Wednesday, September 24, 2008

हर साल 400,000 कामगारों की मौत पर चुप्‍पी लेकिन एक सीईओ की मौत पर इतना स्‍यापा

हर इन्‍सान की जान कीमती होती है। चाहे वह मज़दूर हो या पूँजीपति। पूँजीवादी जनतन्‍त्र भी इसे अपना आदर्श घोषित करता है लेकिन असलियत में इसे लागू नहीं करता। अपने जीवन से हर आदमी यह महसूस कर सकता है कि किस तरह विधायिका, न्‍यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया तक पैसेवालों की सेवा में लगे रहते हैं।

कल ग्रेटर नोएडा में एक कम्‍पनी के काम से निकाले गये मज़दूरों और कम्‍पनी के प्रबंधन और सुरक्षाकर्मियों के बीच हिंसक संघर्ष में कम्‍पनी के सीईओ की मौत हो गयी। इस घटना के द्वारा आइये इस व्‍यवस्‍था के विभिन्‍न खम्‍भों और समाज के विभिन्‍न वर्गों की मानसिकता की पड़ताल करने की कोशिश की जाये और कुछ निष्‍कर्षों पर पहुँचा जाये।

अन्‍तरराष्‍ट्रीय श्रम संगठन की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में काम के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं में प्रति वर्ष 400,000 कामगारों (प्रतिदिन तकरीबन 100 से ज्‍यादा) की मौत हो जाती है और इसके अतिरिक्‍त 350,000 कामगार काम सम्‍बन्‍धी बीमारियों से ग्रस्‍त हो जाते हैं। कभी ब्‍वॉयलर फटने से तो कभी दीवार ढहने से तो कभी करेंट लगने से मज़दूरों की मौत होना आम बात है। सीवरों की सफ़ाई के दौरान अकसर ही सफ़ाई कर्मियों की मौत हो जाती है या वे बेहोश हो जाते हैं। ज्‍यादतर मज़दूरों की मौत उपयुक्‍त सुरक्षा उपकरणों के न होने से होती हैं। ख़तरनाक से ख़तरनाक काम भी हेल्‍मेट, जूतों और दस्‍तानों के बगैर ही मज़दूरों से करवाये जाते हैं। वास्‍तव में कितने मज़ूदूर काम के दौरान मरते हैं यह पता करना एक मुश्किल काम है, क्‍योंकि ज्‍यादातर कम्‍पनियॉं ठेकेदारी, दिहाड़ी और पीस रेट पर काम करवाती हैं और मज़दूरों का कोई लेखा-जोखा नहीं रखतीं। सच्‍चाई यह है कि शायद ही कोई कम्‍पनी सरकार द्वारा तय न्‍यूनतम मज़दूरी देती है और सरकार द्वारा तय सुरक्षा मानकों का पालन करती है। बहुत कम ही ऐसी कम्‍पनियॉं हैं जहॉं दुर्घटना के बाद फर्स्‍ट एड बाक्‍स तत्‍काल उपलब्‍ध हो सके। पीने के पानी, हवा, रोशनी, शौचालय जैसी बुनियादी ज़रूरतों पर भी कम्‍पनियॉं ध्‍यान नहीं देती हैं। और ऐसी स्थितियों में मज़दूरों से 12 से 14 घण्‍टे तक जबरदस्‍ती काम करवाया जाता है, गाली-गलौच की जाती है, महीनों-महीनों तक एक भी छुट्टी नहीं दी जाती। कम से कम पगार पर काम करवाया जाता है और उसका भी समय से भुगतान नहीं किया जाता और जब चाहा काम पर रखा जब चाहा निकाल बाहर किया।

पर यह सब मुद्दे कभी मुख्‍यधारा की चिन्‍ता का सबब नहीं बनते। किसी अख़बार की सुर्खी नहीं बनते किसी न्‍यूज चैनल पर जगह नहीं पाते। कोई सरकारी अधिकारी या मन्‍त्री इन पर कुछ नहीं बोलता। मरने वाले मज़दूर को मुआवज़ा मिला या नहीं उसके परिवार का क्‍या हुआ, उसके बच्‍चे कैसे जीयेंगे इन प्रश्‍नों पर शरीफ़ से शरीफ़ नागरिक भी बहुत चिन्‍ता और सरोकार से नहीं सोचता। सरकार सिर्फ कानून बनाकर अपने कर्तव्‍यों की इतिश्री कर लेती है और कानून कागजों में बन्‍द होकर रह जाते हैं।

लेकिन अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष करने वाले मज़दूरों के साथ झड़प में एक सीईओ की मौत पर पूरा मीडिया जगत छाती पीट रहा है। अधिकारी और मन्‍त्री बयान दे रहे हैं, पुलिस ने 136 से अधिक मज़दूरों को हिरासत में ले लिया है और 63 पर हत्‍या का आरोप लगाया है। उद्योगपतियों के संगठन एसोचैम और फिक्‍की ने इस हिंसक घटना की घोर निन्‍दा की है और मुजरिमों पर तत्‍काल और सख्‍त से सख्‍त कार्रवाई की मॉंग की है। एस्‍सोचैम के अध्‍यक्ष सज्‍जन जिंदल ने इसे एक क्रूरतापूर्ण जुर्म करार दिया है और पूँजीपतियों के इन संगठनों ने धमकी दी है कि इससे निवेशकों के बीच देश की छवि खराब होगी। इन संगठनों ने श्रम मन्‍त्री आस्‍कर फर्नांडीज को इसलिए लताड़ा है कि उन्‍होंने प्रबंधन से मजदूरों के साथ हमदर्दी बरतने को कहा। यह कहने के लिए निश्चित है कि श्रम मन्‍त्री को सरकार और '10 जनपथ' की तरफ से अभी और डॉंट पड़ेगी या पड़ चुकी होगी।

नंगे तौर पर देखा जा सकता है कि ये तमाम पूँजीवादी तन्‍त्र जो प्रतिवर्ष 400,000 मज़दूरों की मौत कुछ नहीं कहते एक सीईओ की मौत पर कैसे सक्रिय हो गये हैं। मजदूरों की मौत पर शायद ही किसी पूंजीपति, अधिकारी पर कोई कार्रवाई होती है और अगर होती भी है तो इतनी मामूली कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ता और मजदूरों की मौत का सिलसिला लगातार जारी रहता है। भोपाल गैस काण्‍ड जैसी विभत्‍स घटना के बीस साल बाद भी मुजरिमों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है और हजारों प्रभावित लोगों को राहत नहीं दी गई है। फिक्‍की, एस्‍सोचैम, सीआईआई इस बारे में कभी कुछ नहीं कहते। पर एक सीईओ की मौत पर उन्‍होंने तत्‍काल हंगामा खड़ा कर दिया यह जाने बगैर कि गलती किसकी थी। एक कहावत है कि ताकतवर कभी गलत नहीं होता, गलती हमेशा कमजोर की ही होती है।


तो इस सबसे क्‍या यह निष्‍कर्ष नहीं निकलता कि इस व्‍यवस्‍था में मज़दूरों और आम लोगों की जिन्‍दगी की कोई क़ीमत नहीं है और तब फिर क्‍या यह निष्‍कर्ष नहीं निकलता कि मज़दूरों को इस व्‍यवस्‍था से कोई उम्‍मीद भी नहीं करनी चाहिए...।

Friday, September 19, 2008

सरकार स्‍वयं शोषण की एक मशीनरी है...

दिल्‍ली में डीडीए के फ्लैटों के आवंटन के लिए फार्म बेचने और जमा करने की प्रक्रिया में दिल्‍ली सरकार और तमाम बैंकों ने बैठे-बैठे करोड़ों की कमाई कर ली। अखबारों के अनुसार 5010 मकानों का आवंटन होना है और इसके लिए 12 लाख के आसपास फार्मों की बिक्री हुई और 4 लाख के आसपास फार्म जमा हुए। फार्म 100 रुपये में बिके और डेढ़ लाख रुपये के साथ जमा किए गए। इसके लिए लोगों ने बैंकों से लोन लिया और बैंकों ने लोन देने के लिए लोगों से पैसा लिया। क्‍या गजब का खेल है.... हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा।

पर इस खेल के पीछे के तर्क को समझने का प्रयास करें तो शोषण के एक व्‍यापक तंत्र का खुलासा होता है। वैसे तो शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य और रोजगार तथा आवास की बुनियादी सुविधाएं सरकार द्वारा लोगों को मुहैया करवायी जानी चाहिए। लेकिन पूरे विश्‍व के स्‍तर पर कहीं ऐसा नहीं हो रहा है। दुनिया भर में सरकारें अपने सामाजिक दायित्‍वों से हाथ खींच रही हैं और उन्‍हें निजी क्षेत्र की लूट के लिए उनके हवाले कर रही हैं। जो लोग यह कहते हैं कि निजी क्षेत्र की भागीदारी से सिस्‍टम में सुधार होता है उनके मुंह पर तमाचा मारने वाले कई तथ्‍य अबतक उजागर हो चुके हैं। शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रवेश के बाद से यह क्षेत्र विशुद्ध उद्योग बन चुका है। जिसके बाप के पास पैसा है वह शिक्षा पाये जिसके बाप के पास पैसा नहीं है वह भाड़ में जाये। स्‍वास्‍थ्‍य के क्षेत्र में आलम यह है कि विदेशों के लोग भारत आकर इलाज करवा रहे हैं और होटलों की तर्ज पर ऐशो आराम की सुविधाएं देने वाले निजी अस्‍पतालों का कम कीमत पर लाभ उठा रहे हैं और अपने देश में बड़ी संख्‍या में लोग मलेरिया, चेचक और पोलियो जैसी छोटी-छोटी बीमारियों से मर रहे हैं। दवा निर्माण और वितरण उद्योग का यह हाल है कि कुल बिकने वाली दवाओं का एक तिहाई नकली दवाएं होती हैं।

आवास का भी यही हाल है। जमीन का कोई भी टुकड़ा प्राइवेट बिल्‍डरों की नजर से बचा नहीं है। पलक झपकते इमारतें खड़ी हो जाती हैं और फ्लैट बिक जाते हैं। न नक्‍शे की चिन्‍ता, न सुरक्षा मानकों की और न नियम-कानून की। सरकारी तंत्र सब जानता है कि कौन अपराधी है लेकिन
वह कुछ नहीं करता क्‍योंकि ये अपराधी उसकी जेब गरम करते हैं और वह स्‍वयं इन अपराधों में बराबर का हिस्‍सेदार है।

पर सबसे मजेदार बात यह नहीं है। सबसे मजेदार बात यह है कि वास्‍तव में जिन सुविधाओं के लिए सरकार होती है और जिनका वायदा वह लोगों से करती है उनके लिए भी वह लोगों से ही शुल्‍क वसूल करने लगी है। और वह भी संवैधानिक तरीके से। इसके अलावा जो काली कमाई सरकारी अफसर करते हैं वह अलग है। अगर डीडीए के 5010 फ्लैटों के मामले में यह हाल है तो कल्‍पना की जा सकती है कि पूरे देश के स्‍तर पर इस तरह की कारगुजारी से केन्‍द्र और राज्‍य सरकारें आम लोगों से कितनी कमाई करती हैं। और प्रत्‍यक्ष करों के अलावा यह उन तमाम छोटी-छोटी साबुन-तेल जैसी चीजों पर लगने वाले परोक्ष करों के अलावा की जाने वाली कमाई है। बिना हाथ-पैर चलाये बैठे बिठाये की जाने वाली कमाई है।

केन्‍द्र और राज्‍य सरकारों के मंत्री कोई उत्‍पादक कार्रवाई तो करते नहीं। भारी-भरकम नौकरशाही के पास कलम घिसने के अलावा बस चापलूसी और गप्‍पबाजी का काम होता है। उतना ही भारी पुलिस और फौज का तंत्र है जो स्‍पष्‍टत: अमीरों की सेवा और सुरक्षा के लिए होता है और इसी काम के लिए उसे खिलाया पिलाया जाता है। तो कुल मिलाकर इन सबका बोझ उत्‍पादन करने वाली आम जनता को ही उठाना होता है। और यह वही आम जनता है जिसके लिए एक स्‍कूल या एक अस्‍पताल खोलने में सरकार को नानी याद आ जाती है। इन सभी अनुत्‍पादक वर्गों का बोझ उठाने वाली यह वही जनता है जिसे एक छोटा से काम कराने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ता है, घूस देनी पड़ती है और सिफारिशें लगवानी पड़ती हैं तब जाकर कहीं फाइल सरकती है।

पूंजीवादी जनतंत्र अब अपने सारे नकाब उतारकर पूरी नंगई पर उतर आया है। अब तो वह समाजवाद या कल्‍याणकारी राज्‍य की बात भी नहीं करता। भूल जाओ की संविधान में अब भी भारत एक समाजवादी राज्‍य है। हालांकि सच्‍चाई तो यह है कि 1950 में भी भारत न तो समाजवादी था और न उसे ऐसा बनाने की कोशिश की गई। यह शब्‍द तो महज एक छलावा था जिससे कि लोगों की गाढ़ी कमाई को सरकारी उपक्रमों में लगा कर आर्थिक अवरचनागत ढांचा खड़ा किया जाये क्‍योंकि उस समय देशी पूंजीपति वर्ग की इतनी औकात नहीं थी कि खुली प्रतियोगिता में वह विदेशी पूंजी‍पतियों के आगे ठहर पाता। उस समय सरकार स्‍वयं एक पूंजीपति थी जो जनता की मेहनत की अतिरिक्‍त कमाई को हड़प जाती थी और लोगों में कुछ प्रसाद बॉंट देती थी। धीरे-धीरे उसने यह भी करना बन्‍द कर दिया। अब सरकार बस शोषण करती है, खून चूसती है और पूंजीपतियों को छूट देती है कि वे जनता का खून चूसें और लोगों के लिए उसे कुछ करना भी पड़ता है तो बस इस डर से कि कहीं लोग विद्रोह न कर दें और कहीं विदेशों में उसकी बदनामी न हो जाये।

Tuesday, September 16, 2008

अमेरिका का भारत प्रेम और परमाणु करार

मुश्किलों में फंसे अमेरिकी साम्राज्‍यवादियों का भारत प्रेम देखकर हमारे देश के बहुत सारे लोगों की आंखें डबडबा गई हैं। चीन के मुकाबले में खड़ा होने के लिए हमारे देश के हुक्‍मरानों को अमेरिकी सहारे की जरूरत है और अमेरिका को अपने आर्थिक संकट से उबरने के लिए किसी ऐसी अर्थव्‍यवस्‍था की दरकार है जहां उसके पूंजीपति निवेश कर सकें। अगर अमेरिका परमाणु करार के इतना पीछे पड़ा है तो इसका एकमात्र कारण यह है कि परमाणु करार के बाद ऊर्जा क्षेत्र में और उसके बाद लगने वाले उद्योगों में भारी पैमाने पर अमेरिकी कंपनियों की तरफ से निवेश होना है। अमेरिकी अर्थव्‍यवस्‍था इन निवेशों को अपने संकट के समाधान के रूप में देख रही है। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका चीन, रूस और यूरोपीय संघ की बढ़ती आर्थिक ताकत से भी चिन्तित है और उसे एशिया में एक भरोसेमंद कनिष्‍ठ पार्टनर की आवश्‍यकता है।

हमारे देश के उद्योगपति भी इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहते। अमेरिका की मजबूरी को समझते वे अपने लिए ज्‍यादा से ज्‍यादा बटोरने लेना चाहते हैं। पूरी दुनिया की बंदरबांट में आज भारतीय पूंजीपति भी दुनिया भर के पूंजीपतियों के साथ होड़ करने लगे हैं और दुनिया भर की सरकारें विश्‍व के मंच पर अपने अपने देश के पूंजीपतियों की पैरवी कर रही हैं। और यही उनका असली काम भी होता है।

भारतीय पूंजीपति वर्ग बहुत सधे हुए कदमों के साथ दुनिया के रंगमंच पर उभर रहा है। आजादी के पहले कांग्रेसी नेतृत्‍व में दबाव और समझौते की नीति का पालन करते हुए और देश के विशाल उत्‍पादक वर्ग के श्रम का क्रूर दोहन करते हुए उसने अपनी तिजोरियां भर ली हैं और दुनिया भर के पूंजीपतियों के साथ दो-दो हाथ करने के लिए मैदान में उतर पड़ा है। हमारे देश के निवासी देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत होकर इन पूंजीपतियों का यशोगान कर रहे हैं लेकिन उन्‍हें इसका अंदाजा नहीं है कि पूंजीवाद का यह बौना राक्षस खुद उनका ही खून चूस रहा है।

इतिहास पर गौर करें तो पायेंगे कि अमेरिका के प्रेम में फंसने वाले देशों की बड़ी बुरी गति हुई है। इराक, अफगानिस्‍तान, पाकिस्‍तान लातिन अमेरिका के तमाम देश इसका उदाहरण हैं। हालांकि भारत का शासक पूंजीपति वर्ग दुनिया के सबसे चालाक शासक वर्गों में से एक है और वह काफी आगा पीछा देखने के बाद ही कोई फैसला करेगा लेकिन आम जनता को इन तमाम करारों से कुछ भी नहीं मिलने वाला। परमाणु ऊर्जा से उनके घर का बल्‍ब नहीं टिमटिमाएगा। लेकिन भारत के बड़े पूंजीपतियों को इससे जरूर काफी फायदा होगा।

Wednesday, September 10, 2008

स्विस बैंक के खातों में है ट्रिकल डाउन इफेक्‍ट का राज़

हमारे शरीफ बुर्जुआ अर्थशास्‍त्री अक्‍सर ही ट्रिकल डाउन इफेक्‍ट की चर्चा करते हैं। इस इफेक्‍ट के अनुसार जैसे जैसे समाज के ऊपरी हिस्‍सों में समृद्धि बढ़ेगी रिस रिस कर उसका फायदा निचले तबकों तक भी पहुंचेगा और इस तरह पूरे समाज की समृद्धि बढ़ेगी।
लेकिन हकीकत में ऐसा कहीं देखने को नहीं मिलता। एक तरफ देश की लगभग तीन चौथाई आबादी बेहद गरीबी (बीस रुपया रोज से कम) में गुजारा करती है वहीं धनिकों की काली कमाई का आलम यह है कि स्विस बैंकों में भारतीयों के 1456 अरब डालर जमा हैं। ये हमारे देश के वे पूंजीपति, राजनेता, नौकरशाह लोग हैं जो सत्ता को अपनी जेब में रखे हुए हैं। जिनकी काली कमाई का कोई ओरछोर नहीं है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उनपर कोई अंकुश लगाने वाला नहीं है। क्‍योंकि उन्‍हीं का शासन है उन्‍हीं की संसद और विधानसभाएं हैं उन्‍हीं की कोर्ट कचहरियां हैं और पुलिस प्रशासन सब उन्‍हीं की सेवा के लिए है।
स्विस बैंकों में जमा भारतीयों की यह रकम हमारे देश के जीडीपी से भी ज्‍यादा है। और हमारे देश पर कुल विदेशी कर्ज से भी बहुत ज्‍यादा है। यह नतीजा है उस अंधेर राज का जिसमें पूंजीपतियों और बड़े लोगों को देश की जनता और संसाधनों की खुली लूट करने की छूट दे दी गई है। पूंजीपतियों को मजदूरों का खून चूसकर मुनाफा लूटने की छूट सरकार ने दे ही दी है उनकी कानूनी कमाई पर तमाम तरह की छूट के विकल्‍प भी सरकार ने बना रखे हैं। पूंजीपतियों की कमाई पर तमाम किस्‍म की राहत (करोड़ों रुपये के टैक्‍स में छूट, सस्‍ती बिजली पानी आदि) दी जाती है और साबुन तेल से लेकर आटे दाल तक पर परोक्ष रूप से लगाए करों से आम जनता को पीस दिया जाता है।
देश की तीन चौथाई जनता अमानवीय परिस्थितियों में जीने को मजबूर है। ट्रिकल डाउन इफेक्‍ट व्‍यवहार में कहीं लागू होता नजर नहीं आ रहा है। सही बात तो यह है कि आज आम आदमी की परिभाषा ही बदल दी गई है। बुर्जुआ सत्ता का आम आदमी वह है जो मालों में जाता है, मेट्रों में सफर करता है एटीएम कार्ड से पैसा निकालता है और इन्‍कम टैक्‍स देता है। थोड़ी बहुत जुगत भिड़ाकर जो एक मोटरसाइकिल और जनता फ्लैट तो कम से कम खरीद ही लेता है। बाकी बहुलांश आबादी के लिए आज बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। एनजीओ के भ्रामक जाल से गरीब आबादी को बहलाने फुसलाने और उनके विरोध पर ठंडे पानी के छींटे मारने का उपाय किया तो गया है मगर वह भी कब तक कारगर होगा।
बुद्धिजीवियों को भले ही देर से समझ में आए मगर जनता तो किताबें पढ़े बिना भी अर्थशास्‍त्र की काफी जानकारी रखती है। और वह यह सब तमाशा देख भी रही है...