Wednesday, January 20, 2010

गुण्‍डागर्दी ही इनकी राष्‍ट्रीय संस्‍कृति है।

दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में जनचेतना के पुस्‍तक प्रदर्शनी वाहन पर राष्‍ट्रीय संस्‍कृति के स्‍वयंभू ठेकेदारों के कायराना हमले ने एक बार फिर से उनकी असलियत उजागर कर दी है। वैसे भयानक अमानवीय कृत्‍यों को अंजाम देने वालों की तारीफ में यह वाकया बहुत मामूली महत्‍व रखता है।
राष्‍ट्रीय संस्‍कृति के स्‍वयंभू ठेकेदारों की सबसे बड़ी संस्‍कृति यह है कि यहां दिमाग का प्रयोग वर्जित है। दिमाग का प्रयोग केवल ऊपर के पदाधिकारी करते हैं और वह भी तर्क या बहस करने के लिए नहीं केवल अमानवीय कृत्‍यों को अंजाम देने के नए-नए तरीके विकसित करने के लिए। निचले स्‍तर के कार्यकर्ताओं को केवल हुक्‍म की तामील करनी होती है।
ऐसा करने के लिए पढ़ने लिखने की कोई जरूरत ही नहीं है। सारा ज्ञान तो भगवान श्रीकृष्‍ण गीता में कह ही गए है। वैसे भी आम आदमी को ज्ञान की जरूरत ही कहां है। बस भूत,पिशाच भगाने के लिए हनुमान चालीसा रट लो, और सुख-संपत्ति के लिए कुछ अन्‍य प्रकार की रचनाओं का जाप कर लो, इतने से ही बैकुण्‍ठ पार लग जाएगा।
तो फिर जिंदगी और समाज को बदलने वाली किताबों की जरूरत ही क्‍या है। लोगों को नींद से झकझोरकर जगा देने वाली किताबों की जरूरत ही क्‍या है। लोगों को जिंदगी की असलियत बताने वाली और 'बेहतर जिंदगी का रास्‍ता' दिखाने वाली 'बेहतर किताबों' की जरूरत ही क्‍या है। आम लोगों को जीने का ढंग सिखाने वाली किताबों की जरूरत ही क्‍या है।
लिहाजा 'रामराज्‍य' की प्राप्ति के लिए प्रयासरत 'अप'संस्‍कृति के स्‍वयंभू ठेकेदारों ने हिंदी पट्टी में बड़े पैमाने पर प्रग‍तिशील साहित्‍य वितरित करने वाली संस्‍था जनचेतना के पुस्‍तक प्रदर्शनी वाहन पर दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में एक बार फिर हमला किया।
इस हमले का सबसे महत्‍वपूर्ण पहलू यही है कि यह जनचेतना की मुहिम और समाज में आम लोगों की जिंदगी से जुड़ी किताबों का प्रचार प्रसार करने की जरूरत रेखांकित होती है।
आज हर प्रकार के ढोंगी पाखंडी बाबाओं की और हर प्रकार की धार्मिक पुस्‍तकें, सीडी, कैसेट धड़ल्‍ले से बाजारों में बिक रहे हैं। लोगों की चेतना को कुंद करने वाली नशे की खुराक जैसे ये साहित्‍य जितनी आसानी से सुलभ हैं उतने प्रेमचंद या भगतसिहं नहीं हैं। हर प्रकार के पाखंडों, कुरीतियों, यहां तक कि धर्म के आवरण में लिपटी अश्‍लील कहानियां भी बड़े पैमाने पर लोगों को उपलब्‍ध कराई जा रही हैं और इन्‍हें राष्‍ट्रीय संस्‍कृति का जामा पहनाया जाता है।
जाहिर है कि ऐसा करने वालों को इंसान की तरह जीने और संघर्ष और सृजन की बात करने वाले साहित्‍य से खतरा महसूस होता है और भीड़ की ताकत के साथ मौका देखकर वे कायराना हमले भी करने से बाज नहीं आते।
सोचिए कि 'रामराज्‍य' में क्‍या होगा।

1 comment:

Dr. Amar Jyoti said...

सर उठाने लगे हिटलर के नवासों के गिरोह
अब कलम से नहीं, शमशीर से बातें करिये