Thursday, March 4, 2010

ज्‍योति बसु, राजकिशोर और द्वंद्ववाद...

मैं विकट दुविधा में फंस गया था। बात ही कुछ ऐसी थी कि मेरी जानकारी की कोई परिभाषा उसपर फिट ही नहीं बैठ रही थी। इसे निषेध का निषेध कहूं या विपरीत तत्‍वों की एकता। दार्शनिकों के हवाले से सुना था कि कोई चीज एक ही समय पर वह चीज हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। पर इस ज्ञान का ऐसा प्रयोग पहले कभी देखा-सुना नहीं था। हालांकि इसकी पूरी अपेक्षा थी कि यह काम कोई हिंदु‍स्‍तानी विचारक ही कर सकता था।
''ज्‍योति बाबू कम्‍युनिस्‍ट थे भी और नहीं भी''। अमूर्तन की गहराई में उतरने की अपनी अक्षमता के कारण मैंने जमीनी तर्क-वितर्क से समझने का प्रयास किया। सही बात तो यह है कि उदाहरणों और अपवादों को जाने बिना मुझे कोई परिभाषा समझ में ही नहीं आती है। वह भी तब जबकि वह इतनी मौलिक और अनूठी हो।
वैसे पिछड़े देशों के बुद्धिजीवियों को लगता है कि जबतक वे कोई मौलिक बात नहीं कहेंगे तबतक उनकी बुद्धिजीविता संदेह के घेरे में रहेगी इसलिए वे हमेशा कुछ न कुछ मौलिक कहने के दबाव में रहते हैं। वैसे ही जैसे न्‍यूज चैनल स्टिंग ऑपरेशन करने के दबाव में रहते हैं। जैसे नेपाल के माओवादियों को ही देखिए। अपने देश में क्रान्ति सम्‍पन्‍न भले ही न कर पाए हों लेकिन मार्क्‍सवाद में कुछ नया जोड़ने का ऐलान तो कर ही दिया। एक नया 'पथ' भी शोध लाए। दो वर्गों की संयुक्‍त तानाशाही का नया फॉर्मूला भी पेश कर दिया। दीगर बात है कि यह फॉर्मूला मार्क्‍सवाद/लेनिनवाद/माओवाद की किसी प्रस्‍थापना द्वारा पुष्‍ट या प्रमाणित नहीं होता। खैर इसकी फिक्र करने की जरूरत क्‍या है जरूरत तो यह है कि जब भी मुंह खोलो तो कोई मौलिक सिद्धांत ही टपकना चाहिए।
लर्मन्‍तोव ने एक जगह लिखा है कि रूसी लोगों को तबतक कोई कहानी समझ में नहीं आती जबतक कि कहानी के अंत में कोई सबक न निकलता हो। उसी तरह भारतीय बुद्धिजीवी को तबतक संतोष नहीं होता जबतक कि वह हर एक घटना को किसी मौलिक सिद्धांत से व्‍याख्‍यायित न कर ले।
खैर मुद्दा यह था कि ज्‍योति बाबू कम्‍युनिस्‍ट थे भी और नहीं भी। तो प्रश्‍न यह था कि वह कितना कम्‍युनिस्‍ट थे और कितना नहीं थे। या प्रश्‍न को और ठोस ढंग से रखें तो वे कितने प्रतिशत कम्‍युनिस्‍ट थे और कितने प्रतिशत नहीं थे। यह तो कोई मनोवैज्ञानिक ही बता सकता है कि कहीं वे स्प्लिट पर्सनाल्‍टी वाले व्‍यक्ति तो नहीं थे। और राजकिशोर जी ही यह बता सकते हैं कि वे दिन के कितने घंटे कम्‍युनिस्‍ट होते थे और कितने घंटे सज्‍जन (ध्यान रहे राजकिशोर जी ने बिना कोई प्रमाण दिए अपनी यह मूल प्रस्‍थापना भी दी है कि कम्‍युनिस्‍ट होना और सज्‍जन होना परस्‍पर अपवर्जी (म्‍युचुअली एक्‍स्‍क्‍लूसिव) गुण हैं)। कहीं ऐसा तो नहीं क‍ि वे दिन में कम्‍युनिस्‍ट होते थे रात में सज्‍जन।
मैंने इस मौलिक प्रस्‍थापना को समझने के लिए इसे ज्‍योति बाबू के अतीत पर लागू करने की तरकीब सोची। साथ ही मेरी सीमित कल्‍पना के टुच्‍चे घोड़े भी दौड़ने लगे। मैं सोचने लगा कि ज्‍योति बाबू जब कम्‍युनिस्‍ट का रूप धारण करते होंगे तो क्‍या करते होंगे और जब सज्‍जन का रूप धारण करते होंगे तो क्‍या करते होंगे। जब वे मजदूरों-किसानों के हक की बात करते थे तब क्‍या होते थे और जब बहुराष्‍ट्रीय कंपनियो को अपने राज्‍य को लूटने का न्‍यौता देते विदेशों की सैर करते थे तब क्‍या होते थे। जब वे कहते थे कि सर्वहारा के पास खोने के लिए सिर्फ अपनी बेडि़यां हैं तब क्‍या होते थे और जब वे धमकाते थे कि मजदूरों की भलाई इसी में है कि वे उत्‍पादन बढ़ाने में मालिकों का साथ दें तब क्‍या होते थे। जब उनकी पार्टी कम्‍युनिस्‍टों का कत्‍लेआम करने में मदद करने वाले सलीम ग्रुप को औने-पौने दाम में जमीन का कब्‍जा दे रही थी तब वे कम्‍युनिस्‍ट थे या सज्‍जन। पश्चिम बंगाल में माकपाई काडरों की गुण्‍डागर्दी और समान्‍तर सरकार को मुख्‍यमंत्री के तौर पर संरक्षण देते हुए वे कम्‍युनिस्‍ट व्‍यवहार कर रहे थे या सज्‍जनता का।
बुद्धिजीवी ने कहा है कि कम्‍युनिज्‍म और सज्‍जनता में जब भी कोई द्वंद्व हुआ तो उन्‍होंने सज्‍जनता को चुना। मतलब यह कि वे सज्‍जन पहले थे और कम्‍युनिस्‍ट बाद में। जैसे उनके राज्‍य के एक बड़े कम्‍युनिस्‍ट नेता ने कहा कि मैं हिन्‍दू पहले हूं और कम्‍युनिस्‍ट बाद में। थोड़े ही दिन में कोई कहेगा कि मैं बंगाली पहले हूं और कम्‍युनिस्‍ट बाद में। जैसे कि लाल कृष्‍ण आडवाणी और राज ठाकरे ने कम्‍युनिज्‍म की दीक्षा ले ली हो।
अभी हाल ही में ज्‍योति बाबू की पार्टी के महासचिव ने कहा कि धर्म को मानने वालों पर कम्‍युनिस्‍ट पार्टी किसी प्रकार की रोक नहीं लगाती। माकपा जैसी पार्टी रोक लगा भी कैसे सकती है जिसके एक भूतपूर्व महासचिव ही जत्‍थेदार कम्‍युनिस्‍ट थे। जल्‍दी ही ऐसा भी हो सकता है कि माकपा का महासचिव छापा तिलक लगाए जनेऊ पहने राम-राम कहता नजर आए या यह भी हो सकता है कि वह पांच वक्‍त का नमाजी हो। भाजपा-शिवसेना का तो आधार ही खिसक जाएगा। यह तो सज्‍जनता की पराकाष्‍ठा हो जाएगी। कम्‍युनिज्‍म और सज्‍जनता का ऐसा बेजोड़ घोल हिन्‍दुस्‍तान में ही संभव है। और यदि ऐसा हुआ तो बुद्धिजीवियों की जमात से ज्‍यादा गदगद और कोई नहीं होगा।
भला इससे अच्‍छा क्‍या हो सकता है कि एक सज्‍जन कम्‍युनिस्‍ट संसद और विधानसभा का चुनाव लड़ते-लड़ते, पूंजीपतियों से आरजू-मिन्‍नत करके अठन्‍नी-चवन्‍नी मांगते-मांगते, क्राइम स्‍टोरीज पढ़ते-पढ़ते, संगीत सुनते-सुनते एक दिन टीवी-रेडियो पर देशवासियों को संदेश दे कि लो भैया समाजवाद आ गया। मूलाधार बदल गया। अब वर्गों का नामोनिशान नहीं रहेगा। मजदूर भाई और पूंजीपति भाई सब एकसाथ मिलकर समाजवाद का निर्माण करेंगे। अब वर्गों के बीच में कोई अंतरविरोध कोई झगड़ा नहीं रह गया है। हो सकता है कोई इसे समाजवाद की जगह रामराज्‍य भी कह दे। वैसे ही कई भारतीय बुद्धिजीवियों को मार्क्‍सवाद से एकमात्र कष्‍ट यही है कि वह विदेशी विचारधारा है। अगर इन बुद्धिजिवियों को किसी दिन पता चला कि धरती के गोल होने की बात भारत में नहीं किसी अन्‍य देश में खोजी गई थी तो वे फिर से धरती को चपटी मानने लगेंगे। या ऐसा भी कह सकते हैं कि बाकी देशों की धरती भले ही गोल हो मगर हमारे यहां की तो चपटी ही है। अगर गोल होती तो किसी देसी महात्‍मा ने ऐसा जरूर कहा होता।
प्रश्‍न बहुत हैं जवाब कम। हर प्रश्‍न का जवाब देना बुद्धिजीवियों का काम भी नहीं है। खासकर बड़े बुद्धिजीवियों का। वे तो मौलिक प्रस्‍थापनाएं और सूत्र देते हैं। कुछ छोटे बुद्धिजीवी उनका भाष्‍य करके तरह-तरह से उनकी व्‍याख्‍या करते हैं। व्‍याख्‍या करते-करते कुछ लोग कुछ नई मौलिक प्रस्‍थापनाएं पेश करते हैं। कुछ मौलिक नहीं करेंगे तो बुद्धिजीवी का तमगा कैसे मिलेगा।
तभी तो हमारे देश की तथाकथित कम्‍युनिस्‍ट पार्टियां कहती हैं कि आज का समय पहले जैसा नहीं रहा। आज का सर्वहारा भी पहले जैसा नहीं रहा। आज का मार्क्‍सवाद भी पहले जैसा नहीं रहा। आखिर एंगेल्‍स ने ही तो कहा था कि समय के साथ हर चीज अपने विपरीत में बदल जाती है। कम्‍युनिस्‍ट सज्‍जन में तब्‍दील हो जाता है। मार्क्‍सवाद संशोधनवाद में। वर्ग संघर्ष की जगह वर्गों में भाईचारे की भावना आ जाती है।
एक अंतिम प्रश्‍न रह जाता है : क्‍या बुद्धिजीवी भी अपने विपरीत में बदल जाता है? अगर हां, तो बदलकर वह क्‍या हो जाता है?

4 comments:

संदीप said...

हा हा, मारक चोट की है भाई...

New Doctors said...

"एक अंतिम प्रश्‍न रह जाता है : क्‍या बुद्धिजीवी भी अपने विपरीत में बदल जाता है? अगर हां, तो बदलकर वह क्‍या हो जाता है?"

... moorakh jan fir ekk pagal..!! kyon kaise raha.. hahaha..

Unknown said...

आपने बहुत ही अच्छा और दिलचस्प लिखा है। बहुत बहुत बधाई।

राजकिशोर said...

आपने बहुत ही अच्छा और दिलचस्प लिखा है। बहुत बहुत बधाई। आप दिल्ली में रहते हैं, तो मुझे आपका फोन नंबर चाहिए।