हमारे शरीफ बुर्जुआ अर्थशास्त्री अक्सर ही ट्रिकल डाउन इफेक्ट की चर्चा करते हैं। इस इफेक्ट के अनुसार जैसे जैसे समाज के ऊपरी हिस्सों में समृद्धि बढ़ेगी रिस रिस कर उसका फायदा निचले तबकों तक भी पहुंचेगा और इस तरह पूरे समाज की समृद्धि बढ़ेगी।
लेकिन हकीकत में ऐसा कहीं देखने को नहीं मिलता। एक तरफ देश की लगभग तीन चौथाई आबादी बेहद गरीबी (बीस रुपया रोज से कम) में गुजारा करती है वहीं धनिकों की काली कमाई का आलम यह है कि स्विस बैंकों में भारतीयों के 1456 अरब डालर जमा हैं। ये हमारे देश के वे पूंजीपति, राजनेता, नौकरशाह लोग हैं जो सत्ता को अपनी जेब में रखे हुए हैं। जिनकी काली कमाई का कोई ओरछोर नहीं है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उनपर कोई अंकुश लगाने वाला नहीं है। क्योंकि उन्हीं का शासन है उन्हीं की संसद और विधानसभाएं हैं उन्हीं की कोर्ट कचहरियां हैं और पुलिस प्रशासन सब उन्हीं की सेवा के लिए है।
स्विस बैंकों में जमा भारतीयों की यह रकम हमारे देश के जीडीपी से भी ज्यादा है। और हमारे देश पर कुल विदेशी कर्ज से भी बहुत ज्यादा है। यह नतीजा है उस अंधेर राज का जिसमें पूंजीपतियों और बड़े लोगों को देश की जनता और संसाधनों की खुली लूट करने की छूट दे दी गई है। पूंजीपतियों को मजदूरों का खून चूसकर मुनाफा लूटने की छूट सरकार ने दे ही दी है उनकी कानूनी कमाई पर तमाम तरह की छूट के विकल्प भी सरकार ने बना रखे हैं। पूंजीपतियों की कमाई पर तमाम किस्म की राहत (करोड़ों रुपये के टैक्स में छूट, सस्ती बिजली पानी आदि) दी जाती है और साबुन तेल से लेकर आटे दाल तक पर परोक्ष रूप से लगाए करों से आम जनता को पीस दिया जाता है।
देश की तीन चौथाई जनता अमानवीय परिस्थितियों में जीने को मजबूर है। ट्रिकल डाउन इफेक्ट व्यवहार में कहीं लागू होता नजर नहीं आ रहा है। सही बात तो यह है कि आज आम आदमी की परिभाषा ही बदल दी गई है। बुर्जुआ सत्ता का आम आदमी वह है जो मालों में जाता है, मेट्रों में सफर करता है एटीएम कार्ड से पैसा निकालता है और इन्कम टैक्स देता है। थोड़ी बहुत जुगत भिड़ाकर जो एक मोटरसाइकिल और जनता फ्लैट तो कम से कम खरीद ही लेता है। बाकी बहुलांश आबादी के लिए आज बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। एनजीओ के भ्रामक जाल से गरीब आबादी को बहलाने फुसलाने और उनके विरोध पर ठंडे पानी के छींटे मारने का उपाय किया तो गया है मगर वह भी कब तक कारगर होगा।
बुद्धिजीवियों को भले ही देर से समझ में आए मगर जनता तो किताबें पढ़े बिना भी अर्थशास्त्र की काफी जानकारी रखती है। और वह यह सब तमाशा देख भी रही है...
1 comment:
ट्रिकल डाउन थियरी के बारे में अमेरिकी अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गालब्रेथ ने दिलचस्प बात कही थी। उन्होंने इसकी तुलना घोड़े को खिलाए जाने वाले चारे से की थी। घोड़े को अच्छे से अच्छा चारा भी खिलाया जाए तो छन-छनाकर नीचे जो कुछ पहुंचेगा वह तो लीद-गोबर ही होगा...
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