Friday, December 31, 2010

विकिलीक्‍स और राडिया टेप्‍स : अपेक्षाएं, प्रभाव और विकल्‍प

पहली बात तो यह कि विकीलीक्‍स और राडिया टेप्‍स से ऐसी कोई नई जानकारी नहीं मिली जिसका पहले से अन्‍दाजा न हो। साम्राज्‍यवादी बर्बरता हो या बुर्जुआ नेताओं का दोमुंहापन, कॉरपोरट लॉबीइंग हो या मीडिया की हस्तियों का सत्ता के दलाल के रूप में काम करना..... कुछ भी नया, अप्रत्‍याशित नहीं है। न तो इससे व्‍यवस्‍था को कोई संकट उत्‍पन्‍न होने वाला है और न ही उसके ढंग-ढर्रे पर कोई फर्क पड़ने वाला है।

हमारे देश और दुनिया में निश्चित ही एक ऐसा पढ़ा-लिखा मध्‍यवर्गीय तबका (ग्रेट इंडियन मिडल क्‍लास का हिस्‍सा) है जिसकी भावनाओं को थोड़ी चोट पहुंची है। भले ही यह मध्‍यवर्गीय तबका किसी न किसी रूप में भ्रष्‍टाचार से लाभान्वित होकर ही आज इस स्थिति में पहुंचा है लेकिन अब उसे भ्रष्‍टाचार रास नहीं आता। वह एक सुन्‍दर, शालीन, दूध का धुला पूंजीवाद चाहता है। वह अभी तक भूला नहीं है कि कैसे वह भ्रष्‍टाचार, दहेज और जाति प्रथा के खिलाफ लेख लिखा करता था (परीक्षाओं और क्‍लासरूम में), कैसे उसने कसमें खाई थीं कि एक दिन खूब पैसा कमाकर वह देश से गरीबी मिटा देगा, कैसे वह कहता था कि दूसरों की मदद आप तभी कर पाएंगे जब आप स्‍वयं शक्तिशाली हों। पर परिस्थितियों की मार ने उसे घर, गाड़ी, नौकरी, प्रोमोशन, बीमा, बीबी, बच्‍चे में ऐसा उलझाया कि बेचारा किसी काम का न रहा।

पर उसने अपेक्षाएं अभी भी नहीं छोड़ी हैं। वो खुद कुछ नहीं कर पाया तो क्‍या उसके आदर्श रतन टाटा और बिल गेट्स तो कर रहे हैं। वे अपनी अरबों की सम्‍पत्ति दान कर रहे हैं, धर्म-कर्म के काम करके जनता के गुस्‍से से पंजीवाद की सुरक्षा कर रहे हैं। पर पूंजीवाद के सुंदर-सलोने मुखड़े पर भ्रष्‍टाचार के दाग उसे अच्‍छे नहीं लगते। भ्रष्‍टाचार-मुक्‍त पूंजीवाद उसका आदर्श है। हालांकि सच्‍चाई यह है कि भ्रष्‍टाचार से उसके जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ता, भ्रष्‍टाचार से उसकी चाय का स्‍वाद खराब नहीं होता, उसके खर्चो में कोई कमी नहीं आती। वह खुद लाइन में लगने के बजाय थोड़े पैसे देकर अपना काम जल्‍दी करवा लेता है और कहता है कि यहां तो ऐसे ही चलता है। कैरियर ओरिएंटेड पढ़ाई करने के कारण उसने कभी जाना ही नहीं कि भ्रष्‍टाचार-मुक्‍त पूंजीवाद भ्रष्‍टाचार वाले पूंजीवाद से किसी भी रूप में कम अत्‍याचारी नहीं होता। और अब उसका वर्ग बोध उसे यह तर्क समझने ही नहीं देता। अब वर्गीय पक्षधरता उसके नौजवानी के आदर्शों को सर भी नहीं उठाने देती।

इन खुलासों से जनता को भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जनता अपने सहज वर्ग बोध से सब समझती है। कॉरपोरेट मीडिया चाहे रतन टाटा को भारतीयों का आदर्श घोषित कर दे या पेड न्‍यूज चलाकर नेताओं की तारीफ करती रहे। पब्लिक सब समझती है। प्रश्‍न यह है कि अगर पब्लिक सब समझती है तो फिर सब सहती क्‍यों है।

पूंजीपतियों के बीच आपसी प्रतिस्‍पर्धा के कारण ऐसे खुलासे स्‍वयं बुर्जुआ मीडिया के माध्‍यम से समय समय पर आते रहते हैं और आगे भी आते रहेंगे। पूंजीपतियों के बीच आपसी मार-पीट और गलाकाटू प्रतिस्‍पर्धा कहीं व्‍यवस्‍था के लिए ही संकट न पैदा कर दे इसलिए पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी या सरकार की चिंता यह है कि एक दूसरे को नंगा करने पर उतारू ये मुनाफाखोर पूंजीपति अपने-अपने स्‍वार्थ में अंधे होकर कहीं पूरी पूंजीवादी व्‍यवस्‍था को ही नंगा न कर दें। इसलिए प्रधानमंत्री का दुख यह नहीं है कि एक पूंजीपति उनकी पार्टी को अपनी दूकान कहता है तो दूसरे के मुताबिक उनका एक केंद्रीय मंत्री हर परियोजना पर 15 प्रतिशत दलाली लेता है। उनकी चिंता सिर्फ यह है कि कहीं पूंजीपति बुरा न मान जाएं और वे पूंजीपतियों को उनके हितों की रक्षा का आश्‍वासन देते घूम रहे हैं।


विकिलीक्‍स हो या राडिया टेप्‍स, ये खुलासे अपने आप में इस व्‍यवस्‍था के सामने इससे बड़ा संकट नहीं पैदा कर सकते। पूंजीवाद की सेहत पर इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता बस थोड़ा जुकाम हो सकता है। संकटग्रस्‍त पूंजीवाद भी अपने आंतरिक संकटों के कारण भरभराकर नहीं गिर पड़ेगा। उसे ध्‍वस्‍त करने के लिए बाहरी ताकत की आवश्‍यकता होगी। जनता की एकजुट शक्ति की फौलादी ताकत की आवश्‍यकता होगी। पूंजीवाद कोई न कोई जोड़-तोड़ करके लड़खड़ाते हुए भी काफी दूर तक चल सकता है पर जबतक लोगों की वैकल्पिक शक्ति एकजुट होकर प्रहार नहीं करती तबतक मरणासन्‍न हालत में भी यह व्‍यवस्‍था मनुष्‍य और प्रकृति पर काफी कहर बरपा करती रहेगी। इसलिए जरूरी है कि पूंजीवाद के संकटों पर खुशी मनाने के बजाय जनता की शक्ति को संगठित और गोलबन्‍द किया जाये।

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