Tuesday, November 27, 2012

विश्वनाथ मिश्र: भारत में क्रांति को समर्पित एक अनूठी प्रतिभा का देहावसान


अनूठे व्‍यक्तित्‍व के स्‍वामी, प्रखर वामपंथी बुद्धिजीवी और ऐक्टिविस्‍ट विश्‍वनाथ मिश्र का कल (26 नवंबर) सुबह लखनऊ में निधन हो गया। ब्रेन हैमरेज होने के बाद उन्‍हें करीब 15 दिन पहले गोरखपुर से लाकर लखनऊ के विवेकानंद पालीक्लिनिक में भरती कराया गया था। हालांकि वे अब भी आईसीयू में ही थे लेकिन उनकी हालत में सुधार होने की आशा लग रही थी। उनके पुराने साथी और प्रतिबद्ध चित्रकार रामबाबू और संजय ने बताया कि अभी कल ही जब वे उनसे मिलने गये थे तो उनके बेटे शशि कुमार ने बताया था कि सीने में कफ की दिक्‍कत बनी हुई है जिसका इलाज डॉक्‍टर कर रहे हैं। लेकिन कल सुबह अचानक उन्‍हें दिल का दौरा पड़ा जिससे वे उबर नहीं सके।
क्रांतिकारी वाम धारा के साथ उनकी सक्रियता के शुरुआती दिनों से ही उनके साथ सक्रिय रही कवि व ऐक्टिविस्‍ट कात्‍यायनी ने कहा कि उन्‍हें जैसे ही का. विश्‍वनाथ मिश्र के लखनऊ में भरती होने के बारे में पता चला वे और कुछ अन्‍य साथी उनसे मिलने गए। इस बीच उन्‍हें किसी काम से बाहर जाना पड़ा और आज सुबह अचानक यह दुखद समाचार मिला। कात्‍यायनी ने कहा कि उनके साथ करीब 22-23 वर्षों तक इतने सारे मोर्चों पर इतनी सघन सक्रियता का साथ रहा है कि उन सारी स्‍मृतियों को साझा कर पाना संभव नहीं है। 1982-83 में जब उनसे हम लोगों का संपर्क हुआ था तब वे अभी एक मार्क्‍सवादी क्रांतिकारी नहीं थे मगर एक रैडिकल रूढ़ि‍भंजक बुद्धिजीवी के रूप में अपने इलाके में प्रसिद्ध हो चुके थे। उन्‍हीं दिनों उनका लिखा नाटक 'विद्रोही वाल्‍मीकि' बहुचर्चित हुआ था जिसकी प्रस्‍तुति पर कालेज प्रशासन (‍नेशनल पीजी कालेज, बड़हलगंज जहां वे मृदा संरक्षण के अध्‍यापक थे) के रोक लगाने के बावजूद छात्रों-युवाओं ने हाल के फाटक तोड़कर सैकड़ों दर्शकों के समक्ष उसका मंचन किया था।
वामपंथी क्रांतिकारी राजनीति से जुड़ने के बाद विश्‍वनाथ मिश्र एक उदभट वक्‍ता, प्रखर लेखक, अनुवादक और संस्‍कृतिकर्मी के रूप में धुआंधार सक्रियता में जुट गए। नुक्‍कड़ सभाओं से लेकर सेमिनारों-संगोष्ठियों तक में वे बेहद प्रभावशाली ढंग से अपनी बात रखते थे और बहसों में उनके हस्‍तक्षेप विचारवान और चुटीले होते थे। 1984 में गोरखपुर में सांस्‍कृतिक आंदोलन की दिशा पर हुए ऐतिहासिक पांच-दिवसीय सेमिनार, 1986 में वाराणसी में छात्र आंदोलन की दिशा पर अखिल भारतीय संगोष्‍ठी, 1990 में मार्क्‍सवाद ज़िं‍दाबाद मंच द्वारा समाजवाद की समस्याओं पर आयोजित पांच दिवसीय सेमिनार या फिर चंडीगढ़ में जाति प्रश्‍न पर हुए सेमिनार में उनकी भागीदारी बेहद महत्‍वपूर्ण रही। लखनऊ, नैनीताल, सुपौल, पटना, लुधियाना आदि अनेक शहरों में आयोजित विभिन्‍न संगोष्ठियों में भी उन्‍होंने अपने हस्‍तक्षेप से छाप छोड़ी। संगोष्ठियों में विश्‍वनाथ मिश्र के ज्ञान की गहराई और तर्क-कुशाग्रता का लोहा देश के ख्‍यातिलब्‍ध विद्वानों को भी मानना पड़ता था। 'दायित्‍वबोध' संपादक मंडल के अपने साथी दिवंगत का. अरविंद के साथ उन्‍होंने अनेक महत्‍वपूर्ण साहित्यिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में सार्थक हस्‍तक्षेप किया। दकियानूसी विचारों और सड़ी-गली परंपराओं पर मारक चोट करने का कोई भी मौका वे नहीं छोड़ते थे चाहे वह किसी साथी की शादी का मौका हो या कोई सामाजिक आयोजन। पुराणों और प्राचीन ग्रंथों के अध्‍याय के अध्‍याय उन्‍हें कंठस्‍थ थे और धर्म व संस्‍कृति की दुहाई देने वालों को उन्‍हीं के हथियार से चारों खाने चित करने में वे माहिर थे।
करीब 16 वर्षों तक उन्‍होंने 'दायित्‍वबोध' का संपादन किया जो मार्क्‍सवाद, समाजवाद की समस्‍याओं, राजनीति, अर्थशास्‍त्र, साहित्‍य-कला पर गंभीर वैचारिक सामग्री प्रस्‍तुत करने वाली हिंदी में अपने ढंग की विशिष्‍ट पत्रिका थी। उन्‍होंने विविध विषयों पर कलम चलाई और 'दायित्‍वबोध' के अलावा मज़दूर अखबार 'बिगुल' तथा छात्र-युवा पत्र 'आह्वान' के लिए भी नियमित लिखते रहे। कृषि विज्ञान की पेशेवर पढ़ाई करने के साथ ही प्राचीन भारतीय दर्शन, धर्मशास्‍त्र, संस्‍कृत महाकाव्‍य, और इतिहास तथा भाषाशास्‍त्र का उन्‍होंने गहरा अध्‍ययन किया था। शेक्‍सपियर, बर्नार्ड शा, रसेल, डिकेंस आदि की कृतियों से लेकर समकालीन भारतीय साहित्‍य तक में उनकी गहरी रुचि थी और मार्क्‍सवादी दर्शन का उनका अध्‍ययन गहन था। साथ ही क्‍वांटम भौतिकी और सापेक्षिकता सिद्धांत पर भी उनकी गहरी पकड़ थी और इन विषयों पर किसी वैज्ञानिक से गंभीर चर्चा करने से लेकर युवाओं को सरल ढंग से समझाने तक का काम वे बराबर खूबी से करते थे। कृषि विज्ञान की लोकप्रिय पाठ्य पुस्‍तकें भी उन्‍होंने लिखी थीं।
अनुवाद को विश्‍वनाथ मिश्र एक बेहद ज़रूरी काम समझते थे और दर्शन, साहित्य तथा राजनीतिक अर्थशास्‍त्र विषयक सैकड़ों लेखों के अतिरिक्‍त उन्‍होंने कई महत्‍वपूर्ण पुस्‍तकों का भी अनुवाद किया। इनमें यांग मो का प्रसिद्ध उपन्‍यास 'तरुणाई का तराना', प्‍लेखानोव की कृति 'कला के सामाजिक उद्गम', प्रसिद्ध सोवियत भाषाविज्ञानी वी.एन. वोलोशिनोव की रचना 'मार्क्‍सवाद और भाषा का दर्शन', भगतसिंह की 'जेल नोटबुक' और लेनी वुल्‍फ़ की पुस्तिका 'क्रांति का विज्ञान' शामिल हैं। डेविड सेल्‍बोर्न की पुस्‍तक 'ऐन आई टु चाइना' और जार्ज थॉमसन की रचना 'मार्क्‍सवाद और कविता' का अनुवाद भी उन्‍होंने किया था।
इतनी जबर्दस्‍त बौद्धिक सक्रियता के बावजूद वे कोई कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी नहीं थे बल्कि एक अत्‍यंत सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। सड़कों-चौराहों पर, गांवों में उन्‍होंने सैकड़ों नुक्कड़ सभाएं कीं और प्रचार अभियान चलाए। नौजवानों की टोलियों के साथ साइकिल अभियानों में भी वे शिरकत करते थे। 1986 में राजीव गांधी की सरकार द्वारा लाई गई नई शिक्षा नीति के विरोध में पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई ज़ि‍लों में दिशा छात्र संगठन और पूर्वांचल नौजवान सभा की ओर से चलाए गए करीब एक महीने के सघन साइकिल अभियान में भी वे शामिल थे और 1991 में गोरखपुर से बिहार तक चले 15 दिन के धुआंधार प्रचार अभियान के वे एक अग्रणी भागीदार थे। बड़हलगंज जैसे छोटे से कस्‍बे में उनके कारण ही 'चेतना' कार्यालय वैचारिक और सांस्‍कृतिक चर्चाओं और गहमागहमी का केंद्र बना रहता था और दर्जनों छात्रों-युवाओं को उन्‍होंने अन्‍याय, रूढ़ि‍यों और शोषण-उत्‍पीड़न के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। बिना किसी हिचक के वे नुक्कड़ नाटकों में हर तरह की भूमिकाएं दिलचस्‍पी के साथ निभाते थे और बिल्‍कुल युवा साथियों से भी सीखने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। 1996 में गोरखपुर में युवा कार्यकर्ताओं के लिए आयोजित समग्र सांस्‍कृतिक कार्यशाला में भी उन्‍होंने कई सत्रों का संचालन किया।
देवरिया के एक निम्‍न मध्‍यवर्गीय परिवार में जन्‍मे विश्‍वनाथ मिश्र जीवनपर्यंत एक छोटे से कस्‍बे में अध्‍यापन करते हुए सामाजिक आंदोलनों में भागीदारी करते रहे। इस बात में ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं कि आज ऐसी प्रतिभाएं महानगरों के चर्चित विश्‍वविद्यालयों और संस्‍कृति केंद्रो में भी नहीं मिलतीं। मगर यश और पद की चूहा दौड़ से दूर वे जीवनभर ज्ञान-साधना करते रहे और जनता के मुक्ति-संघर्ष के साथ उनका सरोकार बना रहा। 1994 में 'राहुल फाउंडेशन' की स्‍थापना में भी उनकी अग्रणी भूमिका थी।
पारिवारिक समस्‍याओं और स्‍वास्‍थ्‍य की बाधाओं के कारण पिछले कुछ वर्षों से वे सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता से दूर हो गए थे। लेकिन उनकी प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं आयी थी और वे मार्क्‍सवाद तथा क्रांतिकारी विचारों के निरंतर संपर्क में थे। पिछले कुछ समय से वे फिर से लेखन और विचारों की दुनिया में सक्रिय होने की योजनाएं बना रहे थे लेकिन इसी बीच यह दुखद घटना हो गयी।
 
उनके अंतिम कुछ वर्ष भले ही सामाजिक सक्रियता से दूर गुज़रे लेकिन वे कभी उन लोगों की जमात में शामिल नहीं हुए जो 4-5 साल बड़े जोश से क्रांति-क्रांति खेलते हैं और फिर किनारा कसकर उपदेश, नसीहतें झाड़ने और निंदारस के जाम टकराने में जुट जाते हैं। ऐसे पाखंडियों से वे गहरी नफरत करते थे। इस किस्‍म के लोगों के बारे में उनका एक जुमला साथियों के बीच चर्चित था कि 'क्रीम जब सड़ता है तब उससे अधिक बदबूदार कुछ नहीं होता।'

Thursday, June 2, 2011

मीडिया के सिमैंटिक्‍स की चुनौतियां

अगर मनुष्य 'ह्यूमन कैपिटल' (मानवीय पूंजी) है, तो इसमें निहित है कि मुनाफे के लिए उसका निवेश किया जा सकता है। अगर मनुष्य एक 'संसाधन' (रिसोर्स) है, तो इसमें निहित है कि उस संसाधन का किसी पूर्वकल्पित उद्देश्य के लिए निवेश किया जाना है, और एक बार यह उद्देश्य निर्धारित हो जाने के साथ ही यह जरूरी हो जाता है कि कैपिटल या रिसोर्स का कुशलतम विकास और उपयोग किया जाये और उसके बारे में समस्त जानकारी एकत्रित की जाये। लिहाजा हमारे पास एक तरफ 'मानव संसाधन विकास मंत्रालय' है तो दूसरी तरफ 'आधार' (यूनिक आइडेंटिटी) योजना है। और हर ह्यूमन कैपिटल को उसकी विशिष्ट पहचान (यूनिक आइडेंटिटी) प्रदान करने का काम एक शीर्ष पूंजीपति और पूंजीपतियों के आइडियोलॉग नन्दन निलेकणी से अधिक उपयुक्त कौन होगा।
प्रश्न सरकार या पूंजीपति का नहीं बल्कि प्रश्न यहां मीडिया और उसके द्वारा शब्दों के प्रयोग का है। हर शब्द के साथ उसका अर्थ जुड़ा होता है और यहां आशय शब्द के शब्दकोशीय अर्थ से नहीं बल्कि उससे अधिक उसकी अर्थवत्ता, मूल्य, संदर्भ, निहितार्थ और प्रभाव से है। व्यापक अर्थों में कहें तो उस शब्द की विचारधारात्मक प्रतिध्वनि का है। मीडिया जाने-अनजाने जिन शब्दों का प्रयोग करता है वह जाने-अनजाने उन शब्दों से जुड़े मूल्यों को भी सम्प्रेषित करता है। प्रश्न यहां शब्द-सौन्दर्य के आधार पर शब्दों के चयन का नहीं बल्कि शब्द के व्यवहार में आलोचनात्मक विवेक का प्रयोग या प्रयोग न करने का है। अधिक ठोस निरूपण करें तो कह सकते हैं कि प्रश्न सत्ता-तन्त्र की शब्दावली के व्यवहार के माध्यम से मीडिया द्वारा उसकी विचारधारा को सहयोजित (को-ऑप्‍ट) कर लेने का है या जनमत निर्माता (कांशियंस बिल्डर) की भूमिका में मीडिया की पक्षधरता का है। 
हमारे देश की बौधिक चर्चाओं में किसी अन्य शब्द का उतना उपयोग या दुरुपयोग नहीं हुआ है जितना कि 'आम आदमी' का। शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता है जब मीडिया में आम आदमी की दुर्गति का रोना न रोया जाये और हर अखबार और न्यूज चैनल स्वयं को 'आम आदमी' का सबसे बड़ा हिमायती दिखाना चाहता है। लेकिन लगता है कि मीडिया अभी तक यह तय ही नहीं कर पाया है कि भारत का 'आम आदमी' आखिर है कौन?
आगे बढ़ने से पहले नीचे की पंक्तियां देखें:
'बजट से आम आदमी की अपेक्षाओं में सबसे ऊपर है आयकर में छूट।'[1]
'आम आदमी के सपनों की कार' (टाटा नैनो के बारे में)।[2]
ये पंक्तियां अनायास ही भारत के एक 'आम आदमी' की छवि गढ़ती हैं। दूसरी तरफ एक सरकारी समिति है जिसके अनुसार भारत की 77 फीसदी आबादी 20 रुपये रोज़ से कम पर गुज़ारा करती है। निश्चित ही अर्जुन सेनगुप्ता समिति की यह 77 फीसदीआबादी इन अख़बारों की 'आम आदमी' की परिभाषा में शामिल नहीं है। प्रकारान्तर से उपरोक्त कथनों से क्या यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि जो आयकर नहीं देता वह आम आदमी नहीं है। अगर ये अखबार देश की 77 फीसदी आबादी को 'आम आदमी' और खास आदमी की श्रेणी में नहीं गिनते तो फिर ये आबादी कौन-सी श्रेणी में आयेगी?
ऐसा नहीं है कि मीडिया '77 फीसदी' आबादी की बात नहीं करता। ऐसा भी नहीं है कि मीडिया सेनगुप्ता समिति के आंकड़ों से परिचित नहीं है या उन आंकड़ों का प्रयोग नहीं करता है। सवाल यह है कि मीडिया ने अपने आलोचनात्मक विवेक का प्रयोग क्यों नहीं किया। वह नैनो की निर्माता कंपनी या उसकी पीआर एजेंसी द्वारा चलायी शब्दावली को बिना सोचे-विचारे क्यों प्रयोग करता चला गया। आम आदमी को करों में छूट देने के लिए अपनी पीठ थपथपाने वाले वित्तमन्त्री से कड़े सवाल पूछने के बजाय मीडिया उनके 'आम आदमी' प्रेम के लिए उन्हें धन्यवाद प्रेषित करता नजर आता है। क्या मीडिया इतना भोला-भाला है कि एक मन्त्री और एक पूंजीपति ने इतनी आसानी से उसका फायदा उठा लिया। सरकार, पूंजीपति और मीडिया की भाषा में इस तरह की साम्यता क्या आम आदमी के लिए खतरे की घण्टी नहीं बजाती।
इस विशेष मामले थोड़ा छूट देकर अगर यह मान लिया जाये कि असावधानी की वजह से मीडिया ने सत्ता-तन्त्र को अपना फायदा उठा लेने दिया तो एक अन्य उदाहरण देखियेः
''...जब पूरी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था तथा जनता अपने आर्थिक विकास की गति पर गौरव करते हुए प्रगति के शिखर पर पहुंचने की आकांक्षा रखती है...'' (नई दुनिया, 11 सितम्बर 2009 का सम्पादकीय 'हड़ताल का अपराध')
पहले उदाहरण में जहां मीडिया की दृष्टि में शायद 'आम आदमी' की परिभाषा स्पष्ट नहीं है तो यहां सम्पादक महोदय ने लगता है खुद को ही 'जनता' मान लिया है। क्योंकि 20 रुपया से कम पर गुजारा करने वाले 77 फीसदी लोग, भूख से बेहाल देश का हर चौथा नागरिक, रक्ताल्पता से जूझ रही हर तीसरी स्त्री और कुपोषण का शिकार हर दूसरा बच्चा (पांच साल से कम आयु) आर्थिक विकास पर गर्व करने वाली 'जनता' में तो निश्चित ही नहीं शामिल होगा। पहले उदाहरण में जहां मीडिया का प्रच्छन्न रूप से फायदा उठा लिया जाता है, वहीं दूसरे उदारहण में मीडिया सत्ता-तन्त्र के पक्ष में सचेत प्रोपेगैण्डा कर रहा है, शासक वर्ग के पक्ष में सचेत रूप से जनमत निर्माता की भूमिका निभा रहा है।
यहीं मीडिया के सामने एक चुनौती भी खड़ी हो जाती है कि जिसे चैथा खम्भा कहा जाता है वह वास्तव में जनतन्त्र का चौथा खम्भा है या राज्यसत्ता का। मीडिया लोगों की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और कठिनाइयों से शासक वर्ग को अवगत करा रहा है या शासक वर्ग के पक्ष में जनता की राय बना रहा है, लोगों के भीतर अपने खुद के कष्टों को अपनी नीयति मानकर अभिजात वर्ग की उपलब्धियों का उत्सव मनाने की मानसिकता निर्मित कर रहा है। पर यह एक अलग निबन्ध का विषय है।
मीडिया ने जहां भाषा के मामले में असावधानी बरती है वहीं सत्ता-तन्त्र ने उसपर पर्याप्त ध्यान दिया है। पीआर एजेंसियों का काम सिर्फ सत्ता के गलियारों में अपने क्लाइंट के हितों की पैरवी करना ही नहीं है, बल्कि उनका एक प्रमुख काम मीडिया मैनेजमेंट भी है। जिन्दगी में आगे बढ़ने की चाहत रखने वाले युवा पत्रकारों के लिए राडिया टेप एक गाइडबुक का काम कर सकते हैं। भारतीय मीडिया के पाठ्यक्रम में नीरा राडिया के अध्याय ने अपनी सशक्त उम्मीदवारी पेश की है और इसकी उपेक्षा करना किसी भी भावी मीडियाकर्मी के लिए असम्भव होगा। इन टेपों की दुनियादारी, दूकानदारी और सौदेबाज़ी की नंगी, दो-टूक भाषा शैली की तुलना टीवी या प्रिंट मीडिया की परिष्कृत-परिमार्जित और खास लहजे और शैली में बोली और लिखी जाने वाली भाषा से करें तो मीडिया के सिमैंटिक्स (शब्दार्थ-विज्ञान) की गहन अंतर्दृष्टि हासिल होती है। मुझे नहीं लगता कि इन टेपों में कहीं 'ह्यूमन कैपिटल', 'आम आदमी', 'कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी', 'क्रोनी कैपिटलिज्म' जैसे शब्दों को उतना प्रयोग हुआ है, यदि हुआ भी है तो, जितना कि सार्वजनिक रूप से होता है। इस पूरे 'उद्यम' के एक 'स्टेकहोल्डर' ने 'बनाना रिपब्लिक' शब्द का प्रयोग अवश्य किया, मगर वह भी केवल इन टेपों के उजागर हो जाने के बाद व्यक्तिगत साख मिट्टी में मिल जाने की सम्भावना से घबराकर ही।
पहले सरकार सामाजिक दायित्व निभाती थी या ऐसा माना जाता था कि सरकार का सामाजिक दायित्व होता है। तब कॉरपोरेट सिर्फ मुनाफा कमाते थे। कालान्तर में सरकार ने अपना सामाजिक दायित्व निभाना बन्द कर दिया और अपना कॉरपोरेट दायित्व निभाना शुरू कर दिया। सत्ता-तन्त्र ने सत्ता के खेल की शब्दावली में एक नया शब्द जोड़ा 'कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी' (कॉरपोरेट का सामाजिक दायित्व)। अगर मुक्त बाजार अपने 'अदृश्य हाथ' से हर व्यक्ति तक समृद्धि का फल खुद ही पहुंचा देता है तो मुनाफा कमाने के अलावा कॉरपोरेट पर सामाजिक दायित्व का अतिरिक्त बोझ डालने की जरूरत ही क्या है?
पर एक बार फिर प्रश्नों का चयन मीडिया के अधिकार-क्षेत्र में आता है और इसके लिए वह अपने विज्ञापनदाताओं के अलावा किसी और के प्रति जिम्मेदार भी नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि टीवी पर गला फाड़ने वाले इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया के योद्धाओं ने प्रधानमन्त्री के साथ अपनी हालिया सीधी बातचीत में ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी जैसे विषयों पर कोई प्रश्न ही नहीं पूछा।[3] प्रधानमन्त्री के प्रति उदारता का प्रदर्शन करने वालों के अपने-अपने चैनलों पर चलने वाले कार्यक्रमों के नामों पर ज़रा ग़ौर फरमाएं - 'वी द पीपल', 'डेविल्स एडवोकेट', 'सीधी बात', 'वीर के तीर', 'फेस द नेशन', 'द बक स्‍टॉप्‍स हियर', 'वॉक द टॉक', 'फ्रैंकली स्पीकिंग विद अर्णब', इत्यादि। हल्के प्रश्नों और कार्यक्रमों के जोरदार नामों की तुलना करें और सिमैंटिक्स का महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाएगा।
राडिया टेपों ने प्रवचनात्मक पत्रकारिता करने वाले मीडिया को अपने स्वनिर्मित उच्च आसन से उतारकर आत्मान्वेषण करने पर विवश किया। इसने यह भी एकदम स्पष्ट कर दिया कि अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देने वाला मीडिया स्वयं अपना ही सबसे बड़ा सेंसर है। विषयों के चयन से लेकर प्रश्नों और भाषा तथा वक्ताओं के चयन तक मीडिया ने अपना दायरा स्वयं ही सीमित कर लिया है। 'नेक्सस' (गठजोड़) और 'क्रोनी कैपिटलिज़्म' (चहेतों का पूंजीवाद) तब नया अर्थ ग्रहण कर लेते हैं जब कार्यक्रमों की उबाऊ एकरूपता, वक्ताओं और लेखकों की नियमितता और बातों के दुहराव के मामले में और मीडिया कॉरपोरेशनों के अन्दरूनी मामलों की रिपोर्टिंग न करने के मामले में सभी मीडिया संस्थानों की नीति एक जैसी दिखाई पड़ती हे। मीडिया संस्थानों के मीडिया कॉरपोरेशनों में तब्दील होने के साथ ही कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व एक नये रूप में सामने आता है, और इस बार उसका नाम 'सपोर्ट माई स्कूल', 'ग्रीनाथॉन', 'सिटिज़न जर्नलिस्ट', 'इण्डियन ऑफ द ईयर' होता है।
यूं तो पूंजी का कोई देश नहीं होता और जहां सस्ता श्रम मिल जाये उसका वहीं निवेश हो जाता है। लेकिन पूंजीपति का देश होता है और चूंकि उसका पैसा मीडिया में लगा होता है इसलिए मीडिया इस बिकाऊ देशप्रेम का सबसे बड़ा प्रवक्ता और प्रस्तोता बन जाता है। चूंकि मुख्यधारा की मीडिया के लिए देश का मतलब देश के लोगों से नहीं होता इसलएि व्यक्ति के अधिकार और उपेक्षित जातियों, राष्ट्रीयताओं के अधिकार के मसले पर मीडिया राज्यसत्ता द्वारा खींची लक्ष्मण-रेखा के ज्यादा इधर-उधर भटकने की जहमत नहीं उठाता। यहां देश और देशप्रेम सभी शब्दों और भावनाओं पर प्रधान हो जाते हैं और बाकी सबकुछ उनके मातहत हो जाता है। यहां भी शब्दो के गूढ़ अर्थ में जाने का प्रयास नहीं किया जाता और एक छोटा-सा प्रश्न भी नहीं पूछा जाता 'किसका देश'।
नवम्बर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा दुनिया के दो 'महान जनतन्त्रों' का मिलन था। मीडिया में दोनों महान जनतन्त्रों की तारीफ की होड़ लगी हुई थी। अगर प्रोपेगैण्डा को स्वार्थपूर्ति का हथियार बनाया जाए तो सबसे पहला शिकार ऐतिहासिक तथ्यों को बनाना पड़ता है। जहां तक भारत के एक महान जनतन्त्रहोने की बात है तो इस लेख के शुरू में दिए गए कुछ आंकड़ों से उसकी सही तस्वीर साफ हो जाती है। वहीं दूसरी ओर अमेरिका कितना बड़ा जनतन्त्र है यह साबित करने के लिए सिर्फ इतना बताना काफी होगा कि 1968 तक वहां के कई राज्यों में डार्विन का सिद्धान्त पाठ्यक्रम में नहीं पढ़ाया जाता था क्योंकि वह बाइबिल की शिक्षाओं के खिलाफ जाता था, 1964 तक अफ्रीकी अमेरिकियों को कानूनी रूप से वोट देने का अधिकार नहीं प्राप्त था और 1965 तक वे बसों की पिछली सीटों पर बैठते थे और गोरों के आने पर उन्हें सीट छोड़कर खड़ा होना पड़ता था। आज भी पूरी दुनिया में अपने हितों के लिए अमेरिका जो अपराध कर रहा है उसे देखते हुए उसे महान जनतान्त्रिक देश तो नहीं ही कहा जा सकता है। किसी भी चैनल या अखबार ने पाठकों को इस मौके पर अमेरिका के इतिहास से परिचित कराने का प्रयास नहीं किया। मीडिया को वर्तमान की चिन्ता है और इसलिए वह देशों के इतिहास के बारे में पाठकों और श्रोताओं को नहीं बताता, पर यदि बात क्रिकेट के इतिहास की हो तो भारतीय मीडिया से ज्याद ज्ञान और कहीं नहीं मिल सकता। ओबामा की यात्रा के दौरान हमारा मीडिया तो इसी बात से अभिभूत था कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत को 'उभरता हुआ देश' नहीं बल्कि 'उभर चुका देश' घोषित किया। देश को मिलने वाले सम्मान से मीडिया की आंखें इस हद तक भर आई थीं कि वह राष्ट्रपति ओबामा और हथियार कम्पनियों के हितसाधक ओबामा के बीच कोई फर्क ही नहीं कर पाया। भारत की जमीन से ओबामा ने पाकिस्तान का जिक्र कर दिया यह मीडिया के लिए इतनी बड़ी बात थी कि ओबामा से सिर्फ पाकिस्तान संबंधी प्रश्न पूछने की वीरता दिखाने वाली मुंबई की स्कूली छात्रा के लिए राजदीप सरदेसाई अपनी कुर्सी छोड़ने को तैयार हो गये थे। वास्तव में वे अपनी ही सफलता पर अभिभूत थे। उन्होंने उस छात्रा की सोच निर्मित करने (कांशियंस बिल्डिंग) में सफलता जो प्राप्त कर ली थी!

सन्‍दर्भ:
1 http://economictimes.indiatimes.com/quickiearticleshow/7591584.cms,
http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=44514  (अनुवाद हमारा)
2 http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4787878.cms,
http://www.bhaskar.com/2009/03/22/0903220705_tata_nano.html (अनुवाद हमारा)
3 द हिंदू में पी. साइनाथ का लेख 21 फरवरी 2011

(यह लेख अप्रैल 2011 के कथादेश के मीडिया विशेषांक में प्रकाशित हो चुका है।)

Wednesday, March 2, 2011

Every capitalism is a 'crony capitalism'.

'Laissez-faire' is just a relative term. Every capitalism is a 'crony capitalism'. Bourgeois Democracy is just that....a 'Bourgeois Democracy'.

Just see what Paul Krugman (Nobel Laureate and bourgeois economist) has to say...

'In principle, every American citizen has an equal say in our political system. In practice, of course, some of us are more equal than others. Billionaires can field armies of lobbyists; they can finance think tanks that put the desired spin on policy issues; they can funnel cash to politicians with sympathetic views (as the Koch brothers did in case of Mr. Walker). On paper, we're a one-person-one-vote nation; in reality, we're more than a bit of an oligarchy, in which a handful of wealthy people dominate.' (The Hindu, Feb 22, 2011).

And Mr. Krugman is no Marxist. He is just another bougeois apologist. And if this is what he feels about the Great American Capitalist Democracy do we need to add anything more...!

Friday, December 31, 2010

विकिलीक्‍स और राडिया टेप्‍स : अपेक्षाएं, प्रभाव और विकल्‍प

पहली बात तो यह कि विकीलीक्‍स और राडिया टेप्‍स से ऐसी कोई नई जानकारी नहीं मिली जिसका पहले से अन्‍दाजा न हो। साम्राज्‍यवादी बर्बरता हो या बुर्जुआ नेताओं का दोमुंहापन, कॉरपोरट लॉबीइंग हो या मीडिया की हस्तियों का सत्ता के दलाल के रूप में काम करना..... कुछ भी नया, अप्रत्‍याशित नहीं है। न तो इससे व्‍यवस्‍था को कोई संकट उत्‍पन्‍न होने वाला है और न ही उसके ढंग-ढर्रे पर कोई फर्क पड़ने वाला है।

हमारे देश और दुनिया में निश्चित ही एक ऐसा पढ़ा-लिखा मध्‍यवर्गीय तबका (ग्रेट इंडियन मिडल क्‍लास का हिस्‍सा) है जिसकी भावनाओं को थोड़ी चोट पहुंची है। भले ही यह मध्‍यवर्गीय तबका किसी न किसी रूप में भ्रष्‍टाचार से लाभान्वित होकर ही आज इस स्थिति में पहुंचा है लेकिन अब उसे भ्रष्‍टाचार रास नहीं आता। वह एक सुन्‍दर, शालीन, दूध का धुला पूंजीवाद चाहता है। वह अभी तक भूला नहीं है कि कैसे वह भ्रष्‍टाचार, दहेज और जाति प्रथा के खिलाफ लेख लिखा करता था (परीक्षाओं और क्‍लासरूम में), कैसे उसने कसमें खाई थीं कि एक दिन खूब पैसा कमाकर वह देश से गरीबी मिटा देगा, कैसे वह कहता था कि दूसरों की मदद आप तभी कर पाएंगे जब आप स्‍वयं शक्तिशाली हों। पर परिस्थितियों की मार ने उसे घर, गाड़ी, नौकरी, प्रोमोशन, बीमा, बीबी, बच्‍चे में ऐसा उलझाया कि बेचारा किसी काम का न रहा।

पर उसने अपेक्षाएं अभी भी नहीं छोड़ी हैं। वो खुद कुछ नहीं कर पाया तो क्‍या उसके आदर्श रतन टाटा और बिल गेट्स तो कर रहे हैं। वे अपनी अरबों की सम्‍पत्ति दान कर रहे हैं, धर्म-कर्म के काम करके जनता के गुस्‍से से पंजीवाद की सुरक्षा कर रहे हैं। पर पूंजीवाद के सुंदर-सलोने मुखड़े पर भ्रष्‍टाचार के दाग उसे अच्‍छे नहीं लगते। भ्रष्‍टाचार-मुक्‍त पूंजीवाद उसका आदर्श है। हालांकि सच्‍चाई यह है कि भ्रष्‍टाचार से उसके जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ता, भ्रष्‍टाचार से उसकी चाय का स्‍वाद खराब नहीं होता, उसके खर्चो में कोई कमी नहीं आती। वह खुद लाइन में लगने के बजाय थोड़े पैसे देकर अपना काम जल्‍दी करवा लेता है और कहता है कि यहां तो ऐसे ही चलता है। कैरियर ओरिएंटेड पढ़ाई करने के कारण उसने कभी जाना ही नहीं कि भ्रष्‍टाचार-मुक्‍त पूंजीवाद भ्रष्‍टाचार वाले पूंजीवाद से किसी भी रूप में कम अत्‍याचारी नहीं होता। और अब उसका वर्ग बोध उसे यह तर्क समझने ही नहीं देता। अब वर्गीय पक्षधरता उसके नौजवानी के आदर्शों को सर भी नहीं उठाने देती।

इन खुलासों से जनता को भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जनता अपने सहज वर्ग बोध से सब समझती है। कॉरपोरेट मीडिया चाहे रतन टाटा को भारतीयों का आदर्श घोषित कर दे या पेड न्‍यूज चलाकर नेताओं की तारीफ करती रहे। पब्लिक सब समझती है। प्रश्‍न यह है कि अगर पब्लिक सब समझती है तो फिर सब सहती क्‍यों है।

पूंजीपतियों के बीच आपसी प्रतिस्‍पर्धा के कारण ऐसे खुलासे स्‍वयं बुर्जुआ मीडिया के माध्‍यम से समय समय पर आते रहते हैं और आगे भी आते रहेंगे। पूंजीपतियों के बीच आपसी मार-पीट और गलाकाटू प्रतिस्‍पर्धा कहीं व्‍यवस्‍था के लिए ही संकट न पैदा कर दे इसलिए पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी या सरकार की चिंता यह है कि एक दूसरे को नंगा करने पर उतारू ये मुनाफाखोर पूंजीपति अपने-अपने स्‍वार्थ में अंधे होकर कहीं पूरी पूंजीवादी व्‍यवस्‍था को ही नंगा न कर दें। इसलिए प्रधानमंत्री का दुख यह नहीं है कि एक पूंजीपति उनकी पार्टी को अपनी दूकान कहता है तो दूसरे के मुताबिक उनका एक केंद्रीय मंत्री हर परियोजना पर 15 प्रतिशत दलाली लेता है। उनकी चिंता सिर्फ यह है कि कहीं पूंजीपति बुरा न मान जाएं और वे पूंजीपतियों को उनके हितों की रक्षा का आश्‍वासन देते घूम रहे हैं।


विकिलीक्‍स हो या राडिया टेप्‍स, ये खुलासे अपने आप में इस व्‍यवस्‍था के सामने इससे बड़ा संकट नहीं पैदा कर सकते। पूंजीवाद की सेहत पर इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता बस थोड़ा जुकाम हो सकता है। संकटग्रस्‍त पूंजीवाद भी अपने आंतरिक संकटों के कारण भरभराकर नहीं गिर पड़ेगा। उसे ध्‍वस्‍त करने के लिए बाहरी ताकत की आवश्‍यकता होगी। जनता की एकजुट शक्ति की फौलादी ताकत की आवश्‍यकता होगी। पूंजीवाद कोई न कोई जोड़-तोड़ करके लड़खड़ाते हुए भी काफी दूर तक चल सकता है पर जबतक लोगों की वैकल्पिक शक्ति एकजुट होकर प्रहार नहीं करती तबतक मरणासन्‍न हालत में भी यह व्‍यवस्‍था मनुष्‍य और प्रकृति पर काफी कहर बरपा करती रहेगी। इसलिए जरूरी है कि पूंजीवाद के संकटों पर खुशी मनाने के बजाय जनता की शक्ति को संगठित और गोलबन्‍द किया जाये।

Sunday, October 24, 2010

ओबामा की दुविधा और बुर्जुआ जनतंत्र की हकीकत

नोबेल शांति पुरस्‍कार ग्रहण करते समय बराक ओबामा ने झूठ नहीं कहा था कि उन्‍होंने अभी तक ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसकी वजह से यह पुरस्‍कार उन्‍हें दिया जाए। ओबामा पर आरोप यह नहीं है कि उन्‍होंने झूठ बोला बल्कि यह कि उन्‍होंने सच को छुपाया। उन्‍हें कहना यह चाहिए था कि उनका आगे भी ऐसा कुछ करने का इरादा नहीं है।

नोबेल पुरस्‍कार समिति की दुविधा यह है कि उन्‍हें नोबेल शांति पुरस्‍कारों के लिए सुयोग्‍य उम्‍मीदवार नहीं मिल रहे हैं। श्रम और पूंजी का अंतरविरोध जैसे-जैसे तीखा और व्‍यापक होता जा रहा है उसमें यह संभव नहीं रह गया है कि पूंजी के हितों के किसी पैरोकार को सर्वसम्‍मति से शांति पुरस्‍कारों के‍ लिए चुना जा सके। ऐसे में नोबेल पुरस्‍कार समिति ऐसे लोग को चुन रही है जो अपनी बातों से बुर्जुआ जगत को ऐसा आभास दिलाते हैं और जिनकी बातों की सच्‍चाई अभी सिद्ध नहीं हुई है क्‍योंकि ऐसी किसी सच्‍चाई के सिद्ध होने की संभावना ही नहीं बची है।

यही वजह है कि मोहम्‍मद युनुस को अर्थशास्‍त्र का नहीं बल्कि शांति का नोबेल पुरस्‍कार दिया गया क्‍योंकि उन्‍होंने सूक्ष्‍म ऋण के जाल में फंसाकर एक बड़ी मेहनतकश आबादी के गुस्‍से से पूंजीवादी व्‍यवस्‍था को बचाने का नुस्‍खा ईजाद किया था हालांकि ज्‍यादा समय नहीं हुआ कि यह नुस्‍खा भी बेकार साबित हो चुका है। पुंजी की मार जिस तेजी से लोगों को उजाड़कर दर-बदर कर रही है उसमें सूक्ष्‍म ऋण भी लोगों पर बहुत भारी पड़ रहा है। 

पर बराक ओबामा की दुविधा खत्‍म होने का नाम नहीं ले रही है। अमेरिका की बुरी तरह संकटग्रस्‍त अर्थव्‍यवस्‍था के लिए ओबामा की चलने-बोलने की मनमोहक अदाबाजी और सुचिंतित जुमलेबाजी एक ताजा हवा के झोंके और विश्‍वास बहाली के प्रयास सरीखी थी। पूरी दुनिया की पूंजीवादी अर्थव्‍यवस्‍थाओं तक इस विश्‍वास का अहसास पहुंचाने के‍ लिए एक विश्‍वस्‍तरीय मान्‍यता की जरूरत थी और दुनियाभर के सट्टा बाज़ार के खिलाडि़यों को भरोसा देने के‍ लिए नोबेल शांति पुरस्‍कारों से बढ़कर और क्‍या हो सकता था, भले ही इस शांति दूत का देश दुनिया में जनसंहारक हथियारों की आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा देश हो। ओबामा के आगमन पर हो-हल्‍ला मचाने वाला बुर्जुआ मीडिया भी अब उनकी तारीफ में कसीदे नहीं पढ़ रहा है। आखिर मीडिया भी किसी झूठ पर कितनी देर पर्दा डाल सकेगा।

ओबामा की दूसरी दुविधा उनके नाम को लेकर है। बेचारे क्‍या करें कि उनके नाम के बीच में हुसैन शब्‍द भी जुड़ा हुआ है और दुनिया के सबसे आधुनिक जनतांत्रिक देश की जनता को यह बात पच नहीं रही है कि उनका राष्‍ट्रपति एक खास धर्म (इस्‍लाम) का हो या एक खास धर्म (ईसाई) का न हो। बेचारे ओबामा यह बता-बताकर थक गए हैं कि उनके नाम में हुसैन शब्‍द भले ही आता हो लेकिन वे मुसलमान नहीं हैं। उन्‍हें डर है कि अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी लोकप्रियता और उनका पद भी छिन सकता है। उनपर लोगों को भरोसा भी कम हो जाएगा। उन्‍हें यह डर इस हद तक है कि अपनी आगामी भारत यात्रा के दौरान अमृतसर के स्‍वर्ण मंदिर में दर्शन करने जाते समय सिर ढंकने की प्रथा के कारण कहीं अमेरिका में उन्‍हें मुसलमान न समझ लिया जाए इसका निराकरण करने के‍ लिए उन्‍होंने अमृतसर की यात्रा ही रद्द कर दी। (बुर्जुआ पढ़ाई से मूर्ख ही पैदा हो सकते हैं इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका के लोग हैं। जॉर्ज बुश जैसे अल्‍पज्ञानी का राष्‍ट्रपति बनना भी इसी की एक बानगी था। हमारे यहां भी बहुत सारे लोग यह कहते नहीं अघाते कि भारत की सबसे बड़ी समस्‍या निरक्षरता है। जैसे कि अगर पढ़े लिखे होते तो उन्‍हें मनमोहन सिंह, राहुल गांधी और गडकरी से बेहतर नेता मिल जाते।)

आधुनिक बुर्जुआ धर्मनिरपेक्षता की गहराई बस इतनी है। भारत में संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए यह नारा दिया जाता है कि मुसलमान को राष्‍ट्रपति बनाया जाए, अमेरिका में संकीर्ण राजनीतिक हितों का तकाजा है कि मुसलमान राष्‍ट्रपति न बने। हमें तो अभी साठ साल ही हुए हैं पर तीन सौ से अधिक सालों से जनतांत्रिक प्रणाली होने के बावजूद अमेरिका का हाल हमसे कोई खास बेहतर नहीं है। इसके साथ ही पूरे यूरोप में इस्‍लाम के भय ने यह साबित कर दिया है कि धर्म, नस्‍ल, भाषा और लिंग जैसे लोगों को बांटने वाले मध्‍ययुगीन भेद आज भी पूंजीवादी राजनीति के लिए जरूरी उपकरण हैं। समाज को आगे ले जाने की विचारधारात्‍क शक्ति से क्षरित हो चुकी बुर्जुआजी के पास श्रम की संगठित ताकत का मुकाबला करने के‍ लिए लोगों को बांटने वाले ऐसे विभेदों पर निर्भर होने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं बचा है।

Saturday, October 2, 2010

बुर्जुआ राज्‍य के कानून में धर्मनिरपेक्षता और आस्‍था की खिचड़ी

पिछले दिनों अमेरिका, यूरोप से लेकर भारत तक घटी घटनाओं ने बुर्जुआ राज्‍यों की धर्मनिरपेक्षता का नकाब उतार फेंका है। चाहे क़ुरान को जलाने का मामला हो या वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर की भूमि पर मस्जिद बनाने का मसला हो, बुर्जुआ राज्‍यों का पक्षपात और कानून की विसंगतियां खुले रूप में सामने आई हैं। पर इस मामले में भारत ने बाकी देशों को पीछे छोड़ दिया है।

रामजन्‍मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर तीन जजों की खंडपीड ने जो फैसला सुनाया है और जिस तरह से इस फैसले पर पहुंचा गया है उससे पता चलता है कि भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था किस तरह काम करती है। तथयों की जिस तरह अनदेखी करके आस्‍था को आधार बनाकर फैसला किया गया है और इतिहास की गलतियों को ठीक करने का जिस तरह प्रयास किया गया है आने वाले भविष्‍य के लिए उसके गहरे निहितार्थ हो सकते हैं। जिस तरह रामलला को एक पक्ष बनाकर न्‍यायालय ने जमीन का एक टुकड़ा उन्‍हें या उनके प्रतिनिधियों को सौंपा है क्‍या उसी तर्क पर पूंजीवादी भारतीय राज्‍य की न्‍याय व्‍यवस्‍था आदिवासियों के जंगलों, नदियों और पहाड़ों को भी राष्‍ट्रीय-बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के चंगुल से छुड़ाकर उन्हें सौंपेगी। निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि मुनाफाखोर पूंजीवादी राज्‍य किसी भी हालत में ऐसा नहीं होना देगा।

भारत में यूं तो जिसके पास पैसा और पॉवर है वह कानून को अपनी जेब में रखकर घूम सकता है लेकिन भारत में विधि का शासन चलता है यह इस बात से भी पुष्‍ट होता है कि भगवान श्री रामलला को भी अपनी तथाकथित 'जन्‍म‍स्‍थली' पर अधिकार प्राप्‍त करने के लिए कानून की शरण में जाना पड़ा। आखिरकार सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वज्ञाता भगवान को मृत्‍युलोक के तुच्‍छ प्राणियों की अदालत में अपील करनी पड़ी और सिर्फ अपील ही नहीं करनी पड़ी नाबालिग होने के कारण उन्‍हें एक मानवमात्र का अभिभावकत्‍व भी स्‍वीकार करने पर मजबूर होना पड़ा जो निश्चित ही कोई अवतार नहीं है। मुसलमानों के साथ दिक्‍कत यह है कि उनका धर्म इसकी इजाजत नहीं देता कि वे अपने खुदा को इंसान की अदालत में पेश करें। शायद ऐसे किसी अलौकिक सम्‍बल की कमी भी एक कारण हो कि यह फैसला उनके खिलाफ चला गया।

भारत भूमि चमत्‍कारों की भूमि हैं। यहां कुछ भी असम्‍भव नहीं है। यहां किसी भी धार्मिक चीज में कोई विसंगति नहीं है। हर विसं‍गति के लिए उससे भी अधिक विसंगतिपूर्ण समाधान मौजूद है। यहां व्‍यक्तिगत लाभ के लिए किसी भी चीज को धार्मिक जामा पहनाकर मान्‍यता दी जा सकती है। यहां चंद मिनटों में भगवान को इंसान और इंसान को भगवान बनाया जा सकता है, कुकृत्‍य को सुकर्म बनाया जा सकता है पाप को पुण्‍य बनाया जा सकता है। बस देखना यह होता है कि करने वाला व्‍यक्ति कौन है। भारतीय राज्‍य की धर्मनिरपेक्षता की जमीन कितनी पोली है यह पूरा मसला उसका बखान करता है।

Thursday, September 30, 2010

कुपोषण, स्‍वाद और स्‍वामीनाथन अय्यर की संवेदनशीलता

'अर्थशास्‍त्र राजनीति का सान्‍द्रतम रूप है' मार्क्‍स के इस कथन की भोंडी अभिव्‍यक्ति इस रूप में हुई है कि भारतीय बुर्जुआ जनतन्‍त्र की कमान अर्थशास्त्रियों और वकीलों के हवाले हो गई है। अगर मुनाफे की गारंटी सबसे बड़ी सरकारी जिम्‍मेदारी बन जाए तो ज़ाहिर है सरकार इसमें कोई हस्‍तक्षेप बरदाश्‍त नहीं करेगी।

सुप्रीम कोर्ट ने जब कहा कि अनाज सड़ाने के बजाय गरीबों में बॉंट दिया जाये तो प्रधानमन्‍त्री फनफना उठे। किसे ज़िन्‍दा रखना है और किसे भूखा मारना है यह नीतिगत मसला है और विधायिका का काम है, इसलिए प्रधानमन्‍त्री महोदय ने न्‍यायपालिका को अपने दायरे में रहने की हिदायत अविलम्‍ब दे दी। देरी कर भी कैसे सकते थे। आज जबकि देशों का भविष्‍य शेयर बाज़ार के बुलबुले के फूलने और फूटने पर टिका हो वहां देरी कितनी घातक हो सकती है यह प्रधानमन्‍त्री अच्‍छी तरह जानते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भुखमरी के बाज़ार पर पड़ने वाली चोट देश की आर्थिक प्रगति के कर्णधार पूँजीपतियों में जो निराशा फैलाएगी उसकी चिन्‍ता अर्थशास्‍त्री प्रधानमन्‍त्री को नहीं होगी तो किसे होगी।

मुनाफा ही बुर्जुआ अर्थशास्‍त्र का ब्रह्मवाक्‍य है और पूँजीवादी बाज़ार का तर्क इस बात की इजाज़त ही नहीं देता कि माल को मुनाफे के लिए ज़रूरी कीमत से कम पर बेचा जाए। आखिर आज से पहले भी और पूरी दुनिया में अनाज सड़ता रहा है, जलाया जाता रहा है, या समन्‍दर में गिराया जाता रहा है। बाज़ार के खेल में यह एक सामान्‍य सी बात है जिसे सभी जानते हैं। मिलावट करना, जमाखोरी करना, कालाबाज़ारी करना भी उतना ही सामान्‍य है और पूरी तरह पूँजीवादी नैतिकता के दायरे में आता है। पर किसी माल को सस्‍ते में बेचना, मुनाफा कम करके बेचना.... नहीं नहीं... अर्थशास्‍त्री प्रधानमन्‍त्री की आत्‍मा चीत्‍कार उठी!!

आत्‍मा तो स्‍वामीनाथन अय्यर की भी चीत्‍कार उठी! लिहाजा उन्‍होंने फरमाया कि बात यह नहीं है कि लोग ग़रीब हैं और उन्‍हें खाने को पर्याप्‍त नहीं मिलता। दिक्‍कत यह है सरकार गरीबों को देने के लिए जितना सस्‍ता अनाज भेजती है वो वास्‍तविक गरीबों तक पहुंचने के बजाय ऐसे लोगों द्वारा हजम कर लिया जाता है जो महंगा अनाज खरीद सकते हैं। इसलिए सरकार को करना ये चाहिए कि गरीबों को जितना अनाज सस्‍ते में देना है उसको पाउडर के रूप में कुछ अन्‍य विटामिन और प्रोटीन मिलाकर देना चाहिए। अय्यर साहब की दरियादिली देखकर अगर आपकी आंखों में आंसू उमड़ पड़ने वाले हों तो ज़रा ठहरिये। स्‍वामीनाथन जी आगे कहते हैं - लेकिन ऐसा करने से पहले उस पाउडर को इतना कड़वा, बेस्‍वाद बना देना चाहिए कि केवल वही लोग उसे खाएं जो वास्‍तव में भूख्‍ा से मर रहे हों। ज़ाहिर सी बात है कि इतना बेस्‍वाद खाना खाने में अमीर लोगों को कोई दिलचस्‍पी नहीं होगी और लिहाजा वास्‍तविक ज़रूरतमंदों को पोषक भोजन मिल जाएगा।

इतना दयालु अर्थशास्‍त्री बिरले ही कभी पैदा हो। अय्यर साहब कम से कम हमारे प्रधानमन्‍त्री महोदय से ज्‍़यादा संवेदनशील तो हैं ही। प्रधानमन्‍त्री जहां लोगों को निवाला ही नहीं देना चाहते वहां अय्यर साहब केवल उस निवाले का स्‍वीद छीनने की बात कर रहे हैं।

गॉंव में देखा है कि मवेशियों के चारे में खली नाम की एक चीज मिलाई जाती है जिससे कि उनका चारा स्‍वादिष्‍ट हो जाए और वे ज्‍़यादा मात्रा में खाएं। यहां तक कि खली खरीदने से पहले किसान स्‍वयं थोड़ी खली चखकर भी देखते हैं कि उसका स्‍वाद जानवर को पसंद आयेगा या नहीं। किसान ही नहीं अय्यर साहब के यहां भी अगर कोई जानवर हो तो वे शायद ऐसा करते होंगे। आखिर जानवर खाएगा तभी तो मुनाफा कमा कर देगा। पर गरीब जनता का क्‍या? उसके लिए ही तो कहा गया है 'काम का न काज का, दुश्‍मन अनाज का'। अय्यर साहब और मनमोहन साहब दोनो को डर है कि अगर जनता को स्‍वादिष्‍ट खाना और वो भी सस्‍ते में खिलाया गया तो जनता तो 'परिक' ही जाएगी। और एक बार अगर यह सिस्‍टम चल पड़ा तो फिर बन्‍द करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होगा। लिहाजा एक तरफ प्रधानमन्‍त्री महोदय ने इंडिया इंक के सीईओ की हैसियत से न्‍यायपालिका को उसका दायरा बताया वहीं दूसरी ओर एक अन्‍य बुर्जुआ अर्थशास्‍त्री ने गरीब जनता के लिए उसकी सामाजिक हैसियत (जानवर से भी बद्तर) के मुताबिक एक समाधान पेश कर दिया। मुनाफे को इंसान से पहले रखने वाले बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों से इसके अलावा और किस तरह के समाधान की उम्‍मीद की जा सकती है। बाज़ार के मन्दिर में मुनाफे के पुजारी प्रसाद में इसके सिवा और दे भी क्‍या सकते हैं?