एक ट्रेंड के तौर पर यह पहले से ही नजर आने लगा था लेकिन जो लोग प्रवृत्तियों और रुझानों को पर्याप्त तथ्यों के प्रकाश में ही समझ पाते हैं अब तो उनके सामने भी यह लगातार अधिक से अधिक साफ होता जा रहा है कि पूंजीवादी जनतंत्र के इस तमाशे में वही सफल हो सकता है जिसकी झोली में सबसे अधिक पूंजी हो।
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के बाद मीडिया में (टाइम्स आफ इंडिया) बहुत प्रमुखता से यह खबर प्रकाशित हुई कि इन विधानसभा चुनावों में ज्यादातर उम्मीदवार और सफल प्रत्याशी करोड़ों के स्वामी हैं। दिल्ली विधानसभा के लगभग सारे ही विधायक लखपति या करोड़पति हैं। पांचों राज्यों जिनमें अभी विधानसभा चुनाव हुए हैं में देखें तो 40 प्रतिशत सीटें करोड़पति प्रत्याशियों ने जीती हैं। 5 लाख प्रतिवर्ष से कम आय वाले 3 प्रतिशत से भी कम उम्मीदवारों ने चुनाव में सफलता प्राप्त की। दिल्ली विधानसभा में औसत निकालें तो प्रत्येक विधायक के पास 2.86 करोड़ की संपत्ति है। यही बीजेपी और कांग्रेस के विधायकों का भी औसत है। वहीं छत्तीसगढ़ विधानसभा का हर दूसरा विधायक 3 करोड़ की परिसंपत्तियों का मालिक है।
सिर्फ तथ्यों की ही बात करें तो आंकड़ें बताते हैं कि यदि आपके पास 5 करोड़ से अधिक की संपत्ति है तो आपके चुनाव जीतने की संभावना 50 प्रतिशत हो जाती है। कम आय वालों के लिए यह संभावना उनकी आय के हिसाब से ही कम होती जाती है।
यह ट्रेंड कोई नई बात नहीं है लेकिन मीडिया में इसको अब जगह मिली क्योंकि अब आंकड़े इतने सनसनी फैलाने वाले हो गए हैं कि इन्हें पहले पन्ने पर देकर अखबार की रेटिंग बढ़ाई जा सकती है। वर्ना यह तो सभी जानते हैं कि संसद और विधानसभाओं में हर पूंजीपति की अपनी एक लॉबी होती है और यह भी सब जानते हैं कि कौन सांसद या विधायक किस पूंजीपति के हित साधता है। यह अनायास नहीं है कि अनिल अंबानी और विजय माल्या जैसे पूजीपति स्वयं सांसद बनते हैं। अब इसमें कुछ समझने लायक नहीं बचा है कि हमारे सम्मानित सांसद और विधायक या तो स्वयं पूंजीपति हैं या पूंजीपति बनने की राह पर हैं और इसलिए इससे यह एक सरल सा निष्कर्ष भी निकलता है कि उनके हित पूंजीपतियों के हितों के साथ्ा नत्थी हैं। चाहे वे किस भी जाति धर्म के हों लेकिन उनका वर्ग एक है - पूंजीपति वर्ग। और उनका काम भी एक ही है अपने वर्ग की उन्नति के बारे में सोचना और काम करना।
समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे के जिस नारे के साथ पूंजीपति वर्ग सत्ता में आया था उसका मतलब सिर्फ यह रह गया है कि पूंजीपतियों के बीच की समानता, देश और देश की जनता को लूटने की स्वतंत्रता और इस लूट के निजाम को बनाए रखने के लिए शोषकों का आपसी भाईचारा। देश की तीन चौथाई आबादी के लिए समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे की पोल तभी खुल जाती है जब चौराहे पर खाकी वर्दी डाले कोई पुलिसवाला उसको जब-तब मां-बहन की सुना देता है। आम आदमी चोर बदमाशों से उतना नहीं डरता जितना कि पुलिस से। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि नौकरशाही में कुछ भ्रष्ट लोग आ गए हैं बल्कि इसलिए है क्योंकि नौकरशाही लोगों की सेवा के लिए है ही नहीं। नौकरशाही का काम तो पूंजीपति वर्ग के हितों की हिफाजत करना और उसके पक्ष में न्याय-कानून का प्रयोग करना है। बाकी जनता के लिए तो कोर्ट कचहरी और सरकारी दफ्तर बस दिखावे की चीजें हैं।
कहने की कोई जरूरत नहीं कि देश की संसद और विधानसभाएं आम लोगों के हितों की रक्षा नहीं करते और न ही आम जनता को उनसे कोई अपेक्षाएं पालनी चाहिए। पूंजीवादी धनतंत्र में पूंजी का नंगा खेल अब उस हद तक बढ़ चुका है (और इसे बढ़ते ही जाना है) कि इस व्यवस्था को सुधारने की कोई उम्मीद बाकी नहीं रह गई है।
2 comments:
पूँजीपतियों में एकता और समानता संभव ही नहीं यदि उन्हें सब कुछ छिन जाने का भय न हो। इस भय के बिना तो वे एक दूसरे पर हमेशा खंजर ताने होते हैं।
द्विवेदीजी की बात एकदम सही है कि पूंजीपतियों के बीच आपस में एकता संभव नहीं है, लेकिन जब उनके वर्ग हितों पर चोट पहुंचने वाली होती है तब वे अपनी सारे झगड़े भूलकर एक हो जाते हैं। उनकी एकता सापेक्षिक होती है और वह भी उनके वर्ग हितों पर पड़ने वाले प्रभाव से निर्धारित होती है।
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