Thursday, September 30, 2010

कुपोषण, स्‍वाद और स्‍वामीनाथन अय्यर की संवेदनशीलता

'अर्थशास्‍त्र राजनीति का सान्‍द्रतम रूप है' मार्क्‍स के इस कथन की भोंडी अभिव्‍यक्ति इस रूप में हुई है कि भारतीय बुर्जुआ जनतन्‍त्र की कमान अर्थशास्त्रियों और वकीलों के हवाले हो गई है। अगर मुनाफे की गारंटी सबसे बड़ी सरकारी जिम्‍मेदारी बन जाए तो ज़ाहिर है सरकार इसमें कोई हस्‍तक्षेप बरदाश्‍त नहीं करेगी।

सुप्रीम कोर्ट ने जब कहा कि अनाज सड़ाने के बजाय गरीबों में बॉंट दिया जाये तो प्रधानमन्‍त्री फनफना उठे। किसे ज़िन्‍दा रखना है और किसे भूखा मारना है यह नीतिगत मसला है और विधायिका का काम है, इसलिए प्रधानमन्‍त्री महोदय ने न्‍यायपालिका को अपने दायरे में रहने की हिदायत अविलम्‍ब दे दी। देरी कर भी कैसे सकते थे। आज जबकि देशों का भविष्‍य शेयर बाज़ार के बुलबुले के फूलने और फूटने पर टिका हो वहां देरी कितनी घातक हो सकती है यह प्रधानमन्‍त्री अच्‍छी तरह जानते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भुखमरी के बाज़ार पर पड़ने वाली चोट देश की आर्थिक प्रगति के कर्णधार पूँजीपतियों में जो निराशा फैलाएगी उसकी चिन्‍ता अर्थशास्‍त्री प्रधानमन्‍त्री को नहीं होगी तो किसे होगी।

मुनाफा ही बुर्जुआ अर्थशास्‍त्र का ब्रह्मवाक्‍य है और पूँजीवादी बाज़ार का तर्क इस बात की इजाज़त ही नहीं देता कि माल को मुनाफे के लिए ज़रूरी कीमत से कम पर बेचा जाए। आखिर आज से पहले भी और पूरी दुनिया में अनाज सड़ता रहा है, जलाया जाता रहा है, या समन्‍दर में गिराया जाता रहा है। बाज़ार के खेल में यह एक सामान्‍य सी बात है जिसे सभी जानते हैं। मिलावट करना, जमाखोरी करना, कालाबाज़ारी करना भी उतना ही सामान्‍य है और पूरी तरह पूँजीवादी नैतिकता के दायरे में आता है। पर किसी माल को सस्‍ते में बेचना, मुनाफा कम करके बेचना.... नहीं नहीं... अर्थशास्‍त्री प्रधानमन्‍त्री की आत्‍मा चीत्‍कार उठी!!

आत्‍मा तो स्‍वामीनाथन अय्यर की भी चीत्‍कार उठी! लिहाजा उन्‍होंने फरमाया कि बात यह नहीं है कि लोग ग़रीब हैं और उन्‍हें खाने को पर्याप्‍त नहीं मिलता। दिक्‍कत यह है सरकार गरीबों को देने के लिए जितना सस्‍ता अनाज भेजती है वो वास्‍तविक गरीबों तक पहुंचने के बजाय ऐसे लोगों द्वारा हजम कर लिया जाता है जो महंगा अनाज खरीद सकते हैं। इसलिए सरकार को करना ये चाहिए कि गरीबों को जितना अनाज सस्‍ते में देना है उसको पाउडर के रूप में कुछ अन्‍य विटामिन और प्रोटीन मिलाकर देना चाहिए। अय्यर साहब की दरियादिली देखकर अगर आपकी आंखों में आंसू उमड़ पड़ने वाले हों तो ज़रा ठहरिये। स्‍वामीनाथन जी आगे कहते हैं - लेकिन ऐसा करने से पहले उस पाउडर को इतना कड़वा, बेस्‍वाद बना देना चाहिए कि केवल वही लोग उसे खाएं जो वास्‍तव में भूख्‍ा से मर रहे हों। ज़ाहिर सी बात है कि इतना बेस्‍वाद खाना खाने में अमीर लोगों को कोई दिलचस्‍पी नहीं होगी और लिहाजा वास्‍तविक ज़रूरतमंदों को पोषक भोजन मिल जाएगा।

इतना दयालु अर्थशास्‍त्री बिरले ही कभी पैदा हो। अय्यर साहब कम से कम हमारे प्रधानमन्‍त्री महोदय से ज्‍़यादा संवेदनशील तो हैं ही। प्रधानमन्‍त्री जहां लोगों को निवाला ही नहीं देना चाहते वहां अय्यर साहब केवल उस निवाले का स्‍वीद छीनने की बात कर रहे हैं।

गॉंव में देखा है कि मवेशियों के चारे में खली नाम की एक चीज मिलाई जाती है जिससे कि उनका चारा स्‍वादिष्‍ट हो जाए और वे ज्‍़यादा मात्रा में खाएं। यहां तक कि खली खरीदने से पहले किसान स्‍वयं थोड़ी खली चखकर भी देखते हैं कि उसका स्‍वाद जानवर को पसंद आयेगा या नहीं। किसान ही नहीं अय्यर साहब के यहां भी अगर कोई जानवर हो तो वे शायद ऐसा करते होंगे। आखिर जानवर खाएगा तभी तो मुनाफा कमा कर देगा। पर गरीब जनता का क्‍या? उसके लिए ही तो कहा गया है 'काम का न काज का, दुश्‍मन अनाज का'। अय्यर साहब और मनमोहन साहब दोनो को डर है कि अगर जनता को स्‍वादिष्‍ट खाना और वो भी सस्‍ते में खिलाया गया तो जनता तो 'परिक' ही जाएगी। और एक बार अगर यह सिस्‍टम चल पड़ा तो फिर बन्‍द करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होगा। लिहाजा एक तरफ प्रधानमन्‍त्री महोदय ने इंडिया इंक के सीईओ की हैसियत से न्‍यायपालिका को उसका दायरा बताया वहीं दूसरी ओर एक अन्‍य बुर्जुआ अर्थशास्‍त्री ने गरीब जनता के लिए उसकी सामाजिक हैसियत (जानवर से भी बद्तर) के मुताबिक एक समाधान पेश कर दिया। मुनाफे को इंसान से पहले रखने वाले बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों से इसके अलावा और किस तरह के समाधान की उम्‍मीद की जा सकती है। बाज़ार के मन्दिर में मुनाफे के पुजारी प्रसाद में इसके सिवा और दे भी क्‍या सकते हैं?

1 comment:

कामता प्रसाद said...

अद्भुद प्रस्‍तुति। हमारे अमेठी में परकि नहीं परक जाना शब्‍द चलन में है।
बुर्जुआ जगत के कर्णधारों की आखिरी लंगोटी को भी उतारते हुए बड़े सलीके से अपनी बात रखी गयी है, साधुवाद।