यह समझने के लिए बहुत अक्ल की जरूरत नहीं है कि आज के युग में जाति व्यवस्था की कोई आवश्यकता नहीं है। जाति व्यवस्था के जिस शुद्धतम प्राचीन रूप की बात की जाती है वह भी आज के समय में लागू नहीं हो सकती है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो जाति व्यवस्था की उपयोगिता कब की समाप्त हो चुकी है। लेकिन इतिहास निर्माण में बल की भूमिका का सिद्धान्त बताता है कि कोई चीज चाहे कितनी ही जर्जर क्यों न हो जाए वह तब तक नष्ट नहीं होगी जब तक कि उसपर बाहर से बल आरोपित न किया जाए। जाति व्यवस्था के संदर्भ में आज हम ऐसे ही मुकाम पर खड़े हैं।
हर चीज को विद्यमान है उसके होने के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है और वह कारण उस चीज को सार्थकता प्रदान करता है, लेकिन समय के साथ हर चीज अपने विपरीत में बदल जाती है और उसे नष्ट कर देने के कारण भी उत्पन्न होने लगते हैं। जाति प्रथा आजतक मौजूद है तो इसके पीछे भी कारण हैं।
पूरा का पूरा सामन्ती समाज शूद्रों और दलितों के श्रम पर आश्रित था। अपने विशेषाधिकारों को बनाए रखने और अपने उत्तराधिकारियों का भविष्य सुनिश्चित करने के लिए जरूरी था कि शासक वर्ग (अगड़ी जातियां) कठोर जातिगत नियम और कानून बनाएं। उस दौर में सत्ता और धर्म दो प्रमुख हथियार थे जिनका उपयोग निचली जातियों के सदियों से अनपढ़ लोगों का शोषण-उत्पीड़न करने के लिए किया जाता था।
जाति व्यवस्था का आज भी इसी उद्देश्य पूर्ति के लिए उपयोग किया जाता है। फर्क सिर्फ इतना है कि आज न सिर्फ उच्च जातियों के सत्ताधारी बल्कि दलित जातियों के सत्ताधारी भी सत्ता हासिल करने और उसे बचाए रखने के लिए जाति प्रथा का उपयोग कर रहे हैं। अगर जाति प्रथा वास्तव में समाप्त हो गयी तो वे सत्ता कैसे हासिल करेंगे।
पूंजीवाद अपने साथ आधुनिक विचार लेकर आता है। वह लोगों में स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के विचार डालता है। तर्क और खुले दिमाग से सोचने को प्रोत्साहित करता है। लेकिन यह उसी दौर में होता है जिस दौर तक पूंजीवाद की भूमिका क्रान्तिकारी होती है। फिर एक समय ऐसा आता है जब पूंजीवाद अपने स्वघोषित उद्देश्यों से ही पीछे हट जाता है। स्वतंत्रता का मतलब सिर्फ खरीदने बेचने की स्वतंत्रता होती है, समानता सिर्फ पूंजीपतियों के लिए होती है और भाईचारा सिर्फ मुनाफे के आधार पर बनता है। जब तक फायदा हो तब तक भाई-भाई और अगर फायदा न हो तो मार-कुटाई। अपने प्रगतिविरोधी रूप में पूंजीवाद अतीत की उन सभी प्रथाओं को गोद ले लेता है जो भले ही आज के लिए उपयोगी न हों लेकिन जिससे उसका हित सधता हो। ऐसा ही कुछ जाति प्रथा के साथ भी हुआ। लोगों को बांटने और अपना उल्लू सीधा करने में जाति प्रथा और इस तरह की अन्य चीजें जैसे कि धर्म, नस्ल, राष्ट्रीयता ऐसे अचूक हथियारों का काम करते हैं कि शासक वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि वे पूरी तरह समाप्त हों।
ऐसे में दलित जातियों के कुछ आगे बढ़ आए लोगों को भी इसी में अपना फायदा दिखाई देता है। जैसे ही वे थोड़ा पढ़-लिख लेते हैं या पैसा कमा लेते हैं जो वे जल्दी से जल्दी उच्च जातियों में जगह प्राप्त करने को बेचैन हो जाते हैं। इसलिए वे जातियों को पूरी तरह समाप्त करने के बजाय आरक्षण जैसी मांगें करते हैं। वे यह कोशिश नहीं करते कि सदियों से हीन भावना से ग्रस्त अपने बिरादर भाइयों को सम्मान के साथ जीना और संघर्ष करना सिखाएं। बल्कि इधर-उधर के कुछ मुद्दे उठाकर वे इस पूरी लड़ाई को ही मुद्दे से भटका देते हैं।
जाति प्रथा कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसे संसद में बहुमत पाकर, आरक्षण लागू करके या नियम-कानून बनाकर समाप्त किया जा सके। यह मनुष्य की गरिमा की लड़ाई है। यह समाज में मानव श्रम को उसका उचित स्थान दिलाने की लड़ाई है। यह इस तथ्य को स्थापित करने की लड़ाई है कि श्रम वास्तव में मनुष्य का नैसर्गिक गुण है। और श्रम किए बिना मनुष्य मनुष्य रह ही नहीं सकता है। यह निजी संपत्ति पर आधारित एक सदियों पुरानी बुराई का नाश करने की लड़ाई है। चूंकि आज के मजदूर वर्ग में दलित जातियों के ही लोग सबसे अधिक हैं इसलिए मजदूरों के हकों की कोई भी लड़ाई वास्तव में दलित जातियों के लोगों की बहुसंख्या के हित की लड़ाई है। आरक्षण जैसी चीजों के बजाय मजदूर आन्दोलन से ही दलित जातियों का सबसे बड़ा और सबसे निचला तबका अपना उद्धार कर सकता है। इसलिए मार्क्स के सिद्धान्तों की अनदेखी करके दलित प्रश्न का कोई समाधान नहीं निकाला जा सकता है।
2 comments:
nice
ager pure samaj ki soch aapki jaisi ho jaye to main usu din arkchan ka virodh main khada ho jaunga,,,lakin yah sambhav nahi hai....
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