ग्रेजियानो की घटना पर कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा जांच-पड़ताल से उभरे तथ्य।
22 सितम्बर की घटना और उसकी पृष्ठभूमि
सरलीकोन ग्रेज़ियानो ट्रांसमिशन इण्डिया इटली की एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी की सबसिडियरी है। यहां बड़ी मशीनों के गियर, एक्सेल आदि बनाये जाते हैं। इसके अधिकांश उत्पाद अमेरिका-इटली के बाजारों में बिकते हैं। 2003 में 20 करोड़ से कम की पूंजी से शुरू की गयी इस कम्पनी की पूंजी 2008 में बढ़कर 240 करोड़ रुपये हो चुकी है। यह ज़बर्दस्त मुनाफ़ा मज़दूरों के भयंकर शोषण की बदौलत ही सम्भव हुआ था।
फैक्ट्री में 12-12 घण्टे की दो शिफ्टों में दिनों-रात काम होता था। ओवरटाइम अनिवार्य था और कोई साप्ताहिक छुट्टी नहीं दी जाती थी। इसे मानने से इंकार करने वाले मज़दूरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था। शुरू में 350 स्थायी मज़दूरों को आपरेटर-कम-सेटलर के तौर पर रखा गया था और 80 अप्रेंटिस/ट्रेनी थे। करीब 500 मज़दूर लेबर कांट्रैक्टरों के मातहत काम करते थे। पिछले कुछ सालों से बिना कारण बताये मज़दूरों की बीच-बीच में छँटनी की जा रही थी। उनको कोई ज्वॉयनिंग लेटर नहीं दिया जाता था। गलत ढंग से कार्ड पंच करके उनके वेतन और ओवरटाइम से भारी कटौती की जा रही थी। सवाल उठाने पर मैनेजरों की मार-गाली इनाम में मिला करती। इन हालात से तंग आकर पहले-पहल मज़दूरों ने नवम्बर 2007 में यूनियन बनाने की कोशिश शुरू की। इसकी भनक लगते ही कम्पनी ने 3 मज़दूरों के फैक्ट्री में घुसने पर रोक लगा दी और एक को बर्खास्त कर दिया। कानुपर स्थित रजिस्ट्रार कार्यालय ने भी कम्पनी मैनेजमेण्ट की शह पर तरह-तरह के हथकण्डों से यूनियन के गठन को लटकाये रखा।
दिसम्बर 2007 में मैनेजमेण्ट के रवैये के विरुद्ध आन्दोलन करने पर 100 और मज़दूरों को बाहर कर दिया गया। लम्बे आन्दोलन के बाद 24 जनवरी, 2008 को कम्पनी ने साप्ताहिक छुट्टी और 1200 रु. वेतनवृद्धि की बात मान ली। लेकिन इस समझौते के तुरन्त बाद कम्पनी ने स्थानीय ठेकेदारों के मातहत 400 नये मज़दूर ठेके पर रख लिये जो फैक्ट्री परिसर के भीतर ही रहते थे। 400 मज़दूरों के इस ''कैप्टिव फोर्स'' के दम पर इन ठेकेदारों ने पहले से काम कर रहे मज़दूरों को धमकाना शुरू कर दिया। इन ठेकेदारों ने मज़दूरों को आतंकित करने और उनके आन्दोलन से निपटने के लिए फैक्ट्री परिसर में लोहे की छड़ें, लाठियां और दूसरे हथियार भी इकट्ठा कर रखे थे। इसके साथ ही 150 सिक्योरिटी गार्डों के रूप में एक ठेकेदार के तहत गुण्डों की पूरी बटालियन खड़ी कर ली गयी।
400 नये भर्ती किये गये ठेका मज़दूर चूँकि 3 महीनों के दौरान मशीन ऑपरेट करना सीख गये थे इसीलिए चरणबद्ध तरीके से मज़दूरों को निकाला जाने लगा। 5 मई को कम्पनी ने 5 मज़दूरों की छँटनी कर दी। इन मज़दूरों को निकाले जाने का विरोध कर रहे 27 परमानेण्ट मज़दूरों को सस्पेण्ड कर दिया गया। इसके एक हफ्ते बाद ही 30 और मज़दूर निकाल बाहर किये गये। एकदम स्पष्ट था कि कम्पनी सोची-समझी रणनीति के तहत योजनाबद्ध तरीके से पुराने मज़दूरों से छुटकारा पाना चाह रही थी। मैनेजमेण्ट ने वर्कशाप के भीतर रिवर्स एग्ज़ॉस्ट पंखे बन्द करा दिये जिससे भीतर गर्मी बेहद बढ़ गयी। चारों ओर क्लोज़ सर्किट कैमरे लगा दिये गये थे और जो भी मज़दूर थोड़ी देर भी ढीला पड़ता दिखता उसे बाहर कर दिया जाता। मज़दूरों ने संबंधित अधिकारियों से शिकायत भी की लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
मज़दूरों ने डीएलसी और जिलाधिकारी के कार्यालय पर धरना-प्रदर्शन किया। श्रममन्त्री, मुख्यमन्त्री, प्रधानमन्त्री को अपनी समस्या से अवगत कराया। उन्होंने इटली दूतावास तक अपनी बात पहुँचायी। लेकिन उनकी आवाज बहरे कानों पर पड़ रही थी। मज़दूरों को अलग-थलग पड़ता देख कम्पनी मैनेजमेण्ट ने दम्भ के साथ घोषणा की कि अगर प्रधानमन्त्री भी कहें तो भी तुम लोगों को काम पर वापस नहीं लेंगे। 2 जुलाई के दिन मैनेजमेण्ट ने बाकी बचे 192 मज़दूरों को भी काम से निकाल दिया। वस्तुत: कंपनी को इस दिन श्रमायुक्त के समक्ष हुए समझौते के अनुसार मज़दूरों को काम पर वापस रखना था! इस तरह कुल 254 मज़दूरों को सड़क पर धकेल दिया गया। कई महीनों से बेरोजगार मज़दूरों के सामने भुखमरी की नौबत पैदा हो गयी। कई लोगों को अपने घर का सामान तक बेचना पड़ा। मज़दूर ही नहीं श्रम विभाग के अधिकारियों तक का कहना है कि समझौते पर कई बार सहमत होने के बावजूद कम्पनी में वापस पहुँचते ही मैनेजमेण्ट के लोग उसे लागू करने से मुकर जाते थे।
22 सितम्बर को क्या हुआ?
एक बार फिर मज़दूरों ने श्रम विभाग का दरवाजा खटखटाया। मैनेजमेण्ट ने साफ तौर पर कहा कि 22 सितम्बर तक सभी मज़दूर कम्पनी में आकर माफीनामा लिखें तभी आगे की बात की जायेगी। मजबूर होकर मज़दूर 22 सितम्बर की सुबह 9 बजे फैक्ट्री गेट पर पहुँचे। उन्हें 3 घण्टे इन्तजार कराया गया। 12 बजे के बाद मज़दूरों को भीतर टाइम ऑफिस में बुलवाया गया जहां हथियारबंद सिक्योरिटी गार्ड और स्थानीय गुण्डे पहले से तैनात थे। वहां मौजूद एक मैनेजर ने मज़दूरों से कहा कि वे कम्पनी को हुए नुकसान और तोड़फोड़ के लिए व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेते हुए माफीनामे पर दस्तखत करें तभी उन्हें वापस लिया जायेगा। इस पर एक मज़दूर ने प्रतिवाद करते हुए कहा ''जब हम लोगों ने कोई तोड़फोड़ की ही नहीं तो माफीनामे में ऐसा क्यों लिखें?'' इस पर अनिल शर्मा नाम के एक टाइम ऑफ़िसर ने मज़दूर को थप्पड़ मार दिया। दोनों में झगड़ा हुआ और सिक्योरिटी वालों ने मज़दूरों को पीटना शुरू कर दिया।
भीतर से हल्ला-गुल्ला सुनकर बाहर मौजूद मज़दूर भीतर दौड़ पड़े। मज़दूरों को रोकने के लिए एक मैनेजर ने सिक्योरिटी गार्डों और गुण्डों को मज़दूरों पर हमला करने का आदेश दे दिया। एक सिक्योरिटी गार्ड ने मज़दूरों पर गोली भी चलायी। इस मारपीट में 34 मज़दूर घायल हो गये। इस दौरान बिसरख थाने के एस.एच.ओ. जगमोहन शर्मा पुलिस बल के साथ मौजूद रहे लेकिन मालिकान की शह पर उन्होंने कुछ नहीं किया। बाद में पुलिस ने दोनों तरफ के लोगों को हिरासत में लिया, लेकिन मैनेजमेण्ट के लोगों को तो छोड़ दिया गया जबकि मज़दूरों को जेल भेज दिया गया।
इसी अफरा-तफरी में सीईओ एल.के. चौधरी के सिर में भी चोट लगी और अस्पताल ले जाने पर उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि चौधरी के परिजनों का कहना है कि उनकी हत्या किसी व्यावसायिक रंजिश के तहत की गयी है, मज़दूरों ने उन्हें नहीं मारा।
लेकिन नियमित कर्मचारियों की छुट्टी करने पर आमादा मैनेजमेण्ट को एक बहाना मिल गया। स्थानीय उद्योगपति, कारपोरेट मीडिया, नौकरशाही सब मिलकर मज़दूरों को बदनाम करने और दोषी ठहराने में जुट गये। 63 मज़दूरों पर सीईओ की हत्या की साजिश रचने और उन्हें मारने का इल्जाम लगाया गया जबकि 72 अन्य पर बलवा करने और शान्ति भंग करने की धाराएं लगा दी गयीं। कई दिनों तक प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ऐसी ख़बरें आती रहीं कि ''मज़दूरों ने बर्बरतापूर्वक पीट-पीटकर सी.ई.ओ. की हत्या कर दी''।
घटना के तुरन्त बाद उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार उद्योगपतियों के पक्ष में सक्रिय हो गयी। 26 सितम्बर को दिल्ली में बुलायी गयी विशेष बैठक में मायावती ने पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को मज़दूरों के साथ सख्ती से निपटने के निर्देश दिये। मुख्य सचिव और एडीजी (कानून-व्यवस्था) ने नोएडा में कैम्प ऑफिस बनाकर उद्योगपतियों के ''दुखड़े'' सुनना शुरू कर दिया। किसी ने भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि मज़दूरों की क्या शिकायतें हैं। सरकार के रवैये से ऐसा लगता है जैसे ''औद्योगिक अशान्ति'' के सारे मामले महज़ कानून-व्यवस्था के मसले हैं और इसके लिए मज़दूर ही दोषी हैं। इन्हीं से निपटने के लिए सरकार ने आनन-फानन में नोएडा के औद्योगिक इलाकों के लिए तीन नये डीएसपी भी तैनात कर दिये। श्रम कार्यालय को लगभग दरकिनार करते हुए सरकार ने ''औद्योगिक सम्बन्ध समिति'' का गठन करके औद्योगिक विवादों के सम्बन्ध में तमाम कार्यकारी अधिकार उसे सौंप दिये हैं। इस समिति में नोएडा और ग्रेटर नोएडा प्राधिकरणों के सी.ई.ओ. के अलावा जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी शामिल हैं। मालिकान के हौसले इतने बुलन्द हैं कि ग्रेटर नोएडा एसोसिएशन ऑफ इंडस्ट्रीज़ के अध्यक्ष के मुताबिक सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया है कि श्रम कार्यालय द्वारा किसी भी उद्योगपति के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने से पहले उन्हें सूचना दी जायेगी। बिल्कुल साफ है कि केन्द्र की यूपीए सरकार और उ.प्र. की मायावती सरकार राजनीति के मैदान में एक-दूसरे से चाहे जितना झगड़ें, श्रम-शक्ति को लूटने में देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लठैत बनकर उनकी मदद के लिए किसी भी हद तक चले जाने के मामले में दोनों में कोई अंतर नहीं है।
कुछ सामाजिक तथा मज़दूर संगठन ग्रेजियानो के मज़दूरों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अधिक जानकारी के लिए तथा इस मुहिम से जुड़ने के लिए संपर्क करें:
tapish.m@gmail.com
grazianoworkerssolidarity@yahoo.com
फोन : तपिश - 9891993332
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