए उसका निवेश किया जा सकता है। अगर मनुष्य एक 'संसाधन' (रिसोर्स) है, तो इसमें निहित है कि उस संसाधन का किसी पूर्वकल्पित उद्देश्य के लिए निवेश किया जाना है, और एक बार यह उद्देश्य निर्धारित हो जाने के साथ ही यह जरूरी हो जाता है कि कैपिटल या रिसोर्स का कुशलतम विकास और उपयोग किया जाये और उसके बारे में समस्त जानकारी एकत्रित की जाये। लिहाजा हमारे पास एक तरफ 'मानव संसाधन विकास मंत्रालय' है तो दूसरी तरफ 'आधार' (यूनिक आइडेंटिटी) योजना है। और हर ह्यूमन कैपिटल को उसकी विशिष्ट पहचान (यूनिक आइडेंटिटी) प्रदान करने का काम एक शीर्ष पूंजीपति और पूंजीपतियों के आइडियोलॉग नन्दन निलेकणी से अधिक उपयुक्त कौन होगा।
प्रश्न सरकार या पूंजीपति का नहीं बल्कि प्रश्न यहां मीडिया और उसके द्वारा शब्दों के प्रयोग का है। हर शब्द के साथ उसका अर्थ जुड़ा होता है और यहां आशय शब्द के शब्दकोशीय अर्थ से नहीं बल्कि उससे अधिक उसकी अर्थवत्ता, मूल्य, संदर्भ, निहितार्थ और प्रभाव से है। व्यापक अर्थों में कहें तो उस शब्द की विचारधारात्मक प्रतिध्वनि का है। मीडिया जाने-अनजाने जिन शब्दों का प्रयोग करता है वह जाने-अनजाने उन शब्दों से जुड़े मूल्यों को भी सम्प्रेषित करता है। प्रश्न यहां शब्द-सौन्दर्य के आधार पर शब्दों के चयन का नहीं बल्कि शब्द के व्यवहार में आलोचनात्मक विवेक का प्रयोग या प्रयोग न करने का है। अधिक ठोस निरूपण करें तो कह सकते हैं कि प्रश्न सत्ता-तन्त्र की शब्दावली के व्यवहार के माध्यम से मीडिया द्वारा उसकी विचारधारा को सहयोजित (को-ऑप्‍ट) कर लेने का है या जनमत निर्माता (कांशियंस बिल्डर) की भूमिका में मीडिया की पक्षधरता का है। 
हमारे देश की बौधिक चर्चाओं में किसी अन्य शब्द का उतना उपयोग या दुरुपयोग नहीं हुआ है जितना कि 'आम आदमी' का। शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता है जब मीडिया में आम आदमी की दुर्गति का रोना न रोया जाये और हर अखबार और न्यूज चैनल स्वयं को 'आम आदमी' का सबसे बड़ा हिमायती दिखाना चाहता है। लेकिन लगता है कि मीडिया अभी तक यह तय ही नहीं कर पाया है कि भारत का 'आम आदमी' आखिर है कौन?
आगे बढ़ने से पहले नीचे की पंक्तियां देखें:
'बजट से आम आदमी की अपेक्षाओं में सबसे ऊपर है आयकर में छूट।'[1]
'आम आदमी के सपनों की कार' (टाटा नैनो के बारे में)।[2]
ये पंक्तियां अनायास ही भारत के एक 'आम आदमी' की छवि गढ़ती हैं। दूसरी तरफ एक सरकारी समिति है जिसके अनुसार भारत की 77 फीसदी आबादी 20 रुपये रोज़ से कम पर गुज़ारा करती है। निश्चित ही अर्जुन सेनगुप्ता समिति की यह 77 फीसदीआबादी इन अख़बारों की 'आम आदमी' की परिभाषा में शामिल नहीं है। प्रकारान्तर से उपरोक्त कथनों से क्या यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि जो आयकर नहीं देता वह आम आदमी नहीं है। अगर ये अखबार देश की 77 फीसदी आबादी को 'आम आदमी' और खास आदमी की श्रेणी में नहीं गिनते तो फिर ये आबादी कौन-सी श्रेणी में आयेगी?
ऐसा नहीं है कि मीडिया '77 फीसदी' आबादी की बात नहीं करता। ऐसा भी नहीं है कि मीडिया सेनगुप्ता समिति के आंकड़ों से परिचित नहीं है या उन आंकड़ों का प्रयोग नहीं करता है। सवाल यह है कि मीडिया ने अपने आलोचनात्मक विवेक का प्रयोग क्यों नहीं किया। वह नैनो की निर्माता कंपनी या उसकी पीआर एजेंसी द्वारा चलायी शब्दावली को बिना सोचे-विचारे क्यों प्रयोग करता चला गया। आम आदमी को करों में छूट देने के लिए अपनी पीठ थपथपाने वाले वित्तमन्त्री से कड़े सवाल पूछने के बजाय मीडिया उनके 'आम आदमी' प्रेम के लिए उन्हें धन्यवाद प्रेषित करता नजर आता है। क्या मीडिया इतना भोला-भाला है कि एक मन्त्री और एक पूंजीपति ने इतनी आसानी से उसका फायदा उठा लिया। सरकार, पूंजीपति और मीडिया की भाषा में इस तरह की साम्यता क्या आम आदमी के लिए खतरे की घण्टी नहीं बजाती।
इस विशेष मामले थोड़ा छूट देकर अगर यह मान लिया जाये कि असावधानी की वजह से मीडिया ने सत्ता-तन्त्र को अपना फायदा उठा लेने दिया तो एक अन्य उदाहरण देखियेः
''...जब पूरी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था तथा जनता अपने आर्थिक विकास की गति पर गौरव करते हुए प्रगति के शिखर पर पहुंचने की आकांक्षा रखती है...'' (नई दुनिया, 11 सितम्बर 2009 का सम्पादकीय 'हड़ताल का अपराध')
पहले उदाहरण में जहां मीडिया की दृष्टि में शायद 'आम आदमी' की परिभाषा स्पष्ट नहीं है तो यहां सम्पादक महोदय ने लगता है खुद को ही 'जनता' मान लिया है। क्योंकि 20 रुपया से कम पर गुजारा करने वाले 77 फीसदी लोग, भूख से बेहाल देश का हर चौथा नागरिक, रक्ताल्पता से जूझ रही हर तीसरी स्त्री और कुपोषण का शिकार हर दूसरा बच्चा (पांच साल से कम आयु) आर्थिक विकास पर गर्व करने वाली 'जनता' में तो निश्चित ही नहीं शामिल होगा। पहले उदाहरण में जहां मीडिया का प्रच्छन्न रूप से फायदा उठा लिया जाता है, वहीं दूसरे उदारहण में मीडिया सत्ता-तन्त्र के पक्ष में सचेत प्रोपेगैण्डा कर रहा है, शासक वर्ग के पक्ष में सचेत रूप से जनमत निर्माता की भूमिका निभा रहा है।
यहीं मीडिया के सामने एक चुनौती भी खड़ी हो जाती है कि जिसे चैथा खम्भा कहा जाता है वह वास्तव में जनतन्त्र का चौथा खम्भा है या राज्यसत्ता का। मीडिया लोगों की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और कठिनाइयों से शासक वर्ग को अवगत करा रहा है या शासक वर्ग के पक्ष में जनता की राय बना रहा है, लोगों के भीतर अपने खुद के कष्टों को अपनी नीयति मानकर अभिजात वर्ग की उपलब्धियों का उत्सव मनाने की मानसिकता निर्मित कर रहा है। पर यह एक अलग निबन्ध का विषय है।
मीडिया ने जहां भाषा के मामले में असावधानी बरती है वहीं सत्ता-तन्त्र ने उसपर पर्याप्त ध्यान दिया है। पीआर एजेंसियों का काम सिर्फ सत्ता के गलियारों में अपने क्लाइंट के हितों की पैरवी करना ही नहीं है, बल्कि उनका एक प्रमुख काम मीडिया मैनेजमेंट भी है। जिन्दगी में आगे बढ़ने की चाहत रखने वाले युवा पत्रकारों के लिए राडिया टेप एक गाइडबुक का काम कर सकते हैं। भारतीय मीडिया के पाठ्यक्रम में नीरा राडिया के अध्याय ने अपनी सशक्त उम्मीदवारी पेश की है और इसकी उपेक्षा करना किसी भी भावी मीडियाकर्मी के लिए असम्भव होगा। इन टेपों की दुनियादारी, दूकानदारी और सौदेबाज़ी की नंगी, दो-टूक भाषा शैली की तुलना टीवी या प्रिंट मीडिया की परिष्कृत-परिमार्जित और खास लहजे और शैली में बोली और लिखी जाने वाली भाषा से करें तो मीडिया के सिमैंटिक्स (शब्दार्थ-विज्ञान) की गहन अंतर्दृष्टि हासिल होती है। मुझे नहीं लगता कि इन टेपों में कहीं 'ह्यूमन कैपिटल', 'आम आदमी', 'कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी', 'क्रोनी कैपिटलिज्म' जैसे शब्दों को उतना प्रयोग हुआ है, यदि हुआ भी है तो, जितना कि सार्वजनिक रूप से होता है। इस पूरे 'उद्यम' के एक 'स्टेकहोल्डर' ने 'बनाना रिपब्लिक' शब्द का प्रयोग अवश्य किया, मगर वह भी केवल इन टेपों के उजागर हो जाने के बाद व्यक्तिगत साख मिट्टी में मिल जाने की सम्भावना से घबराकर ही।
पहले सरकार सामाजिक दायित्व निभाती थी या ऐसा माना जाता था कि सरकार का सामाजिक दायित्व होता है। तब कॉरपोरेट सिर्फ मुनाफा कमाते थे। कालान्तर में सरकार ने अपना सामाजिक दायित्व निभाना बन्द कर दिया और अपना कॉरपोरेट दायित्व निभाना शुरू कर दिया। सत्ता-तन्त्र ने सत्ता के खेल की शब्दावली में एक नया शब्द जोड़ा 'कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी' (कॉरपोरेट का सामाजिक दायित्व)। अगर मुक्त बाजार अपने 'अदृश्य हाथ' से हर व्यक्ति तक समृद्धि का फल खुद ही पहुंचा देता है तो मुनाफा कमाने के अलावा कॉरपोरेट पर सामाजिक दायित्व का अतिरिक्त बोझ डालने की जरूरत ही क्या है?
पर एक बार फिर प्रश्नों का चयन मीडिया के अधिकार-क्षेत्र में आता है और इसके लिए वह अपने विज्ञापनदाताओं के अलावा किसी और के प्रति जिम्मेदार भी नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि टीवी पर गला फाड़ने वाले इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया के योद्धाओं ने प्रधानमन्त्री के साथ अपनी हालिया सीधी बातचीत में ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी जैसे विषयों पर कोई प्रश्न ही नहीं पूछा।[3] प्रधानमन्त्री के प्रति उदारता का प्रदर्शन करने वालों के अपने-अपने चैनलों पर चलने वाले कार्यक्रमों के नामों पर ज़रा ग़ौर फरमाएं - 'वी द पीपल', 'डेविल्स एडवोकेट', 'सीधी बात', 'वीर के तीर', 'फेस द नेशन', 'द बक स्‍टॉप्‍स हियर', 'वॉक द टॉक', 'फ्रैंकली स्पीकिंग विद अर्णब', इत्यादि। हल्के प्रश्नों और कार्यक्रमों के जोरदार नामों की तुलना करें और सिमैंटिक्स का महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाएगा।
राडिया टेपों ने प्रवचनात्मक पत्रकारिता करने वाले मीडिया को अपने स्वनिर्मित उच्च आसन से उतारकर आत्मान्वेषण करने पर विवश किया। इसने यह भी एकदम स्पष्ट कर दिया कि अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देने वाला मीडिया स्वयं अपना ही सबसे बड़ा सेंसर है। विषयों के चयन से लेकर प्रश्नों और भाषा तथा वक्ताओं के चयन तक मीडिया ने अपना दायरा स्वयं ही सीमित कर लिया है। 'नेक्सस' (गठजोड़) और 'क्रोनी कैपिटलिज़्म' (चहेतों का पूंजीवाद) तब नया अर्थ ग्रहण कर लेते हैं जब कार्यक्रमों की उबाऊ एकरूपता, वक्ताओं और लेखकों की नियमितता और बातों के दुहराव के मामले में और मीडिया कॉरपोरेशनों के अन्दरूनी मामलों की रिपोर्टिंग न करने के मामले में सभी मीडिया संस्थानों की नीति एक जैसी दिखाई पड़ती हे। मीडिया संस्थानों के मीडिया कॉरपोरेशनों में तब्दील होने के साथ ही कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व एक नये रूप में सामने आता है, और इस बार उसका नाम 'सपोर्ट माई स्कूल', 'ग्रीनाथॉन', 'सिटिज़न जर्नलिस्ट', 'इण्डियन ऑफ द ईयर' होता है।
यूं तो पूंजी का कोई देश नहीं होता और जहां सस्ता श्रम मिल जाये उसका वहीं निवेश हो जाता है। लेकिन पूंजीपति का देश होता है और चूंकि उसका पैसा मीडिया में लगा होता है इसलिए मीडिया इस बिकाऊ देशप्रेम का सबसे बड़ा प्रवक्ता और प्रस्तोता बन जाता है। चूंकि मुख्यधारा की मीडिया के लिए देश का मतलब देश के लोगों से नहीं होता इसलएि व्यक्ति के अधिकार और उपेक्षित जातियों, राष्ट्रीयताओं के अधिकार के मसले पर मीडिया राज्यसत्ता द्वारा खींची लक्ष्मण-रेखा के ज्यादा इधर-उधर भटकने की जहमत नहीं उठाता। यहां देश और देशप्रेम सभी शब्दों और भावनाओं पर प्रधान हो जाते हैं और बाकी सबकुछ उनके मातहत हो जाता है। यहां भी शब्दो के गूढ़ अर्थ में जाने का प्रयास नहीं किया जाता और एक छोटा-सा प्रश्न भी नहीं पूछा जाता 'किसका देश'।
नवम्बर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा दुनिया के दो 'महान जनतन्त्रों' का मिलन था। मीडिया में दोनों महान जनतन्त्रों की तारीफ की होड़ लगी हुई थी। अगर प्रोपेगैण्डा को स्वार्थपूर्ति का हथियार बनाया जाए तो सबसे पहला शिकार ऐतिहासिक तथ्यों को बनाना पड़ता है। जहां तक भारत के एक महान जनतन्त्रहोने की बात है तो इस लेख के शुरू में दिए गए कुछ आंकड़ों से उसकी सही तस्वीर साफ हो जाती है। वहीं दूसरी ओर अमेरिका कितना बड़ा जनतन्त्र है यह साबित करने के लिए सिर्फ इतना बताना काफी होगा कि 1968 तक वहां के कई राज्यों में डार्विन का सिद्धान्त पाठ्यक्रम में नहीं पढ़ाया जाता था क्योंकि वह बाइबिल की शिक्षाओं के खिलाफ जाता था, 1964 तक अफ्रीकी अमेरिकियों को कानूनी रूप से वोट देने का अधिकार नहीं प्राप्त था और 1965 तक वे बसों की पिछली सीटों पर बैठते थे और गोरों के आने पर उन्हें सीट छोड़कर खड़ा होना पड़ता था। आज भी पूरी दुनिया में अपने हितों के लिए अमेरिका जो अपराध कर रहा है उसे देखते हुए उसे महान जनतान्त्रिक देश तो नहीं ही कहा जा सकता है। किसी भी चैनल या अखबार ने पाठकों को इस मौके पर अमेरिका के इतिहास से परिचित कराने का प्रयास नहीं किया। मीडिया को वर्तमान की चिन्ता है और इसलिए वह देशों के इतिहास के बारे में पाठकों और श्रोताओं को नहीं बताता, पर यदि बात क्रिकेट के इतिहास की हो तो भारतीय मीडिया से ज्याद ज्ञान और कहीं नहीं मिल सकता। ओबामा की यात्रा के दौरान हमारा मीडिया तो इसी बात से अभिभूत था कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत को 'उभरता हुआ देश' नहीं बल्कि 'उभर चुका देश' घोषित किया। देश को मिलने वाले सम्मान से मीडिया की आंखें इस हद तक भर आई थीं कि वह राष्ट्रपति ओबामा और हथियार कम्पनियों के हितसाधक ओबामा के बीच कोई फर्क ही नहीं कर पाया। भारत की जमीन से ओबामा ने पाकिस्तान का जिक्र कर दिया यह मीडिया के लिए इतनी बड़ी बात थी कि ओबामा से सिर्फ पाकिस्तान संबंधी प्रश्न पूछने की वीरता दिखाने वाली मुंबई की स्कूली छात्रा के लिए राजदीप सरदेसाई अपनी कुर्सी छोड़ने को तैयार हो गये थे। वास्तव में वे अपनी ही सफलता पर अभिभूत थे। उन्होंने उस छात्रा की सोच निर्मित करने (कांशियंस बिल्डिंग) में सफलता जो प्राप्त कर ली थी!

सन्‍दर्भ:
1 http://economictimes.indiatimes.com/quickiearticleshow/7591584.cms,
http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=44514  (अनुवाद हमारा)
2 http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4787878.cms,
http://www.bhaskar.com/2009/03/22/0903220705_tata_nano.html (अनुवाद हमारा)
3 द हिंदू में पी. साइनाथ का लेख 21 फरवरी 2011

(यह लेख अप्रैल 2011 के कथादेश के मीडिया विशेषांक में प्रकाशित हो चुका है।)

1 comment:

Anonymous said...

लेख काफ़ी विश्‍लेषणात्‍मक है, हमारी हार्दिक बधाई