Friday, December 31, 2010

विकिलीक्‍स और राडिया टेप्‍स : अपेक्षाएं, प्रभाव और विकल्‍प

पहली बात तो यह कि विकीलीक्‍स और राडिया टेप्‍स से ऐसी कोई नई जानकारी नहीं मिली जिसका पहले से अन्‍दाजा न हो। साम्राज्‍यवादी बर्बरता हो या बुर्जुआ नेताओं का दोमुंहापन, कॉरपोरट लॉबीइंग हो या मीडिया की हस्तियों का सत्ता के दलाल के रूप में काम करना..... कुछ भी नया, अप्रत्‍याशित नहीं है। न तो इससे व्‍यवस्‍था को कोई संकट उत्‍पन्‍न होने वाला है और न ही उसके ढंग-ढर्रे पर कोई फर्क पड़ने वाला है।

हमारे देश और दुनिया में निश्चित ही एक ऐसा पढ़ा-लिखा मध्‍यवर्गीय तबका (ग्रेट इंडियन मिडल क्‍लास का हिस्‍सा) है जिसकी भावनाओं को थोड़ी चोट पहुंची है। भले ही यह मध्‍यवर्गीय तबका किसी न किसी रूप में भ्रष्‍टाचार से लाभान्वित होकर ही आज इस स्थिति में पहुंचा है लेकिन अब उसे भ्रष्‍टाचार रास नहीं आता। वह एक सुन्‍दर, शालीन, दूध का धुला पूंजीवाद चाहता है। वह अभी तक भूला नहीं है कि कैसे वह भ्रष्‍टाचार, दहेज और जाति प्रथा के खिलाफ लेख लिखा करता था (परीक्षाओं और क्‍लासरूम में), कैसे उसने कसमें खाई थीं कि एक दिन खूब पैसा कमाकर वह देश से गरीबी मिटा देगा, कैसे वह कहता था कि दूसरों की मदद आप तभी कर पाएंगे जब आप स्‍वयं शक्तिशाली हों। पर परिस्थितियों की मार ने उसे घर, गाड़ी, नौकरी, प्रोमोशन, बीमा, बीबी, बच्‍चे में ऐसा उलझाया कि बेचारा किसी काम का न रहा।

पर उसने अपेक्षाएं अभी भी नहीं छोड़ी हैं। वो खुद कुछ नहीं कर पाया तो क्‍या उसके आदर्श रतन टाटा और बिल गेट्स तो कर रहे हैं। वे अपनी अरबों की सम्‍पत्ति दान कर रहे हैं, धर्म-कर्म के काम करके जनता के गुस्‍से से पंजीवाद की सुरक्षा कर रहे हैं। पर पूंजीवाद के सुंदर-सलोने मुखड़े पर भ्रष्‍टाचार के दाग उसे अच्‍छे नहीं लगते। भ्रष्‍टाचार-मुक्‍त पूंजीवाद उसका आदर्श है। हालांकि सच्‍चाई यह है कि भ्रष्‍टाचार से उसके जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ता, भ्रष्‍टाचार से उसकी चाय का स्‍वाद खराब नहीं होता, उसके खर्चो में कोई कमी नहीं आती। वह खुद लाइन में लगने के बजाय थोड़े पैसे देकर अपना काम जल्‍दी करवा लेता है और कहता है कि यहां तो ऐसे ही चलता है। कैरियर ओरिएंटेड पढ़ाई करने के कारण उसने कभी जाना ही नहीं कि भ्रष्‍टाचार-मुक्‍त पूंजीवाद भ्रष्‍टाचार वाले पूंजीवाद से किसी भी रूप में कम अत्‍याचारी नहीं होता। और अब उसका वर्ग बोध उसे यह तर्क समझने ही नहीं देता। अब वर्गीय पक्षधरता उसके नौजवानी के आदर्शों को सर भी नहीं उठाने देती।

इन खुलासों से जनता को भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जनता अपने सहज वर्ग बोध से सब समझती है। कॉरपोरेट मीडिया चाहे रतन टाटा को भारतीयों का आदर्श घोषित कर दे या पेड न्‍यूज चलाकर नेताओं की तारीफ करती रहे। पब्लिक सब समझती है। प्रश्‍न यह है कि अगर पब्लिक सब समझती है तो फिर सब सहती क्‍यों है।

पूंजीपतियों के बीच आपसी प्रतिस्‍पर्धा के कारण ऐसे खुलासे स्‍वयं बुर्जुआ मीडिया के माध्‍यम से समय समय पर आते रहते हैं और आगे भी आते रहेंगे। पूंजीपतियों के बीच आपसी मार-पीट और गलाकाटू प्रतिस्‍पर्धा कहीं व्‍यवस्‍था के लिए ही संकट न पैदा कर दे इसलिए पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी या सरकार की चिंता यह है कि एक दूसरे को नंगा करने पर उतारू ये मुनाफाखोर पूंजीपति अपने-अपने स्‍वार्थ में अंधे होकर कहीं पूरी पूंजीवादी व्‍यवस्‍था को ही नंगा न कर दें। इसलिए प्रधानमंत्री का दुख यह नहीं है कि एक पूंजीपति उनकी पार्टी को अपनी दूकान कहता है तो दूसरे के मुताबिक उनका एक केंद्रीय मंत्री हर परियोजना पर 15 प्रतिशत दलाली लेता है। उनकी चिंता सिर्फ यह है कि कहीं पूंजीपति बुरा न मान जाएं और वे पूंजीपतियों को उनके हितों की रक्षा का आश्‍वासन देते घूम रहे हैं।


विकिलीक्‍स हो या राडिया टेप्‍स, ये खुलासे अपने आप में इस व्‍यवस्‍था के सामने इससे बड़ा संकट नहीं पैदा कर सकते। पूंजीवाद की सेहत पर इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता बस थोड़ा जुकाम हो सकता है। संकटग्रस्‍त पूंजीवाद भी अपने आंतरिक संकटों के कारण भरभराकर नहीं गिर पड़ेगा। उसे ध्‍वस्‍त करने के लिए बाहरी ताकत की आवश्‍यकता होगी। जनता की एकजुट शक्ति की फौलादी ताकत की आवश्‍यकता होगी। पूंजीवाद कोई न कोई जोड़-तोड़ करके लड़खड़ाते हुए भी काफी दूर तक चल सकता है पर जबतक लोगों की वैकल्पिक शक्ति एकजुट होकर प्रहार नहीं करती तबतक मरणासन्‍न हालत में भी यह व्‍यवस्‍था मनुष्‍य और प्रकृति पर काफी कहर बरपा करती रहेगी। इसलिए जरूरी है कि पूंजीवाद के संकटों पर खुशी मनाने के बजाय जनता की शक्ति को संगठित और गोलबन्‍द किया जाये।

Sunday, October 24, 2010

ओबामा की दुविधा और बुर्जुआ जनतंत्र की हकीकत

नोबेल शांति पुरस्‍कार ग्रहण करते समय बराक ओबामा ने झूठ नहीं कहा था कि उन्‍होंने अभी तक ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसकी वजह से यह पुरस्‍कार उन्‍हें दिया जाए। ओबामा पर आरोप यह नहीं है कि उन्‍होंने झूठ बोला बल्कि यह कि उन्‍होंने सच को छुपाया। उन्‍हें कहना यह चाहिए था कि उनका आगे भी ऐसा कुछ करने का इरादा नहीं है।

नोबेल पुरस्‍कार समिति की दुविधा यह है कि उन्‍हें नोबेल शांति पुरस्‍कारों के लिए सुयोग्‍य उम्‍मीदवार नहीं मिल रहे हैं। श्रम और पूंजी का अंतरविरोध जैसे-जैसे तीखा और व्‍यापक होता जा रहा है उसमें यह संभव नहीं रह गया है कि पूंजी के हितों के किसी पैरोकार को सर्वसम्‍मति से शांति पुरस्‍कारों के‍ लिए चुना जा सके। ऐसे में नोबेल पुरस्‍कार समिति ऐसे लोग को चुन रही है जो अपनी बातों से बुर्जुआ जगत को ऐसा आभास दिलाते हैं और जिनकी बातों की सच्‍चाई अभी सिद्ध नहीं हुई है क्‍योंकि ऐसी किसी सच्‍चाई के सिद्ध होने की संभावना ही नहीं बची है।

यही वजह है कि मोहम्‍मद युनुस को अर्थशास्‍त्र का नहीं बल्कि शांति का नोबेल पुरस्‍कार दिया गया क्‍योंकि उन्‍होंने सूक्ष्‍म ऋण के जाल में फंसाकर एक बड़ी मेहनतकश आबादी के गुस्‍से से पूंजीवादी व्‍यवस्‍था को बचाने का नुस्‍खा ईजाद किया था हालांकि ज्‍यादा समय नहीं हुआ कि यह नुस्‍खा भी बेकार साबित हो चुका है। पुंजी की मार जिस तेजी से लोगों को उजाड़कर दर-बदर कर रही है उसमें सूक्ष्‍म ऋण भी लोगों पर बहुत भारी पड़ रहा है। 

पर बराक ओबामा की दुविधा खत्‍म होने का नाम नहीं ले रही है। अमेरिका की बुरी तरह संकटग्रस्‍त अर्थव्‍यवस्‍था के लिए ओबामा की चलने-बोलने की मनमोहक अदाबाजी और सुचिंतित जुमलेबाजी एक ताजा हवा के झोंके और विश्‍वास बहाली के प्रयास सरीखी थी। पूरी दुनिया की पूंजीवादी अर्थव्‍यवस्‍थाओं तक इस विश्‍वास का अहसास पहुंचाने के‍ लिए एक विश्‍वस्‍तरीय मान्‍यता की जरूरत थी और दुनियाभर के सट्टा बाज़ार के खिलाडि़यों को भरोसा देने के‍ लिए नोबेल शांति पुरस्‍कारों से बढ़कर और क्‍या हो सकता था, भले ही इस शांति दूत का देश दुनिया में जनसंहारक हथियारों की आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा देश हो। ओबामा के आगमन पर हो-हल्‍ला मचाने वाला बुर्जुआ मीडिया भी अब उनकी तारीफ में कसीदे नहीं पढ़ रहा है। आखिर मीडिया भी किसी झूठ पर कितनी देर पर्दा डाल सकेगा।

ओबामा की दूसरी दुविधा उनके नाम को लेकर है। बेचारे क्‍या करें कि उनके नाम के बीच में हुसैन शब्‍द भी जुड़ा हुआ है और दुनिया के सबसे आधुनिक जनतांत्रिक देश की जनता को यह बात पच नहीं रही है कि उनका राष्‍ट्रपति एक खास धर्म (इस्‍लाम) का हो या एक खास धर्म (ईसाई) का न हो। बेचारे ओबामा यह बता-बताकर थक गए हैं कि उनके नाम में हुसैन शब्‍द भले ही आता हो लेकिन वे मुसलमान नहीं हैं। उन्‍हें डर है कि अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी लोकप्रियता और उनका पद भी छिन सकता है। उनपर लोगों को भरोसा भी कम हो जाएगा। उन्‍हें यह डर इस हद तक है कि अपनी आगामी भारत यात्रा के दौरान अमृतसर के स्‍वर्ण मंदिर में दर्शन करने जाते समय सिर ढंकने की प्रथा के कारण कहीं अमेरिका में उन्‍हें मुसलमान न समझ लिया जाए इसका निराकरण करने के‍ लिए उन्‍होंने अमृतसर की यात्रा ही रद्द कर दी। (बुर्जुआ पढ़ाई से मूर्ख ही पैदा हो सकते हैं इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका के लोग हैं। जॉर्ज बुश जैसे अल्‍पज्ञानी का राष्‍ट्रपति बनना भी इसी की एक बानगी था। हमारे यहां भी बहुत सारे लोग यह कहते नहीं अघाते कि भारत की सबसे बड़ी समस्‍या निरक्षरता है। जैसे कि अगर पढ़े लिखे होते तो उन्‍हें मनमोहन सिंह, राहुल गांधी और गडकरी से बेहतर नेता मिल जाते।)

आधुनिक बुर्जुआ धर्मनिरपेक्षता की गहराई बस इतनी है। भारत में संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए यह नारा दिया जाता है कि मुसलमान को राष्‍ट्रपति बनाया जाए, अमेरिका में संकीर्ण राजनीतिक हितों का तकाजा है कि मुसलमान राष्‍ट्रपति न बने। हमें तो अभी साठ साल ही हुए हैं पर तीन सौ से अधिक सालों से जनतांत्रिक प्रणाली होने के बावजूद अमेरिका का हाल हमसे कोई खास बेहतर नहीं है। इसके साथ ही पूरे यूरोप में इस्‍लाम के भय ने यह साबित कर दिया है कि धर्म, नस्‍ल, भाषा और लिंग जैसे लोगों को बांटने वाले मध्‍ययुगीन भेद आज भी पूंजीवादी राजनीति के लिए जरूरी उपकरण हैं। समाज को आगे ले जाने की विचारधारात्‍क शक्ति से क्षरित हो चुकी बुर्जुआजी के पास श्रम की संगठित ताकत का मुकाबला करने के‍ लिए लोगों को बांटने वाले ऐसे विभेदों पर निर्भर होने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं बचा है।

Saturday, October 2, 2010

बुर्जुआ राज्‍य के कानून में धर्मनिरपेक्षता और आस्‍था की खिचड़ी

पिछले दिनों अमेरिका, यूरोप से लेकर भारत तक घटी घटनाओं ने बुर्जुआ राज्‍यों की धर्मनिरपेक्षता का नकाब उतार फेंका है। चाहे क़ुरान को जलाने का मामला हो या वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर की भूमि पर मस्जिद बनाने का मसला हो, बुर्जुआ राज्‍यों का पक्षपात और कानून की विसंगतियां खुले रूप में सामने आई हैं। पर इस मामले में भारत ने बाकी देशों को पीछे छोड़ दिया है।

रामजन्‍मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर तीन जजों की खंडपीड ने जो फैसला सुनाया है और जिस तरह से इस फैसले पर पहुंचा गया है उससे पता चलता है कि भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था किस तरह काम करती है। तथयों की जिस तरह अनदेखी करके आस्‍था को आधार बनाकर फैसला किया गया है और इतिहास की गलतियों को ठीक करने का जिस तरह प्रयास किया गया है आने वाले भविष्‍य के लिए उसके गहरे निहितार्थ हो सकते हैं। जिस तरह रामलला को एक पक्ष बनाकर न्‍यायालय ने जमीन का एक टुकड़ा उन्‍हें या उनके प्रतिनिधियों को सौंपा है क्‍या उसी तर्क पर पूंजीवादी भारतीय राज्‍य की न्‍याय व्‍यवस्‍था आदिवासियों के जंगलों, नदियों और पहाड़ों को भी राष्‍ट्रीय-बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के चंगुल से छुड़ाकर उन्हें सौंपेगी। निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि मुनाफाखोर पूंजीवादी राज्‍य किसी भी हालत में ऐसा नहीं होना देगा।

भारत में यूं तो जिसके पास पैसा और पॉवर है वह कानून को अपनी जेब में रखकर घूम सकता है लेकिन भारत में विधि का शासन चलता है यह इस बात से भी पुष्‍ट होता है कि भगवान श्री रामलला को भी अपनी तथाकथित 'जन्‍म‍स्‍थली' पर अधिकार प्राप्‍त करने के लिए कानून की शरण में जाना पड़ा। आखिरकार सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वज्ञाता भगवान को मृत्‍युलोक के तुच्‍छ प्राणियों की अदालत में अपील करनी पड़ी और सिर्फ अपील ही नहीं करनी पड़ी नाबालिग होने के कारण उन्‍हें एक मानवमात्र का अभिभावकत्‍व भी स्‍वीकार करने पर मजबूर होना पड़ा जो निश्चित ही कोई अवतार नहीं है। मुसलमानों के साथ दिक्‍कत यह है कि उनका धर्म इसकी इजाजत नहीं देता कि वे अपने खुदा को इंसान की अदालत में पेश करें। शायद ऐसे किसी अलौकिक सम्‍बल की कमी भी एक कारण हो कि यह फैसला उनके खिलाफ चला गया।

भारत भूमि चमत्‍कारों की भूमि हैं। यहां कुछ भी असम्‍भव नहीं है। यहां किसी भी धार्मिक चीज में कोई विसंगति नहीं है। हर विसं‍गति के लिए उससे भी अधिक विसंगतिपूर्ण समाधान मौजूद है। यहां व्‍यक्तिगत लाभ के लिए किसी भी चीज को धार्मिक जामा पहनाकर मान्‍यता दी जा सकती है। यहां चंद मिनटों में भगवान को इंसान और इंसान को भगवान बनाया जा सकता है, कुकृत्‍य को सुकर्म बनाया जा सकता है पाप को पुण्‍य बनाया जा सकता है। बस देखना यह होता है कि करने वाला व्‍यक्ति कौन है। भारतीय राज्‍य की धर्मनिरपेक्षता की जमीन कितनी पोली है यह पूरा मसला उसका बखान करता है।

Thursday, September 30, 2010

कुपोषण, स्‍वाद और स्‍वामीनाथन अय्यर की संवेदनशीलता

'अर्थशास्‍त्र राजनीति का सान्‍द्रतम रूप है' मार्क्‍स के इस कथन की भोंडी अभिव्‍यक्ति इस रूप में हुई है कि भारतीय बुर्जुआ जनतन्‍त्र की कमान अर्थशास्त्रियों और वकीलों के हवाले हो गई है। अगर मुनाफे की गारंटी सबसे बड़ी सरकारी जिम्‍मेदारी बन जाए तो ज़ाहिर है सरकार इसमें कोई हस्‍तक्षेप बरदाश्‍त नहीं करेगी।

सुप्रीम कोर्ट ने जब कहा कि अनाज सड़ाने के बजाय गरीबों में बॉंट दिया जाये तो प्रधानमन्‍त्री फनफना उठे। किसे ज़िन्‍दा रखना है और किसे भूखा मारना है यह नीतिगत मसला है और विधायिका का काम है, इसलिए प्रधानमन्‍त्री महोदय ने न्‍यायपालिका को अपने दायरे में रहने की हिदायत अविलम्‍ब दे दी। देरी कर भी कैसे सकते थे। आज जबकि देशों का भविष्‍य शेयर बाज़ार के बुलबुले के फूलने और फूटने पर टिका हो वहां देरी कितनी घातक हो सकती है यह प्रधानमन्‍त्री अच्‍छी तरह जानते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भुखमरी के बाज़ार पर पड़ने वाली चोट देश की आर्थिक प्रगति के कर्णधार पूँजीपतियों में जो निराशा फैलाएगी उसकी चिन्‍ता अर्थशास्‍त्री प्रधानमन्‍त्री को नहीं होगी तो किसे होगी।

मुनाफा ही बुर्जुआ अर्थशास्‍त्र का ब्रह्मवाक्‍य है और पूँजीवादी बाज़ार का तर्क इस बात की इजाज़त ही नहीं देता कि माल को मुनाफे के लिए ज़रूरी कीमत से कम पर बेचा जाए। आखिर आज से पहले भी और पूरी दुनिया में अनाज सड़ता रहा है, जलाया जाता रहा है, या समन्‍दर में गिराया जाता रहा है। बाज़ार के खेल में यह एक सामान्‍य सी बात है जिसे सभी जानते हैं। मिलावट करना, जमाखोरी करना, कालाबाज़ारी करना भी उतना ही सामान्‍य है और पूरी तरह पूँजीवादी नैतिकता के दायरे में आता है। पर किसी माल को सस्‍ते में बेचना, मुनाफा कम करके बेचना.... नहीं नहीं... अर्थशास्‍त्री प्रधानमन्‍त्री की आत्‍मा चीत्‍कार उठी!!

आत्‍मा तो स्‍वामीनाथन अय्यर की भी चीत्‍कार उठी! लिहाजा उन्‍होंने फरमाया कि बात यह नहीं है कि लोग ग़रीब हैं और उन्‍हें खाने को पर्याप्‍त नहीं मिलता। दिक्‍कत यह है सरकार गरीबों को देने के लिए जितना सस्‍ता अनाज भेजती है वो वास्‍तविक गरीबों तक पहुंचने के बजाय ऐसे लोगों द्वारा हजम कर लिया जाता है जो महंगा अनाज खरीद सकते हैं। इसलिए सरकार को करना ये चाहिए कि गरीबों को जितना अनाज सस्‍ते में देना है उसको पाउडर के रूप में कुछ अन्‍य विटामिन और प्रोटीन मिलाकर देना चाहिए। अय्यर साहब की दरियादिली देखकर अगर आपकी आंखों में आंसू उमड़ पड़ने वाले हों तो ज़रा ठहरिये। स्‍वामीनाथन जी आगे कहते हैं - लेकिन ऐसा करने से पहले उस पाउडर को इतना कड़वा, बेस्‍वाद बना देना चाहिए कि केवल वही लोग उसे खाएं जो वास्‍तव में भूख्‍ा से मर रहे हों। ज़ाहिर सी बात है कि इतना बेस्‍वाद खाना खाने में अमीर लोगों को कोई दिलचस्‍पी नहीं होगी और लिहाजा वास्‍तविक ज़रूरतमंदों को पोषक भोजन मिल जाएगा।

इतना दयालु अर्थशास्‍त्री बिरले ही कभी पैदा हो। अय्यर साहब कम से कम हमारे प्रधानमन्‍त्री महोदय से ज्‍़यादा संवेदनशील तो हैं ही। प्रधानमन्‍त्री जहां लोगों को निवाला ही नहीं देना चाहते वहां अय्यर साहब केवल उस निवाले का स्‍वीद छीनने की बात कर रहे हैं।

गॉंव में देखा है कि मवेशियों के चारे में खली नाम की एक चीज मिलाई जाती है जिससे कि उनका चारा स्‍वादिष्‍ट हो जाए और वे ज्‍़यादा मात्रा में खाएं। यहां तक कि खली खरीदने से पहले किसान स्‍वयं थोड़ी खली चखकर भी देखते हैं कि उसका स्‍वाद जानवर को पसंद आयेगा या नहीं। किसान ही नहीं अय्यर साहब के यहां भी अगर कोई जानवर हो तो वे शायद ऐसा करते होंगे। आखिर जानवर खाएगा तभी तो मुनाफा कमा कर देगा। पर गरीब जनता का क्‍या? उसके लिए ही तो कहा गया है 'काम का न काज का, दुश्‍मन अनाज का'। अय्यर साहब और मनमोहन साहब दोनो को डर है कि अगर जनता को स्‍वादिष्‍ट खाना और वो भी सस्‍ते में खिलाया गया तो जनता तो 'परिक' ही जाएगी। और एक बार अगर यह सिस्‍टम चल पड़ा तो फिर बन्‍द करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होगा। लिहाजा एक तरफ प्रधानमन्‍त्री महोदय ने इंडिया इंक के सीईओ की हैसियत से न्‍यायपालिका को उसका दायरा बताया वहीं दूसरी ओर एक अन्‍य बुर्जुआ अर्थशास्‍त्री ने गरीब जनता के लिए उसकी सामाजिक हैसियत (जानवर से भी बद्तर) के मुताबिक एक समाधान पेश कर दिया। मुनाफे को इंसान से पहले रखने वाले बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों से इसके अलावा और किस तरह के समाधान की उम्‍मीद की जा सकती है। बाज़ार के मन्दिर में मुनाफे के पुजारी प्रसाद में इसके सिवा और दे भी क्‍या सकते हैं?

Friday, September 3, 2010

जिन्‍दगी और मौत के संघर्ष में 28 दिनों से साहस के साथ डटे हैं चिली के 33 खदान मजदूर।

गत 5 अगस्‍त को चट्टान ढहने से सुरंग के एक हिस्‍से के अवरुद्ध हो जाने के कारण चिली के 33 खदान मजदूर धरती की सतह से 700 मीटर नीचे जिन्‍दगी और मौत का संघर्ष कर रहे हैं। दो दिन के आहार की आपूर्ति पर इन मजदूरों ने 17 दिन तक अपने आप को जीवित रखा जब उनसे पहली बार संपर्क स्‍थापित हुआ और पता चला कि सभी 33 मजदूर जीवित और स्‍वस्‍थ हैं।

सुखद बात यह है कि अब इन मजदूरों के साथ लगातार संपर्क बना हुआ है, वे अपने प्रियजनों से संक्षिप्‍त बातचीत भी कर पा रहे हैं और उन्‍हें खाने-पीने की चीजें, दवाइयां, और टीके पहुंचाए गए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अभी सबसे जरूरी चीज यह है कि वे उम्‍मीद न हारें और उनका मनोबल बढ़ाया जाए। एक विशेषज्ञ का कहना है कि ऐसी स्थिति में भी उन्‍हें रोजमर्रे का अपना एक कार्यक्रम बनाना चाहिए और उसका पालन करना चाहिए वर्ना ऐसे समय में जबकि आप ऐसी स्थिति में फंसे हों और कुछ कर न रहे हों तो निराशा पैठने की संभावना रहती है।

इन 33 खदान कर्मियों को निकालने के लिए युद्धस्‍तर पर प्रयास किए जा रहे हैं पर यह जानकर निराशा हो सकती है कि अगर सबकुछ ठीक रहा तो भी उन्‍हें बाहर निकालने में लगभग 4 महीने का समय लग सकता है। उन्‍हें निकालने के लिए जो दूसरी सुरंग खोदी जा रही है उससे उत्‍पन्‍न होने वाले डेब्रिस को भी इन 33 मजदूरों को ही मेहनत करके हटाना होगा ताकि वे नई सुरंग तक पहुंच सकें और उन्‍हें बारी-बारी एक-एक करके निकाला जा सके।

चीन की तरह हालांकि चिली खदान दुर्घटनाओं के लिए कुख्‍यात नहीं है लेकिन फिर भी हम महसूस कर सकते हैं कि खदान कर्मियों का काम कितना जोखिम भरा होता है। हर साल दुनियाभर में कितने ही खदान मजदूरों की दुर्घटनाओं में मौत हो जाती है। कितनों की मौत तो खबर भी नहीं बन पाती। इसमें सबसे खतरनाक बात यह है कि ज्‍यादातर दुर्घटनाएं सुरक्षा उपायों की कमी या जोखिम भरे क्षेत्रों में खनन गतिविधियों के कारण होती है। खदानों का काम इतना जोखिम भरा होता है कि कहीं और काम न मिलने पर मजबूरी में ही कोई मजदूर खदानों की तरफ रुख करता है। चिली के कैपियापो शहर की तांबे और सोने की जिस सैन एस्‍टेबार खदान में यह दुर्घटना हुई वहां भी गैरकानूनी ढंग से काम हो रहा था। यही कारण है कि इस दुर्घटना के बाद खदान के मालिक ने मीडिया के सामने मजदूरों से क्षमायाचना की।

पर अभी तो पूरी दुनिया सांस थामे उन 33 खदान कर्मियों की सुरक्षा और कुशलता की कामना कर रही है। संकट की इस घड़ी में पूरी दुनिया के मजदूरों और लोगों की शुभकामनाएं इन मजदूरों और उनके परिवार वालों के साथ हैं। हमें पूरा विश्‍वास है कि ये सभी खदान कर्मी हर प्रकार की निराशा को फतह करते हुए सकुशल वापस लौटेंगे।

हमारी कोशिश रहेगी कि चिली की खदान में फंसे इन 33 मजदूरों के बारे में आपको नियमित अपडेट देते रहें।

Thursday, August 12, 2010

एक स्‍वनामधन्‍य कम्युनिस्‍ट बुद्धिजीवी का भोलापन....इस अदा पर कौन न मर जाये।।

प्रिय नीलाभ जी,
जनज्‍वार के माध्‍यम से पता चला कि आप राजनीतिक दलों के न्‍यास आदि बनाने को सही नहीं मानते। आपने अपनी टिप्‍पणी में अपने इस विचार के पीछे कोई तर्क नहीं पेश किया है। यह जानने की बहुत इच्‍छा हो रही है कि राजनीतिक दलों को न्‍यास आदि क्‍यों नहीं बनाना चाहिए। क्‍या न्‍यास आदि संस्‍थाओं में ऐसे कीटाणु बसते हैं जो राजनीतिक दलों को भ्रष्‍ट कर देते हैं। क्‍या इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि न्‍यास का उद्देश्‍य क्‍या है उसको कैसे संचालित किया जाता है और उसमें कौन लोग काम करते हैं। बस न्‍यास बना नहीं कि आप किसी राजनीतिक दल को विपथगामी घोषित कर देंगे। आपकी बात इतनी मजेदार है कि मेरी यह जानने की उत्‍सुकता बढ़ती ही जा रही है कि आप और किन-किन कामों को राजनीतिक दलों के करने योग्‍य नहीं समझते।
जहां तक मेरा राजनीतिक ज्ञान है मैं समझता हूं कि एक समूह उन सभी (या अधिकतर) कामों को ज़्यादा बेहतर ढंग से संचालित कर सकता है जिन्‍हें कोई व्‍यक्ति अकेला करता है। इन कामों में राजनीतिक काम भी आ सकते हैं और कला-संस्‍कृति के क्षेत्र के काम भी आ सकते हैं और अकादमिक काम भी।
आज दिल्‍ली के अधिकतर प्रगतिशील कवि, लेखक, संस्‍कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी मध्‍य वर्ग या उच्‍च मध्‍यवर्ग की जीवनशैली जी रहे हैं। आज कितने लेखक, कवि, बुद्धिजीवी हैं जो बाल्‍जाक की तरह काली काफी पीकर पेरिस के अभिजात समाज को अपनी कलम से नंगा कर देने की चुनौती देने का माद्दा रखते हैं। आज के प्रगतिशील लेखकों में से किसको आप भारत का टामस पेन और लू शुन कहेंगे। मां उपन्‍यास लिखने के बाद गोर्की ने जब लेनिन से मुलाकात की तो लेनिन ने कहा कि यह मजदूरों के लिए एक जरूरी किताब है और इसे बड़ी मात्रा में छपवाकर मजदूरों के बीच वितरित करवाओ। क्‍या आपको लगता है कि अगर 'मां' जैसी कोई किताब आज लिखी जाती है तो आज के बुर्जुआ प्रकाशक उसे बड़ी मात्रा में छपवाकर मजदूरों के बीच वितरित करवाएंगे। निश्‍चय ही नहीं करवाएंगे। बुर्जुआ प्रकाशक तो क्‍या खुद को प्रगतिशील कहने वाले कवि, लेखक और बुद्धिजीवी भी यह काम नहीं करेंगे। सही बात तो यह है कि प्रतिष्‍ठा, पुरस्‍कार, रॉयल्‍टी अगर मिलती रहे तो हमारे लेखकों को इससे कोई मतलब नहीं कि उनकी किताबें वास्‍तव में पढ़ी भी जा रही हैं या नहीं। आज कितने ऐसे लेखक हैं जो 20 रुपये से कम पर जीने वाले भारत के 77 प्रतिशत लोगों की जिंदगी से करीबी से जुड़े हों या करीबी जुड़ाव महसूस करते हों। आज प्रगतिशील लेखकों/बुद्धिजीवियों और सर्वहारा जनता के बीच की खाई गणेशशंकर विद्यार्थी और प्रेमचंद के जमाने से कई गुना चौड़ी हो गई है। यह कहने में कोई अतिश्‍योक्ति नहीं होगी कि आज के हमारे प्रगतिशील लेखक, कवि और बुद्धिजीवी भारत की गरीब जनता के साथ ऐतिहासिक विश्‍वासघात कर चुके हैं। वास्‍तव में समाजवाद से उनका कुछ लेना-देना ही नहीं रह गया है, उनका समाजवाद तो कब का आ चुका है।
और इसीलिए जो काम प्रगतिशील लेखकों, बुद्धिजीवियों, संस्‍कृतिकर्मियों को करना चाहिए था, यानी कि समाज में गंभीर राजनीतिक और गैर राजनीतिक साहित्‍य का एक सचेत पाठकवर्ग तैयार करने और ऐसे साहित्‍य के फलने-फूलने का माहौल तैयार करने का काम, उसे मजबूरी में क्रान्तिकारी दल (दलों) को करना पड़ रहा है। आप शायद समझ नहीं पा रहे हैं कि यह राजनीतिक दलों की इच्‍छा नहीं बल्कि उनकी मजबूरी है। हालांकि अगर वे अपनी चाहत से भी ऐसा करते हैं तो इसमें गलत क्‍या है यह मैं नहीं समझ पा रहा हूं। शायद आप समझने में मेरी मदद करेंगे।
आपने सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन घुमा फिराकर कुछ प्रकाशनों पर आरोप लगाया है कि उन्‍होंने साधन को साध्‍य बना लिया है। तो उपरोक्‍त बातों के मद्देनजर सबसे पहले तो यह आरोप प्रगतिशील लेखकों पर लगाया जाना चाहिए जिनमें आप स्‍वयं भी शामिल हैं। अपनी किताबें छपवाने में बहुतेरे लोग आगे रहते हैं लेकिन लू शुन की तरह किसी ने यह क्‍यों नहीं सोचा कि अपने देश के लोगों का परिचय विश्‍व की तमाम मूल्‍यवान साहित्यिक धरोहरों से कराया जाए। आज मार्क्‍सवाद की कितनी किताबें हैं जो सही और सटीक अनुवाद के साथ हिन्‍दी में उपलब्‍ध हैं। और यदि नहीं है तो यह काम कौन करेगा। क्‍या यह काम राजकमल और वाणी जैसे बुर्जुआ प्रकाशनों के भरोसे छोड़ दिया जाए या भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के भरोसे या नीलाभ प्रकाशन के भरोसे। मार्क्‍सवाद की जिन किताबों के हिंदी अनुवाद हैं भी उन्‍हें संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता है। और रामविलास शर्मा जी ने यूं तो किताबें लिखकर रैक भर दिये हैं लेकिन उनके माध्‍यम से मार्क्‍सवाद समझने वालों का खुदा ही मालिक हो सकता है। ऐसे में अगर कोई राजनीतिक संगठन प्रकाशन तंत्र और न्‍यास संगठित करके हिंदी भाषी लोगों को अपनी भाषा में विश्‍वस्‍तरीय साहित्‍य और मार्क्‍सवाद की पुस्‍तकें उपलब्‍ध कराने के इन बेहद ज़रूरी कामों को करता है तो इसके लिए उसे साधुवाद दिया जाना चाहिए या गालियां?
हालांकि आज भी बहुत बड़ी संख्‍या ऐसे लोगों की है जिनके लिए दुनिया माओ के बाद से आगे ही नहीं बढ़ी है और निश्चित ही उन्‍हें किताबों की और बहस-मुबाहिसे की उतनी जरूरत भी नहीं है। वैसे मजेदार बात तो यह भी है कि हथियार खरीदने के लिए चंदा मांगने को बुद्धिजीवी लोग जायज समझते हैं लेकिन पुस्‍तकें छापने के लिए चंदा मांगने को वे गलत समझते हैं और कोई तर्क पेश किए बिना साधन और साध्‍य जैसे बौधिक जुमलों के द्वारा अपना काम चला लेते हैं। वैसे 21वीं सदी की प्रौद्योगिकी और नव जनवादी क्रांति (एनडीआर) की लाइन ने भी तमाम बौद्धिकों की पौ बारह कर दी है। आज कोई भी व्‍यक्ति ब्‍लॉग पर गरमागरम बातें लिखकर और पैसिव रैडिकलिज्‍म की लीद फैलाकर क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी होने का तमगा हासिल कर सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसे कम्‍युनिज्‍म की समझदारी है भी या नहीं या कम्‍युनिज्‍म के प्रति उसका समर्पण है भी या नहीं। मध्‍यवर्गीय रूमानी फिलिस्‍टाइन को इससे कोई मतलब भी नहीं है। वह स्‍वयं को एक नायक की तरह देखना पसंद करता है और निजी जीवन में क्रान्ति से भले ही उसका कभी साबका न पड़ा हो और सामाजिक कामों के लिए चंदा देते समय भी बीवी से डरता हो लेकिन बौद्धिक जगत में हल्‍ला मचाने का साधन उसकी पहुंच में आ गया है और वह शहीदाना अंदाज में पोस्‍ट पर पोस्‍ट लिखे जाता है। हो सकता है कि उसने वह चौराहा भी देख रहा हो जहां 'मुक्‍त क्षेत्र' बनने के बाद उसकी मूर्ति लगाई जाएगी।
स्‍तालिन ने यों ही नहीं कहा था कि एशियाई देशों की क्रान्तियां झूठ-फरेब, मक्‍कारी, चुगली और षडयंत्रों से भरी होंगी। जनज्‍वार पर आकर आपने और आपके सहयोगियों ने न सिर्फ स्‍तालिन की बात को पुष्‍ट कर दिया बल्कि अपने ही कृत्‍यों से न्‍यास और प्रकाशन संगठित करने की जरूरत को बल प्रदान कर दिया है। आपने भी बस यही साबित किया है कि आज के पके पकाये बुद्धिजीवियों से रैडिकल चिंतन और व्‍यवहार की उम्‍मीद करना वैसा ही है जैसे जरसी गाय से युद्धाश्‍व के कारनामों की उम्‍मीद पालना। इसीलिए नये साहसी, रैडिकल, युवा, कर्मठ बौद्धिक तत्‍वों की तैयारी का काम और भी ज़रूरी है।
जनज्‍वार के अपने जिन साथियों की बातों का आपने समर्थन किया है (हालांकि यह समर्थन आपने नसीहतों की आड़ में किया है) उनके साथ मैं पिछले 10-12 सालों से जमीनी स्‍तर पर काम कर चुका हूं। अपने राजनीतिक और निजी जीवन में इन लोगों की पतनशीलता का मुझे प्रत्‍यक्ष अनुभव है और ये सारे के सारे जमीनी कार्यों में एकदम फिसड्डी साबित हो चुके हैं। जो इस बात से भी साबित होता है कि संगठन से निकाले जाने के बाद इनमें से किसी भी शख्‍स की जमीनी कार्रवाइयों में किसी प्रकार की कोई भागीदारी नहीं रही है। अपनी हर असफलता को दूसरों के मत्‍थे मढ़ने की इनकी आदत और नीयत जनज्‍वार पर लिखे इनके ही पोस्‍टों से जाहिर हो जाती है। आज आपको इन हिजड़ों की संगत पसंद आ रही है तो आपको सोचना चाहिए कि आप कहां पहुंच गये हैं। जनज्‍वार ने अपनी नंगई के द्वारा साबित कर दिया है कि भारत के कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन की पश्‍चगति अभी अपने मुकाम तक नहीं पहुंची है और इसमें तमाम तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी और (आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए) विरोधी लाइन वाले कतिपय संगठनों के कुछ लोग अपनी तरफ से पूरा सहयोग दे रहे हैं। चलिये देखते हैं कि यह पश्‍चगति कहां जाकर थमती है।

आपने साधन के साध्‍य बन जाने की बात अपनी पोस्‍ट में उठाई है। मेरे ख्‍याल से साधन के साध्‍य बना जाने की बात तब लागू होती है अगर किसी के सिद्धांत और व्‍यवहार में अंतर हो। जहां तक परिकल्‍पना और राहुल फाउण्‍डेशन की बात है, तो अगर आप कविताएं लिखने से फुरसत लेकर इनके प्रकाशनों को पढ़ेंगे तो आपको स्‍पष्‍ट पता चल जाएगा कि ये किन अर्थों में नये सर्वहारा नवजागरण और प्रबोधन की बात करते हैं और इनका व्‍यवहार इनके सिद्धांत की पूर्णत: संगति में है। यदि इन्‍होंने अपने वास्‍तविक विचारों को स्‍पष्‍ट रूप से जाहिर किए बिना लोगों से सहयोग लिया हो और केवल यही करते रहे हों तो आप यह कह सकते हैं कि साधन ही हमारा साध्‍य बन गया है। अगर साधन ही हमारा साध्‍य है तो करावलनगर, गोरखपुर और लुधियाना के मजदूरों के आन्‍दोलनों में हमारी भूमिका के बारे में आपके क्‍या विचार हैं।

कवि महोदय आप शायद जानते होंगे कि न्‍यास बनाना और किताबें छापना ऐसे काम हैं जो शुरू से ही नजर आते हैं। वहीं लोगों को संगठित करना एक ऐसा काम है जिसका आउटपुट तत्‍काल नजर नहीं आता। वर्तमान परिस्थितियों का हमारा मूल्‍यांकन और इसलिए हमारे काम का तरीका भी थोड़ा अलग है जो बुद्धिजीवियों को समझ में नहीं आता है। चूंकि हम समय-समय पर 'ऐक्‍शन' नहीं करते रहते और थोड़ा काम करके बहुत गाते नहीं, इसलिए जमीन से कटे बुद्धिजीवियों को लगता है कि हम बस किताबें ही छाप रहे हैं। वैसे क्‍या ये सरासर बेईमानी और बदनीयती नहीं है कि जानबूझकर किसी संगठन के कामों के एक हिस्से को अपने झूठे आरोपों का निशाना बनाया जाए और उसके कामों के बड़े और मुख्‍य पहलू की चर्चा ही न की जाए! तो कविवर ऐसी स्थिति में अत्‍यावश्‍यक है कि आंखें फाड़कर घूरती सच्‍चाईयों को समझने और उनके अनुरूप अपने सिद्धान्‍त और व्‍यवहार में परिवर्तन करने के लिए कम्‍युनिस्‍टों को प्रेरित करने हेतु ज़रूरी कामों के तौर पर मार्क्‍सवादी अध्‍ययन संस्‍थान और प्रकाशन जैसी संस्‍थाएं स्‍थापित की जाएं। आज जबकि 'भूतपूर्व' और स्‍वनामधन्‍य कम्‍युनिस्‍टों की जमात बढ़ती जा रही है जिसने कम्‍युनिज्‍म के बुनियादी उसूलों, मर्यादाओं और गुणों का परित्‍याग कर दिया है तो ऐसी संस्‍थाएं बेहद ज़रूरी हैं जो कम्‍युनिज्‍म के आदर्शों को बचाए रखने और नई पीढ़ियों को इस विरासत से शिक्षित-दीक्षित करने का काम करें। बेशक जिन्‍हें लगता है कि परिस्थितियां बदली ही नहीं हैं और जो कुछ लिखना पढ़ना था सब लिखा-पढ़ा और कहा जा चुका है और बस आंख मूंदकर लकीर पर लाठी पीटते रहना है उन्‍हें न्‍यास और प्रकाशन की जरूरत न तो है और न समझ में आयेगी।

नीलाभ जी आप भोलेपन की मिसाल कायम करते हुए लिखते हैं कि कात्‍यायनी, सत्‍यम और शशिप्रकाश के खिलाफ उनके ही कुछ पुराने साथियों ने आरोप लगाए हैं। इससे आप 'हतप्रभ' भी हैं और 'उदास' भी। जाहिर है आप हतप्रभ और उदास इसलिए हैं क्‍योंकि आप इन आरोपों को जायज और ईमानदारी की जमीन से उठाया गया समझते हैं। पर आप ऐसा क्यों समझते हैं। क्‍या आपने जानना चाहा कि इन लोगों के खिलाफ दूसरे पक्ष के क्‍या आरोप हैं। क्‍या आपने कभी जानना चाहा कि ये लोग जिन कार्यकर्ताओं के साथ काम करते थे उनके इनके बारे में क्‍या विचार हैं। आपने तो भोलेपन की इंतहा ही कर दी और आपने मान लिया कि जनज्‍वार के टिप्‍पणीकार ही सही हैं और दूसरा पक्ष गलत है। इस एकांगीपन की वजह क्‍या है नीलाभ जी। क्‍यों आपको लगता है कि संगठन/समूह ही हमेशा गलत होता है और आरोप लगाने वाला कार्यकर्ता हमेशा सही होता है। और क्‍या आपको लगता है कि इन सब बातों का फैसला करने का सबसे उपयुक्‍त मंच ब्‍लॉग ही है। क्‍या ब्‍लॉग जैसे सशक्‍त टूल ने नीलाभ को गैरजिम्‍मेदार बना दिया है या यह पुरानी खुन्‍नस निकालने का एक जरिया है।
-- एक नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ता, दिल्‍ली

Monday, June 28, 2010

विश्‍व कप फुटबॉल, जाबुलानी और मैराडोना का सूट

दक्षिण अफ्रीका में चल रहा विश्‍व कप फुटबॉल प्री क्‍वार्टर फाइनल चरण में पहुंच चुका है। कुछ टीमें क्‍वार्टर फाइनल के लिए क्‍वालीफाई भी कर चुकी हैं। इस विश्‍व कप में अगर किसी एक व्‍यक्ति पर सबसे अधिक फोकस रहा है तो वह हैं अर्जेंटीना के कोच डिएगो मैराडोना। कैमरा बार-बार लौट कर उनकी तरफ आता है और उनकी अलग-अलग मुद्राओं को कैद करता रहता है। मैंराडोना का जीवन चढ़ावों-उतारों से भरा रहा है ये तो सभी जानते है फिर भी फुटबॉल प्रेमियों को मैराडोना प्‍यारे लगते हैं। किसी ने उनकी बुराई करते हुए एक बार उनके 'हैंड ऑफ गॉड' वाले गोल की चर्चा की। मेरे मन में बरबस यह ख्‍याल आया कि मैराडोना का हाथ ही तो असली 'हैंड ऑफ गॉड' है।
इस बार मैराडोना सूट में नजर आ रहे हैं, और उसकी फिटिंग भी कुछ ऐसी है कि मैराडोना जैसे व्‍यक्तित्‍व वाला आदमी ही उस तरह का सूट पहन एक ऐसे आयोजन में आ सकता है जिसपर सारी दुनिया की निगाहें हैं। वर्ना मैराडोना भी चाहें तो 'सेवाइल रो' से सूट सिलवा सकते हैं।

फुटबॉल विश्‍व कप में जो गेंद इस्‍तेमाल की जा रही है उसे नाइक कंपनी ने बनाया है और उसका नाम है 'जाबुलानी' ज़ुलु में जिसका अर्थ होता है 'आनंद मनाना' या 'खुशी देना'। पर जाबुलानी ने कइयों को दुखी कर दिया है। चूंकि खिलाड़ी इस नई गेंद से खेलने के आदी नहीं हैं इसलिए बॉल के नियंत्रण आदि को लेकर खिलाडि़यों विशेषकर गोलरक्षकों को परेशानी है। मुझे यह नहीं समझ में आता जिस गेंद का विश्‍व कप में इस्‍तेमाल किया जाना है उसको दो-तीन साल पहले ही बाज़ार में क्‍यों नहीं उपलब्‍ध करा दिया जाता है। ताकि हर टीम उसी गेंद पर अभ्‍यास करे। पर जबतक खेलों पर मुनाफाखोर कंपनियों का कब्‍जा रहेगा तब तक ऐसी चीजें होती रहेंगी।

फुटबॉल में अब लगता है कि खिलाडि़यों को गिरने की बीमारी हो गई है। विपक्षी खिलाड़ी जोर से छीं भी दे तो आजकल के फुटबालर ऐसे लोटने लगते हैं जैसे उनकी टांग टूट गई हो। इस चीज ने गेम का मज़ा कम कर दिया है। रेफरियों से होने वाली गलतियां भी थोड़ा मजा कम कर देती हैं। अगर रेफरी से गलती नहीं हुई होती और लैंपार्ड का गोल मान लिया जाता तो इंग्‍लैड-जर्मनी का मैच काफी रोचक बनता। हालांकि जर्मनी के मुकाबले इंग्‍लैंड का प्रदर्शन औसत ही रहा।

अगर खेल की बात करें तो ब्राजील, अर्जेंटीना, जर्मनी और स्‍पेन ने अब तक सबसे शानदार खेल दिखाया है। उनके खेल में अनुशासन और योजनाबद्धता है और सही मायनों में इन्‍होंने इंटेलिजेंट खेल का प्रदर्शन किया है। एशियाई देशों में दक्षिण कोरिया और जापान ने बढि़या खेल दिखाया है और अपनी गति और चुस्‍ती-फुर्ती से वे लंबे-लंबे खिलाडि़यों वाली यूरोपीय टीमों को टक्‍कर दे सकती हैं। डेनमार्क के खिलाफ फ्री किक पर जापानी खिलाडि़यों के दो गोल और एक फील्‍ड गोल उनके कौशल का बखान करते हैं। पर अगर मुझे सेमीफाइनल की चार टीमें चुननी हों तो मैं उपरोक्‍त चार को ही चुनुंगा। और इनमें भी स्‍पेन सबसे बढि़या टीम लग रही है। हालांकि दिल तो हमेशा ब्राजील के ही पक्ष में रहता है। अपना देश तो फुटबॉल में अभी बहुत पीछे है, तब तक हम ब्राजील को ही जितवाते रहेंगे। मजे की बात है कि इन चार सबसे अच्‍छी टीमों में से दो दक्षिण अमेरिका की हैं और दो यूरोप की। वर्ना ज्‍यादातर तो यूरोप की टीमें ही छायी रहती हैं। जिन टीमों में अनुशासन और योजनाबद्धता की कमी है और जिनकी रणनीति में कमजोरी है उनका हाल यह होता है विपक्षी के डी के पास पहुंच कर उन्‍हें समझ मे ही नहीं आता कि अच्‍छे मूव कैसे बनाएं। और इस चक्‍कर में सही मौका हाथ से निकल जाता है। जबकि उपरोक्‍त चारों टीमों के साथ ऐसी दिक्‍कत नहीं है। उनके खिलाड़ी फटाफट मूव बनाते हैं जैसे कि उन्‍होंने पहले से रिहर्सल कर रखा हो।
यहां चार टीमों को चुनने से मेरा इरादा को शर्त जैसा लगाने का नहीं है। मैं इन्‍हें सिर्फ इंटेलिजेंट गेसेज़ मानता हूं। और इसलिए अभी अंतिम विजेता या यहां तक कि फाइनलिस्‍टों की भी बात नहीं कर रहा हूं। हालांकि माकूल समय आने पर उनकी भी बात की जाएगी।

अगर आपके कुछ इंटेलिजेंट गेसेज़ हों या इस खेल के बारे में कुछ कहना हो या आपकी कोई 'गट फीलिंग' हो, तो कृपया यहां ज़रूर साझा करें।

Thursday, June 17, 2010

यूनियन कार्बाइड (भोपाल गैस कांड) और ग्रेजि़यानो (सीईओ की मौत) - एक संक्षिप्‍त तुलनात्‍मक अध्‍ययन।

घटना
यूनियन कार्बाइड - दिसंबर 2-3, 1984 की रात को अमेरिकी कंपनी की भारतीय सहायक कंपनी (यू सी आई एल) के प्‍लांट से जहरीली गैस के रिसाव से लगभग 20,000 लोगों की मौत और लाखों लोग प्रभावित।

ग्रेजि़यानो - ग्रेटर नोएडा स्थित ग्रेजियानो कंपनी के मजदूरों का आंदोलन और इस दौरान सीईओ ललित किशोर चौधरी की मौत।


घटना का कारण
यूनियन कार्बाइड - मुनाफे की हवस में शीर्ष प्रबंधन की जानकारी और आदेश पर बरती गई हर प्रकार की लापरवाही। निर्देशों की अवहेलना करते हुए बहुत अधिक मात्रा में अत्‍यंत जहरीली गैस का भंडारण। गैस को ठंडा करने वाले यंत्र का लंबे समय से बेकार पड़े रहना। चेतावनी देने वाले यंत्रों का काम न करना। यानी कि सारी की सारी जानबूझकर की गई लापरवाहियां।

ग्रेजियानो - अमानवीय कार्यस्थितियों, कम वेतन, छंटनी, प्रबंधन और उसके द्वारा पाले गए गुण्‍डों द्वारा गाली-गलौच और यूनियन बनाने की मांग पर मजदूरों ने आन्‍दोलन शुरू किया। कंपनी और ठेकेदारों के गुण्‍डों ने मजदूरों पर जानलेवा हमला किया (आजकल ये सभी उद्योगों में आम बात है)। सरिया, डंडों से मजदूरों की पिटाई की गई, सुरक्षा गार्डों ने फायरिंग भी की। लगभग 35 मजदूर गंभीर रूप से घायल हुए। पुलिस का दस्‍ता इस बीच पास में ही खड़ा रहा और प्रबंधन के इशारे पर कोई कार्रवाई नहीं की क्‍योंकि प्रबंधन अपने गुण्‍डों से मजदूरों को पिटवाकर अपनी ताकत दिखाना चाहता था। इस दौरान ग्रेजियानो के सीईओ ललित चौधरी को सिर पर चोट लग गई जो उनकी मौत का कारण बनी। क्‍या हुआ, कैसे हुआ यह किसी ने नहीं देखा। सीईओ की पत्‍नी के अनुसार ललित चौधरी की मौत व्‍यावसायिक प्रतिद्वंद्विता का नतीजा थी, मजदूरों के आंदोलन से उसका कोई संबंध नहीं था।


घटना के बाद की कार्रवाई
यूनियन कार्बाइड - कंपनी के मालिक वारेन एंडरसन को वीआईपी सरकारी मेहमान की तरह सरकारी हेलिकॉप्‍टर से भगा दिया गया। तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री ने उस समय कहा कि हम किसी को भी परेशान नहीं करना चाहते हैं। कुछ अखबारों ने लिखा कि यह मजदूरों की करतूत थी। लगभग 26 साल तक कानूनी नौटंकी जिसमें जघन्‍य आरोपों को मामूली लापरवाही में तब्‍दील कर दिया गया। सजा के नाम पर प्रमुख आरोपियों को 2-2 साल की सजा हुई। सजा के साथ ही साथ जमानत भी थमा दी गई।

ग्रेजियानो - सीईओ की मौत के बाद सरकार से लेकर प्रशासनिक तंत्र और अदालत तक और उद्योगपतियों की संस्‍थाओं से लेकर मीडिया तक सबने एकसाथ मजदूरों पर हल्‍ला बोल दिया। इस मुद्दे पर सरकार ने वरिष्‍ठ नौकरशाहों और पूंजीपतियों की एक कमेटी बनाई। पुलिस ने मजदूरों को ढूंढ़-ढूंढ़कर पकड़ा, बर्बर ढंग से पीटा और 137 मजदूरों को हिरासत में लिया। 63 पर सीईओ की हत्‍या करने का आरोप लगाया गया। बाकियों पर बलवा करने और शांति भंग करने का आरोप लगाया गया। इस बार न्‍यायालय ने बड़ी मुस्‍तैदी से मजदूरों की जमानत याचिकाओं को खारिज कर दिया। मजदूरों के साथ इंसानों जैसा बर्ताव करने का अनुरोध करने की हिमाकत करने के चलते तत्‍कालीन श्रम मंत्री ऑस्‍कर फर्नांडीज को अपना मंत्री पद गंवाना पड़ा। गरीब मजदूरों के परिवार सड़क पर आ गए। मीडिया को न पहले उनकी चिंता थी न अब है।

यह केवल दो घटनाओं से संबंधित तथ्‍यों की एक संक्षिप्‍त प्रस्‍तुति है: निष्‍कर्ष निकालने का काम पाठक स्‍वयं करें।

ग्रेजियानों की घटना के बारे में अधिक विस्‍तार से जानने के लिए मेरी एक पुरानी पोस्‍ट देखें।

Thursday, June 10, 2010

आज अगर नीरो होता...

इतिहास ने स्‍वयं को दोहराया तो जरूर पर जहां त्रासदी संहारक थी वहीं प्रहसन इतिहास की एक शर्मनाक प्रतीक घटना बनकर सामने आया है। 26 साल पहले हुई त्रासदी को अंजाम देने वालों को एक लंबी, उबाऊ और कष्‍टप्रद नौटंकी के बाद सजा के नाम पर तोहफे बांटे जा रहे हैं। 26 साल पहले इंसानियत रोई थी, आज वो शर्मसार है।

क्‍या लिखूं कुछ सूझ नहीं रहा है। पड़ोस के घरों से टीवी पर चल रहे किसी लाफ्टर शो के जजों और दर्शकों की अर्थहीन हंसी सोचने की प्रक्रिया को बाधित कर रही है। हां इस शर्मनाक घड़ी में भी लाफ्टर शो देखने वालों की कमी नहीं है। गनीमत है कि कोर्ट का यह फैसला आईपीएल के बीत जाने के बाद आया है वर्ना मीडिया वाले भी इस मुद्दे पर इतना समय जाया न करते।
15000 लोगों को कत्‍ल करने वाले को जनता के प्रतिनिधियों ने सरकारी हेलिकॉप्‍टर से भगा दिया। जनता की फिक्र करने वाली कोर्ट ने 26 साल तक भुक्‍तभोगियों को घाट-घाट का पानी पिलाया। आज एक तरफ जहां अपराधियों को प्रसाद बांटे जा रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ उसी पार्टी की सरकार न्‍यूक्लियर लायबिलिटी बिल तैयार कर रही है जिसमें भविष्‍य के ऐसे अपराधियों को हल्‍के में छोड़ देने के लिए कानूनी उपाय किए जा रहे हैं। एक जनप्रतिनिधि (कानून मंत्री) दिलासा दे रहे हैं कि केस बंद नहीं हुआ है, वहीं दूसरी तरफ से यह भी कह रहे हैं कि सरकार ने एंडरसन मामले में सीबीआई पर दबाव नहीं डाला था। 19 साल बाद रुचिका को तो न्‍याय लगता है मिल गया, पर भोपाल के लाखों लोगों को अभी लंबी लड़ाई लड़नी है।
अचानक जोरदार हंसी से पूरा मुहल्‍ला गूंज उठता है। किसी प्रतिस्‍पर्धी ने एक द्धिअर्थी चुटकुला सुनाया है। सेंसर बोर्ड के अलावा बाकी दुनिया को इस चुटकुले का एक ही अर्थ समझ में आएगा। इस चुटकुले पर सबसे जोर से हंसने वाला भी एक जनप्रतिधि है। ऐसा लगता है कि उसने सारी दुनिया की हंसी पर कब्‍जा कर लिया है और हंसे चले जाता है। उसकी हंसी में कभी बेशर्मी तो कभी अश्‍लीलता झलकती है। जनता के पास हंसने का कोई कारण ही नहीं बचा है। इसलिए आजकल हंसी को व्‍यायाम बना दिया गया है। एक ज्ञानी कहता है रोज इतनी देर हंसा करो (चाहे हिरोशिमा पर बम गिरे चाहे भोपाल में गैस रिसने से लोग मरें) नहीं तो फलाने-फलाने रोग हो जाएगा। कुछ लोग डर के मारे हंसते हैं। वे हंसी अफोर्ड कर सकते हैं, जनता नहीं कर सकती। जनता तो सिर्फ अपने ऊपर हंस सकती है। जनता केवल बेबसी की हंसी हंस सकती है, अपना चू..या कटते हुए देख कर हंस सकती है।
आज नीरो होता तो शायद भोपाल के किसी घर में टीवी पर लाफ्टर शो देख रहा होता।

Wednesday, April 21, 2010

नैतिकता पर महान वैज्ञानिक नील्‍स बोर के विचार।

नील्‍स बोर सिर्फ एक महान वैज्ञानिक ही नहीं बल्कि अपने समय के महान सिद्धान्‍तकार और दार्शनिक भी थे। एक बार उन्‍होंने बताया कि अपने विद्यार्थी जीवन में वे दर्शन पर कुछ लिखने को लालायित थे। क्‍वाण्‍टम भौतिकी की एक किताब से यह उद्धरण प्रस्‍तुत कर रहा हूं :

वास्‍तव में वे (नील्‍स बोर) स्‍वतंत्र इच्‍छा की समस्‍या का गणितीय समाधान खोज रहे थे। यदि प्रकृति में सब कुछ पूर्वनिश्चित है और मनुष्‍य अपनी इच्‍छा को क्रियान्वित करने के‍ लिए स्‍वतन्‍त्र नहीं है तो कोई भी नैतिक मानदण्‍ड अर्थहीन हैं; चूंकि मनुष्‍य अपने व्‍यवहार में स्‍वतन्‍त्र नहीं है तो विवेक और नैतिकता की बात करना निराधार है। लेकिन यदि स्‍वतन्‍त्र इच्‍छा है तो शास्‍त्रीय नियतिवाद के साथ कोई कैसे इसका सामंजस्‍य कर सकता है, जिसके अनुसार प्रकृति में हर चीज विशुद्ध आवश्‍यकता द्वारा नियन्त्रित होती है।

उनकी जीवनी के सिर्फ इस तथ्य से हम शास्‍त्रीय नियतिवाद, यानी ब्रह्मांड में घटनाओं की पूर्वनिर्धारकता की अवधारणा के विध्‍वंस में उनकी भूमिका का अनुमान लगा सकते हैं।
(क्‍वाण्‍टम जगत की संभाव्‍यताएं - दानियल दानिन)

Thursday, March 11, 2010

संविधान के निर्माताओं को चार बच्‍चों की तरफ से खुला पत्र।

परम आदरणीय संविधान निर्माताओ,
सुना था कि भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है। हम सोचते थे बड़ा होगा तो भारी-भरकम भी होगा। मगर कितना भारी होगा इसका अहसास चन्‍द दिन पहले ही हो सका। इसमें लिखित कानून के एक छोटे से उपवाक्‍य और उसे लागू करने वाले एक अदना से कारिन्‍दे ने हमें संविधान की ताकत का ऐसा अहसास कराया कि जिन्‍दगी भर के लिए उसका भय और उसके प्रति श्रद्धा हमारे अन्तस्‍तल में समा गयी।
लोग कहते थे खुदा की इज्‍जत करो या न करो मगर कानून की इज्‍जत करो। कानून से डरो। हम सोचते थे कानून क्‍या हिटलर है जिससे डरने की जरूरत हो। पर हम नादान थे। हमें माफ करना।
पाश कहते थे 'यह किताब मर गई है'। हमने कभी फिक्र ही नहीं किया कि मरी है या जिन्‍दा है। मगर बुलाओं पाश को और हमें दिखाकर पूछो कि अगर यह किताब मर गई है तो खाकी रंग के कपड़े में इतना गुरूर कहां से आया।

हे श्रेष्‍ठजनो, हे महापुरुषो।
अगली बार जब हम परीक्षा में बैठेंगे और हमसे संविधान के बारे में पूछा जाएगा तो हम प्रत्‍यक्ष अनुभव से अर्जित समस्‍त संवेदना और आवेग के साथ उसका गुणगान करेंगे। हम उस एक-एक बुनियादी अधिकार की सोदाहरण व्‍याख्‍या करेंगे जिसकी अमिट छाप उस सर्वशक्तिमान डण्‍डे ने हमारी पीठ पर उकेरी है। हम उस डण्‍डे के आभारी है और आपके भी जिन्‍होंने उस डण्‍डे में इतनी ताकत सौंपी। हे परमपूज्‍यो, संविधान प्रदत्त शक्ति से अघाए-बौराए और कानूनी मान्‍यता के घमंड में चूर उस डण्‍डे की महिमा का बखान हम शब्‍दों में नहीं कर सकते। हम नादान हैं, हमारे पास तो सिर्फ अहसास हैं। और कानून अहसास नहीं शब्‍द मांगता है।

हे महाऋषियो,
हम तो आपके रचित संविधान के टेढ़े-मेढ़े वाक्‍यों को पढ़ भी नहीं सकते, समझना तो दूर की बात है। हमें तो उनके कॉमा और फुलस्‍टॉप से भी डर लगता है। पता नहीं कब कौन सा कॉमा और फुलस्‍टॉप हमें फिर हवालात की सैर करा दे। और हम तो शिकायत भी नहीं कर सकते। क्‍योंकि तुमने हमारे ही द्वारा इस संविधान को हमें 'अंगीकृत, अधिनियमित और आत्‍मार्पित' करवा दिया है। अब अगर हमारा ही कानून हमारे ऊपर लागू किया जा रहा है तो हम शिकायत करें भी तो किस मुंह से और किससे। यह दीगर बात है कि संविधान को हमसे 'अंगीकृत, अधिनियमित और आत्‍मार्पित' करवाने से पहले कभी हमसे और हमारे बाप-दादाओं से पूछा भी नहीं गया। हमें तो बताने की जरूरत भी नहीं समझी गई। हमें तो यह मालूम करने के लिए हवालात जाना पड़ा। तुम कितने दूरदर्शी थे महापुरुषों, तुम्‍हें हवालात की जरूरत का अहसास उसी समय हो गया था।

हे ज्ञानियों में ज्ञानी, परमज्ञानी बाबा साहेब अंबेडकर,
आपने कहा था कि यह दुनिया का सबसे बढि़या संविधान है। अगर यह संविधान भी लोगों को ठीक नहीं कर सकता तो फिर लोगों में ही कोई खराबी है। क्‍योंकि संविधान में खराबी की गुंजाइश है ही नहीं।
बाबा साहेब आपने कहा। हमने माना। साठ साल से आपका कहा रटते रहे। अब तो विश्‍वास भी हो गया। हमारी पीठ को ही कोई चुल्‍ल उठी होगी। वरना डंडे में खराबी की कोई गुंजाइश ही कहां है। डण्‍डे के लिए तो सब बराबर हैं। समानता के अधिकार की असली व्‍याख्‍या तो पुलिस का डण्‍डा ही कर सकता है। वह बरसता है तो बस बरसता ही चला जाता है जबतक कि कानून का राद्दा न जमा दे। बस नहीं बरसता तो उन लोगों पर जिनके पोस्‍टर लगते हैं। जिनकी मूर्तियां बनती हैं। जो डण्‍डे को नाप सकते हैं, तौल सकते हैं, खरीद और बेच सकते हैं।

हे परम श्रद्धेय आधुनिक परमपिताओ,
हम अज्ञानियों को क्षमा करना। हमारे अज्ञान के कारण ही तो संविधान बनाने में हमारी राय नहीं ली गई। ज्ञान खरीदने की कूव्‍वत रखने वाले 15 प्रतिशत लोगों ने यह पवित्र ग्रन्‍थ हमें सौंपा है। हमें इस जिम्‍मेदारी को समझना है। इसका बोझ अपने कन्‍धे पर उठाना और उठाये रखना ही हमारा परम कर्तव्‍य है। हमारे उद्धार का और कोई मार्ग नहीं है। बाबा साहेब की उठी हुई उंगली इसी मार्ग की तरफ इशारा करती है।

परम श्रद्धा और अन्‍धभक्ति के साथ,
-- चार अज्ञानी

(उत्तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री मायावती के पोस्‍टर को बदरंग करने के कथित आरोप में एक पुलिस अधिकारी ने चार बच्‍चों को कई दिन तक हवालात में रखा था जबकि उनकी परीक्षाएं चल रही थीं। असलियत यह थी कि अपने किसी रिश्‍तेदार के बच्‍चे का उस स्‍कूल में दाखिला न होने से जिसके वे चारों बच्‍चे छात्र थे, अधिकारी महोदय ने खुन्‍नस निकालने के लिए यह कार्रवाई की थी। पुलिस अधिकारी की इस अनैतिक कार्रवाई से संविधान के किसी भी नियम कानून का उल्‍लंघन नहीं हुआ और उसपर कोई कार्रवाई भी नहीं हुई (जहां तक मुझे ज्ञात है)। प्रश्‍न यह है कि हमारे देश का यह कैसा संविधान है जो इसप्रकार की हरकत होने देता है। क्‍या इसकी कोई गारंटी है कि आगे से ऐसा नहीं होगा। संविधान के पास इन बच्‍चों को देने के लिए क्‍या स्‍पष्‍टीकरण है।)

Thursday, March 4, 2010

ज्‍योति बसु, राजकिशोर और द्वंद्ववाद...

मैं विकट दुविधा में फंस गया था। बात ही कुछ ऐसी थी कि मेरी जानकारी की कोई परिभाषा उसपर फिट ही नहीं बैठ रही थी। इसे निषेध का निषेध कहूं या विपरीत तत्‍वों की एकता। दार्शनिकों के हवाले से सुना था कि कोई चीज एक ही समय पर वह चीज हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। पर इस ज्ञान का ऐसा प्रयोग पहले कभी देखा-सुना नहीं था। हालांकि इसकी पूरी अपेक्षा थी कि यह काम कोई हिंदु‍स्‍तानी विचारक ही कर सकता था।
''ज्‍योति बाबू कम्‍युनिस्‍ट थे भी और नहीं भी''। अमूर्तन की गहराई में उतरने की अपनी अक्षमता के कारण मैंने जमीनी तर्क-वितर्क से समझने का प्रयास किया। सही बात तो यह है कि उदाहरणों और अपवादों को जाने बिना मुझे कोई परिभाषा समझ में ही नहीं आती है। वह भी तब जबकि वह इतनी मौलिक और अनूठी हो।
वैसे पिछड़े देशों के बुद्धिजीवियों को लगता है कि जबतक वे कोई मौलिक बात नहीं कहेंगे तबतक उनकी बुद्धिजीविता संदेह के घेरे में रहेगी इसलिए वे हमेशा कुछ न कुछ मौलिक कहने के दबाव में रहते हैं। वैसे ही जैसे न्‍यूज चैनल स्टिंग ऑपरेशन करने के दबाव में रहते हैं। जैसे नेपाल के माओवादियों को ही देखिए। अपने देश में क्रान्ति सम्‍पन्‍न भले ही न कर पाए हों लेकिन मार्क्‍सवाद में कुछ नया जोड़ने का ऐलान तो कर ही दिया। एक नया 'पथ' भी शोध लाए। दो वर्गों की संयुक्‍त तानाशाही का नया फॉर्मूला भी पेश कर दिया। दीगर बात है कि यह फॉर्मूला मार्क्‍सवाद/लेनिनवाद/माओवाद की किसी प्रस्‍थापना द्वारा पुष्‍ट या प्रमाणित नहीं होता। खैर इसकी फिक्र करने की जरूरत क्‍या है जरूरत तो यह है कि जब भी मुंह खोलो तो कोई मौलिक सिद्धांत ही टपकना चाहिए।
लर्मन्‍तोव ने एक जगह लिखा है कि रूसी लोगों को तबतक कोई कहानी समझ में नहीं आती जबतक कि कहानी के अंत में कोई सबक न निकलता हो। उसी तरह भारतीय बुद्धिजीवी को तबतक संतोष नहीं होता जबतक कि वह हर एक घटना को किसी मौलिक सिद्धांत से व्‍याख्‍यायित न कर ले।
खैर मुद्दा यह था कि ज्‍योति बाबू कम्‍युनिस्‍ट थे भी और नहीं भी। तो प्रश्‍न यह था कि वह कितना कम्‍युनिस्‍ट थे और कितना नहीं थे। या प्रश्‍न को और ठोस ढंग से रखें तो वे कितने प्रतिशत कम्‍युनिस्‍ट थे और कितने प्रतिशत नहीं थे। यह तो कोई मनोवैज्ञानिक ही बता सकता है कि कहीं वे स्प्लिट पर्सनाल्‍टी वाले व्‍यक्ति तो नहीं थे। और राजकिशोर जी ही यह बता सकते हैं कि वे दिन के कितने घंटे कम्‍युनिस्‍ट होते थे और कितने घंटे सज्‍जन (ध्यान रहे राजकिशोर जी ने बिना कोई प्रमाण दिए अपनी यह मूल प्रस्‍थापना भी दी है कि कम्‍युनिस्‍ट होना और सज्‍जन होना परस्‍पर अपवर्जी (म्‍युचुअली एक्‍स्‍क्‍लूसिव) गुण हैं)। कहीं ऐसा तो नहीं क‍ि वे दिन में कम्‍युनिस्‍ट होते थे रात में सज्‍जन।
मैंने इस मौलिक प्रस्‍थापना को समझने के लिए इसे ज्‍योति बाबू के अतीत पर लागू करने की तरकीब सोची। साथ ही मेरी सीमित कल्‍पना के टुच्‍चे घोड़े भी दौड़ने लगे। मैं सोचने लगा कि ज्‍योति बाबू जब कम्‍युनिस्‍ट का रूप धारण करते होंगे तो क्‍या करते होंगे और जब सज्‍जन का रूप धारण करते होंगे तो क्‍या करते होंगे। जब वे मजदूरों-किसानों के हक की बात करते थे तब क्‍या होते थे और जब बहुराष्‍ट्रीय कंपनियो को अपने राज्‍य को लूटने का न्‍यौता देते विदेशों की सैर करते थे तब क्‍या होते थे। जब वे कहते थे कि सर्वहारा के पास खोने के लिए सिर्फ अपनी बेडि़यां हैं तब क्‍या होते थे और जब वे धमकाते थे कि मजदूरों की भलाई इसी में है कि वे उत्‍पादन बढ़ाने में मालिकों का साथ दें तब क्‍या होते थे। जब उनकी पार्टी कम्‍युनिस्‍टों का कत्‍लेआम करने में मदद करने वाले सलीम ग्रुप को औने-पौने दाम में जमीन का कब्‍जा दे रही थी तब वे कम्‍युनिस्‍ट थे या सज्‍जन। पश्चिम बंगाल में माकपाई काडरों की गुण्‍डागर्दी और समान्‍तर सरकार को मुख्‍यमंत्री के तौर पर संरक्षण देते हुए वे कम्‍युनिस्‍ट व्‍यवहार कर रहे थे या सज्‍जनता का।
बुद्धिजीवी ने कहा है कि कम्‍युनिज्‍म और सज्‍जनता में जब भी कोई द्वंद्व हुआ तो उन्‍होंने सज्‍जनता को चुना। मतलब यह कि वे सज्‍जन पहले थे और कम्‍युनिस्‍ट बाद में। जैसे उनके राज्‍य के एक बड़े कम्‍युनिस्‍ट नेता ने कहा कि मैं हिन्‍दू पहले हूं और कम्‍युनिस्‍ट बाद में। थोड़े ही दिन में कोई कहेगा कि मैं बंगाली पहले हूं और कम्‍युनिस्‍ट बाद में। जैसे कि लाल कृष्‍ण आडवाणी और राज ठाकरे ने कम्‍युनिज्‍म की दीक्षा ले ली हो।
अभी हाल ही में ज्‍योति बाबू की पार्टी के महासचिव ने कहा कि धर्म को मानने वालों पर कम्‍युनिस्‍ट पार्टी किसी प्रकार की रोक नहीं लगाती। माकपा जैसी पार्टी रोक लगा भी कैसे सकती है जिसके एक भूतपूर्व महासचिव ही जत्‍थेदार कम्‍युनिस्‍ट थे। जल्‍दी ही ऐसा भी हो सकता है कि माकपा का महासचिव छापा तिलक लगाए जनेऊ पहने राम-राम कहता नजर आए या यह भी हो सकता है कि वह पांच वक्‍त का नमाजी हो। भाजपा-शिवसेना का तो आधार ही खिसक जाएगा। यह तो सज्‍जनता की पराकाष्‍ठा हो जाएगी। कम्‍युनिज्‍म और सज्‍जनता का ऐसा बेजोड़ घोल हिन्‍दुस्‍तान में ही संभव है। और यदि ऐसा हुआ तो बुद्धिजीवियों की जमात से ज्‍यादा गदगद और कोई नहीं होगा।
भला इससे अच्‍छा क्‍या हो सकता है कि एक सज्‍जन कम्‍युनिस्‍ट संसद और विधानसभा का चुनाव लड़ते-लड़ते, पूंजीपतियों से आरजू-मिन्‍नत करके अठन्‍नी-चवन्‍नी मांगते-मांगते, क्राइम स्‍टोरीज पढ़ते-पढ़ते, संगीत सुनते-सुनते एक दिन टीवी-रेडियो पर देशवासियों को संदेश दे कि लो भैया समाजवाद आ गया। मूलाधार बदल गया। अब वर्गों का नामोनिशान नहीं रहेगा। मजदूर भाई और पूंजीपति भाई सब एकसाथ मिलकर समाजवाद का निर्माण करेंगे। अब वर्गों के बीच में कोई अंतरविरोध कोई झगड़ा नहीं रह गया है। हो सकता है कोई इसे समाजवाद की जगह रामराज्‍य भी कह दे। वैसे ही कई भारतीय बुद्धिजीवियों को मार्क्‍सवाद से एकमात्र कष्‍ट यही है कि वह विदेशी विचारधारा है। अगर इन बुद्धिजिवियों को किसी दिन पता चला कि धरती के गोल होने की बात भारत में नहीं किसी अन्‍य देश में खोजी गई थी तो वे फिर से धरती को चपटी मानने लगेंगे। या ऐसा भी कह सकते हैं कि बाकी देशों की धरती भले ही गोल हो मगर हमारे यहां की तो चपटी ही है। अगर गोल होती तो किसी देसी महात्‍मा ने ऐसा जरूर कहा होता।
प्रश्‍न बहुत हैं जवाब कम। हर प्रश्‍न का जवाब देना बुद्धिजीवियों का काम भी नहीं है। खासकर बड़े बुद्धिजीवियों का। वे तो मौलिक प्रस्‍थापनाएं और सूत्र देते हैं। कुछ छोटे बुद्धिजीवी उनका भाष्‍य करके तरह-तरह से उनकी व्‍याख्‍या करते हैं। व्‍याख्‍या करते-करते कुछ लोग कुछ नई मौलिक प्रस्‍थापनाएं पेश करते हैं। कुछ मौलिक नहीं करेंगे तो बुद्धिजीवी का तमगा कैसे मिलेगा।
तभी तो हमारे देश की तथाकथित कम्‍युनिस्‍ट पार्टियां कहती हैं कि आज का समय पहले जैसा नहीं रहा। आज का सर्वहारा भी पहले जैसा नहीं रहा। आज का मार्क्‍सवाद भी पहले जैसा नहीं रहा। आखिर एंगेल्‍स ने ही तो कहा था कि समय के साथ हर चीज अपने विपरीत में बदल जाती है। कम्‍युनिस्‍ट सज्‍जन में तब्‍दील हो जाता है। मार्क्‍सवाद संशोधनवाद में। वर्ग संघर्ष की जगह वर्गों में भाईचारे की भावना आ जाती है।
एक अंतिम प्रश्‍न रह जाता है : क्‍या बुद्धिजीवी भी अपने विपरीत में बदल जाता है? अगर हां, तो बदलकर वह क्‍या हो जाता है?

Wednesday, January 20, 2010

गुण्‍डागर्दी ही इनकी राष्‍ट्रीय संस्‍कृति है।

दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में जनचेतना के पुस्‍तक प्रदर्शनी वाहन पर राष्‍ट्रीय संस्‍कृति के स्‍वयंभू ठेकेदारों के कायराना हमले ने एक बार फिर से उनकी असलियत उजागर कर दी है। वैसे भयानक अमानवीय कृत्‍यों को अंजाम देने वालों की तारीफ में यह वाकया बहुत मामूली महत्‍व रखता है।
राष्‍ट्रीय संस्‍कृति के स्‍वयंभू ठेकेदारों की सबसे बड़ी संस्‍कृति यह है कि यहां दिमाग का प्रयोग वर्जित है। दिमाग का प्रयोग केवल ऊपर के पदाधिकारी करते हैं और वह भी तर्क या बहस करने के लिए नहीं केवल अमानवीय कृत्‍यों को अंजाम देने के नए-नए तरीके विकसित करने के लिए। निचले स्‍तर के कार्यकर्ताओं को केवल हुक्‍म की तामील करनी होती है।
ऐसा करने के लिए पढ़ने लिखने की कोई जरूरत ही नहीं है। सारा ज्ञान तो भगवान श्रीकृष्‍ण गीता में कह ही गए है। वैसे भी आम आदमी को ज्ञान की जरूरत ही कहां है। बस भूत,पिशाच भगाने के लिए हनुमान चालीसा रट लो, और सुख-संपत्ति के लिए कुछ अन्‍य प्रकार की रचनाओं का जाप कर लो, इतने से ही बैकुण्‍ठ पार लग जाएगा।
तो फिर जिंदगी और समाज को बदलने वाली किताबों की जरूरत ही क्‍या है। लोगों को नींद से झकझोरकर जगा देने वाली किताबों की जरूरत ही क्‍या है। लोगों को जिंदगी की असलियत बताने वाली और 'बेहतर जिंदगी का रास्‍ता' दिखाने वाली 'बेहतर किताबों' की जरूरत ही क्‍या है। आम लोगों को जीने का ढंग सिखाने वाली किताबों की जरूरत ही क्‍या है।
लिहाजा 'रामराज्‍य' की प्राप्ति के लिए प्रयासरत 'अप'संस्‍कृति के स्‍वयंभू ठेकेदारों ने हिंदी पट्टी में बड़े पैमाने पर प्रग‍तिशील साहित्‍य वितरित करने वाली संस्‍था जनचेतना के पुस्‍तक प्रदर्शनी वाहन पर दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में एक बार फिर हमला किया।
इस हमले का सबसे महत्‍वपूर्ण पहलू यही है कि यह जनचेतना की मुहिम और समाज में आम लोगों की जिंदगी से जुड़ी किताबों का प्रचार प्रसार करने की जरूरत रेखांकित होती है।
आज हर प्रकार के ढोंगी पाखंडी बाबाओं की और हर प्रकार की धार्मिक पुस्‍तकें, सीडी, कैसेट धड़ल्‍ले से बाजारों में बिक रहे हैं। लोगों की चेतना को कुंद करने वाली नशे की खुराक जैसे ये साहित्‍य जितनी आसानी से सुलभ हैं उतने प्रेमचंद या भगतसिहं नहीं हैं। हर प्रकार के पाखंडों, कुरीतियों, यहां तक कि धर्म के आवरण में लिपटी अश्‍लील कहानियां भी बड़े पैमाने पर लोगों को उपलब्‍ध कराई जा रही हैं और इन्‍हें राष्‍ट्रीय संस्‍कृति का जामा पहनाया जाता है।
जाहिर है कि ऐसा करने वालों को इंसान की तरह जीने और संघर्ष और सृजन की बात करने वाले साहित्‍य से खतरा महसूस होता है और भीड़ की ताकत के साथ मौका देखकर वे कायराना हमले भी करने से बाज नहीं आते।
सोचिए कि 'रामराज्‍य' में क्‍या होगा।